-सुभाष मिश्र
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली की गज़़ल के शेर हैं-
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
सुब्ह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी।
हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी।
पूरी दुनिया में हर साल तन्हाई, अकेलेपन और अवसाद के चलते हर साल आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें से डेढ़ लाख से अधिक लोग अकेले भारत के हैं। बहुत सारे लोगों से घिरे होने के बावजूद लोग अकेलापन महसूस करते हैं। अकेलापन एक अस्पष्ट, जटिल अवधारणा है। अकेलापन महसूस करने के लिए अकेले रहने की ज़रूरत नहीं है। इस संबंध में समय-समय पर हुए अध्ययन और रिपोर्ट बताती हैं कि इस सदी के अंत तक दुनिया की शहरों में रहने वाली आबादी 68 फ़ीसदी हो जाएगी। जहां ज़्यादा अवसादपूर्ण जीवन है। द बायोग्राफ़ी ऑफ लोनलिनेस लिखने वाली किंग्स कॉलेज लंदन में इतिहास की प्रोफ़ेसर फ़े बाउंड अल्बर्टी यह तर्क देती हैं कि अकेलापन दिमाग की एक अवस्था होने के बजाय भावनाओं का पूरा झुंड है, जिसमें दुख, क्रोध, ईर्ष्या जैसी भावनाएं हो सकती हैं। बाउंड अल्बर्टी भी इस बात से सहमत हैं कि लोगों के अकेलेपन की वजह यह नहीं है कि वो अकेले रहते हैं। वह कहती है, लोगों को यह लगता है कि अकेलेपन का मतलब यह है कि जब आप अकेले रहते हैं। वे कहती है कि मेरी रिसर्च बताती है कि हमारा किसी से दूर होना, हमें उतना अकेलापन महसूस नहीं करवाता, जितना कि किसी से भावनात्मक तौर पर दूर होना, हमें अकेलेपन का अहसास करवाता है।
बाउंड अल्बर्टी की शोध यह कहती है कि 19वीं सदी के पहले अकेलेपन की जो परिभाषा थी, उसका इस्तेमाल हम आज करते हैं। मगर, वास्तव में आज इसका अस्तित्व नहीं है। इससे पहले अकेला से मतलब इकलौता व्यक्ति हुआ करता था। इसे इतना बुरा भी नहीं माना जाता था। बल्कि, अकेले होने का मतलब यह माना जाता था कि यह आपको ईश्वर और प्रकृति के नज़दीक ले जाता है।
बाउंड अल्बर्टी कहती हैं, इससे पहले ‘अकेलेपनÓ की यह भाषा थी, जिसे मैं प्यार करती हूं। मैं चाहती हूं कि यह फिर से चलन में आए। जैसे एक कवि विलियम वर्ड्स्वोर्थ ने लिखा था, एक बादल की तरह अकेला वो अकेले रहते हुए होने वाले अनुभव पर बात कर रहे थे। उनका यह मतलब बिल्कुल नहीं था कि वो भावनात्मक तौर पर कमज़ोर महसूस कर रहे हैं, जैसे आज हम इस शब्द को ‘अकेलेपन से जोड़ते हैं। वैसे दुनियाभर में समुदायों में बदलाव आ चुका है। बाउंड अल्बर्टी यह तर्क देती हैं कि जैसे-जैसे शहरीकरण का दायरा बढ़ता गया, लोग एक-दूसरे से ज़्यादा अनजान रहने लगे।
विश्वव्यापी कोरोना संकट से भले ही हम उभर गये हों किन्तु कोरोना महामारी ने हमें अकेलेपन से जीना सीखा दिया। संचार के आधुनिक गैजेट, सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ओटीटी प्लेटफार्म पर 24 घंटे उपलब्ध मनोरंजन या जूम मीटिंग या फेसबुक या वीडियो कालिंग के जरिए हमने दुनिया को अपनी मुट्ठी,अपने अकेले कमरे में कैद कर लिया हो किन्तु इस आभासी (वर्चुअल) दुनिया से जुड़ाव ने हमें अपने आसपास की यर्थाथवादी दुनिया रिश्तो से काट दिया है। अब सारा मिलना-जुलना, बधाई, शोक संवेदना मोबाइल के जरिए ही ज्यादा व्यक्त होने लगी है। वर्क फ्रॉम होम कल्चर ने इस एकाकीपन जीवन में सोने में सुहागा का काम किया है। बहुत बड़ी संख्या में लोग घर में रहकर भी घर में नहीं होते। जोमेटो, स्वीगी, बिलिंकिट जैसी सेवाओं ने आदमी को और ज्यादा घरघुसरा बना दिया है। बाजार जाने के बहाने वह अपने आसपास की दुनिया दुख दर्द और घटनाओं, संबंधों से जो जुड़ाव रखता था, वह धीरे धीरे समाप्त हो रहा है। एकल परिवार में यदि माता-पिता और एक बच्चा है और उनमें भी