Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – पंच परमेश्वर या पति परमेश्वर

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

– सुभाष मिश्र

हमारे यहां पंच को परमेश्वर कहा जाता है। मुंशी प्रेमचंद ने पंच परमेश्वर के नाम से एक कहानी भी लिखी जो बहुत चर्चित है। हमारे यहां आपसी बोलचाल में पति को भी परमेश्वर कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले की परसवारा पंचायत में निर्वाचित महिला पंच तो शपथ लेने के मामले में पीछे रह गई पर परन्तु उनके परमेश्वर पतियों ने उनके बदले जरूर शपथ ले ली। पूरे देश में महिला सशक्तिकरण की ज़मीनी हकीकत क्या है, यह उसकी एक झलक मात्र है।
पंचायती राज अधिनियम 1993-94 के तहत महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इसके बाद नगरीय निकाय और अब 2029 में लोकसभा, विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण देने की तैयारी है पर ज़मीनी सच्चाई आज भी पितृ सत्तात्मक समाज वाली है। छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले की पंडरिया तहसील के परसवारा पंचायत में नवनिर्वाचित पंचायत प्रतिनिधि महिलाओं के बदले उनके पतियों ने शपथ ली। यह हमारे समाज की मानसिकता को दर्शाता है। अमूमन ओटीटी प्लेटफार्म पर पंचायत नामक सीरिज़ बहुत लोकप्रिय हुई, पर इसमें भी ग्राम प्रधान महिला सरपंच की जगह उसका पति ही सारी बैठकों में निर्णय में शमिल होता दिखाई दिया। पंचायत सीरिज की तरह दिखाया गया ग्राम परसवारा जहां का यह मामला है वहां 12 वार्ड हैं जिनमें 6 महिला पंच है। इन 6 महिला पंचों के बदले उनके पतियों को शपथ दिलाई गई। जब इस शपथ समारोह का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तब प्रशासन जागा और पंचायत सचिव को निलंबित किया गया और अब महिला पंचों को अलग से शपथ दिलाने की तैयारी है। शुक्र है कि यह मामला उजागर हो गया वरना औपचारिकता के लिए महिला प्रतिनिधियों की शपथ तो होती है पर उनका काम उनके पति ही संभालते हैं। पंचायत की बैठक में भी महिला प्रतिनिधि नदारद रहती हैं। यह हाल पूरे देश का है।
दरअसल पांच साल तक पति, पिता, पुत्र ये सोचकर जनसंपर्क करता है, मंसूबे पालता है कि वो अबकी बार पंच, सरपंच, पार्षद, नगर पंचायत,नगरपालिका के अध्यक्ष नगरनिगम के मेयर का चुनाव लड़ेगा पर रिज़र्वेशन महिला का हो जाता है। फिर वो अपने घर-परिवार की महिला को चुनाव में खड़ा करके खुद ही सब कुछ करता है। चुनाव जीतने के बाद उसे लगता है कि यह चुनाव दरअसल उसने जीता है फिर वो प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के सारे पॉवर अपने पास रखना चाहता है। चुनाव में सारी प्रचार सामग्री में भी पत्नी के नाम के पीछे पति का नाम सरनेम जुड़ा होता है जो यह दर्शाता है कि असली आदमी कौन है। बहुत जगह सरपंच, पंचायत ऐप नगरीय निकाय प्रतिनिधियों के बदले घर के भीतर जाकर कार्यवाही विवरण, आवेदन, आदेश पर भी पति महोदय महिला के नाम से दस्तख़त भी कर देते हैं और खुद ही निर्णय ले लेते हैं। महिला प्रतिनिधि स्टैंप मात्र होती है। पंचायत सीरिज की तरह दृश्य तब बदलता है जब पंचायत की बैठक में कलेक्टर या कोई अधिकारी आता है और जो सरपंच है उन्हें अपने बगल में बिठाता है। यही से गूंगी गुडिय़ा बना दी गई महिला प्रतिनिधि को पता चलता है कि उसके पास क्या है। धीरे-धीरे इस तरह की बैठकों, सेमीनार में जाकर घर की चारदीवारों या पति के घेरे में कैद महिला की आजादी के पंख निकलना शुरू होते हैं। लगभग 30 साल के पंचायतीराज में बहुत सारी महिलाएं ऐसे ही धीरे-धीरे मुखर होकर अब खुद निर्णय लेने लगी हैं।

जो महिलाएँ राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अगुवाई करती, मुखर दिखाई देती हैं कई बार वे अपने घर के भीतर प्रताडि़त होती हैं और चुप रहती हैं। घरेलू हिंसा पर उनके मुंह खुलते। जब हम यह संपादकीय लिख रहे हैं तब दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय सेमीनार चल रहा है जिसमें महिला सशक्तिकरण के साथ पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने की बात चल रही है। भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय ने महिलाओं और बालिकाओं के लिए सुरक्षित, समावेशी और लैंगिक समानता सुनिश्चित करने हेतु आदर्श महिला हितैषी ग्राम पंचायत पहल की शुरुआत की है। इस पहल का उद्देश्य प्रत्येक जिले में कम से कम एक ग्राम पंचायत को महिला-अनुकूल बनाना है, जो लिंग-संवेदनशील और बालिका-अनुकूल शासन के लिए उदाहरण प्रस्तुत करेगी। योजना के अंतर्गत महिलाओं को महिला-हितैषी पंचायतों में महिलाओं को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक सुगम पहुंच प्रदान की जाएगी, जिससे उनकी जीवन गुणवत्ता में सुधार होगा। इन पंचायतों में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ावा दिया जाएगा, जिससे उनकी आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी। महिलाओं को प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की सहज उपलब्धता प्रदान की जाएगी, जिससे उनकी स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाएगा। महिला सभाओं के माध्यम से सहभागिता: महिला सभाओं के आयोजन से महिलाओं की निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होगी, जिससे उनकी आवाज़ को महत्व मिलेगा।

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महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक और कानूनी रूप से सशक्त बनाना है ताकि वे अपने अधिकारों और अवसरों का पूरी तरह से उपयोग कर सकें। भारत में महिलाओं के उत्थान के लिए कई कानून और योजनाएँ बनाई गई हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई अब भी एक मिश्रित तस्वीर पेश करती है।
यदि हम सरकारी स्तर पर महिला सशक्तिकरण के लिए उठाये गये कदमों और नियम कानून की बात करें तो संविधान में समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 39) निहित है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना, महिला आरक्षण (पंचायती राज में 33फीसदी और संसद में 33 फीसदी आरक्षण प्रस्तावित) दहेज निषेध अधिनियम, 1961। कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ रोकथाम अधिनियम, 2013 प्रावधनित है। सामाजिक और आर्थिक स्तर पर महिला सशक्तिकरण के लिए उज्ज्वला योजना-गरीब महिलाओं को मुफ्त गैस कनेक्शन। जन-धन योजना महिलाओं के बैंक खाते खोलने की सुविधा। सेल्फ हेल्प ग्रुप (एसएचजी) और मुद्रा योजना-महिलाओं को स्वरोजगार के लिए ऋण शामिल है।
हमारे देश में तमाम कानूनी प्रावधानों और योजनाओं के बावजूद महिलाएं सार्वजनिक स्थानों और कार्यस्थलों पर असमानता और यौन उत्पीडऩ का सामना करती दिखती है। हम कह सकते हैं कि पहले की तुलना में महिलाओं के खिलाफ अपराधों (बलात्कार, घरेलू हिंसा, एसिड अटैक) में कमी तो आई है, लेकिन अब भी यह एक गंभीर समस्या है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, हर 16 मिनट में एक महिला के खिलाफ अपराध दर्ज होता है। यदि हम वाकई में महिला सशक्तिकरण चाहते हैं और सोचते हैं कि देश की आधी आबादी की बराबरी की हिस्सेदारी हो तो हमें हर लड़की की शिक्षा सुनिश्चित करना होगा। महिलाओं को उद्योगों, स्टार्टअप्स और नौकरियों में बराबर भागीदारी देनी होगी। कानूनों का सख्ती से पालन करते हुए यौन शोषण, दहेज, घरेलू हिंसा पर त्वरित न्याय दिलाना होगा। सोशल मीडिया और डिजिटल सशक्तिकरण करते हुए महिलाओं को डिजिटल शिक्षा और ऑनलाइन सुरक्षा के बारे में जागरूक करना होगा। परिवार और समाज की मानसिकता बदलते हुए महिलाओं के अधिकारों को लेकर समाज में जागरूकता बढ़ानी होगी। हमारे देश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में सकारात्मक कदम उठाए गए हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह दिखाती है कि अभी भी लंबा सफर तय करना बाकी है। जब तक महिलाओं को पूरी स्वतंत्रता, सुरक्षा और समान अवसर नहीं मिलते, तब तक असली सशक्तिकरण अधूरा रहेगा। इसलिए कानून के साथ-साथ समाज की सोच और व्यवहार में बदलाव जरूरी है।

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