माता-पिता कामकाजी हंै या आधुनिक संवाद तकनीक से कम वाकिब है तो फिर बच्चे क्या करते हैं, उन्हें बिलकुल नहीं पता। घर के भीतर घर यानी सबके अपने-अपने कमरे अपनी अपनी दुनिया में तब्दील हो गये हैं। ऐसे में यदि कोई अवसाद का क्षण आता है तो फिर रोने या बताने के लिए कोई कंधा, कोई जादू की झप्पी नहीं होती। पहले लोग दादी, पिताजी, चाचा-चाची, बुआ, कजिन या पड़ोस के चार दोस्तों में अपने सुख-दुख, अपनी समस्या और मन की गांठो को खोल लेते थे, किन्तु अब वैसा नहीं है। फेसबुक पर आपके हजारों फ्रेंड है किन्तु यथार्थ में आपका पांच लोगों से भी संबंध नहीं है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई कहते हैं कि गरीब आदमी न तो ऐलोपैथी से अच्छा होता है न होम्योपैथी से उसे तो सिम्पैथी (सहानुभूति) चाहिए। यही वाद अवसाद से घिरे व्यक्ति के लिए भी लागू होती है।
अकेलापन और अवसाद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े गंभीर मुद्दे हैं जो व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये न केवल व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं, बल्कि समाज की संरचना और कार्यप्रणाली पर भी असर डालते हैं। अकेलापन और अवसाद के जो शारीरिक प्रभाव दिखाई देते हैं वे तनाव हार्मोन (जैसे कॉर्टिसोल) को बढ़ाते हैं, जिससे नींद की कमी, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली जैसी समस्याएं हो सकती हैं। अध्ययनों के अनुसार, लंबे समय तक अकेलापन धूम्रपान या मोटापे जितना ही खतरनाक हो सकता है।
यदि हम मानसिक प्रभाव की बात करें तो अकेलापन आत्मसम्मान को कम करता है और नकारात्मक विचारों को बढ़ावा देता है। अवसाद में व्यक्ति को बेकार, निराश और ऊर्जाहीन महसूस होता है, जिससे रोज़मर्रा के काम करना मुश्किल हो जाता है। ये दोनों मिलकर चिंता, घबराहट और आत्मघाती विचारों को जन्म दे सकते हैं। यदि हम इसके सामाजिक प्रभावों की बात करें तो व्यक्ति सामाजिक संपर्क से कट जाता है, जिससे रिश्तों में दरार आती है। कार्यक्षमता घटने से नौकरी या शिक्षा पर असर पड़ता है। अकेलापन व्यक्ति को यह महसूस कराता है कि उसकी कोई कीमत नहीं है या कोई उसकी परवाह नहीं करता।
अवसाद इस भावना को बढ़ाता है और व्यक्ति को लगता है कि जीवन जीने लायक नहीं रहा। दोनों मिलकर होपलेसनेस (निराशा) की स्थिति पैदा करते हैं, जो आत्महत्या के विचारों को ट्रिगर करती है। भारत में 2022 के एनसीआरबी डेटा के अनुसार, आत्महत्या के 40 फीसदी से अधिक मामलों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ (जैसे अवसाद) प्रमुख कारण थीं। युवाओं (18-30 साल) और बुजुर्गों में यह दर सबसे ज़्यादा है। अवसाद और आत्महत्या से उत्पादकता घटती है। डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि अवसाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर साल 1 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होता है।
भारत जैसे देश में जहां युवा आबादी बड़ी है, यह नुकसान भविष्य की कार्यशक्ति को प्रभावित करता है। आत्महत्या से परिवार में भावनात्मक और आर्थिक संकट आता है। बच्चे अनाथ हो सकते हैं और बुजुर्ग अकेले पड़ सकते हैं। सामाजिक कलंक (स्टिग्मा) के कारण लोग मानसिक स्वास्थ्य की बात करने से हिचकते हैं, जिससे समस्या बढ़ती है।
समाज में निराशा और असुरक्षा की भावना फैलती है, खासकर जब आत्महत्या की खबरें सुर्खियों में आती हैं। यह सामुदायिक एकजुटता को कमज़ोर करता है, क्योंकि लोग एक-दूसरे से दूर होते जाते हैं। अकेलापन और अवसाद व्यक्तिगत संकट से शुरू होकर समाज के लिए चुनौती बन जाते हैं। आत्महत्याओं को रोकने के लिए व्यक्तिगत जागरूकता, सामाजिक समर्थन और पेशेवर हस्तक्षेप ज़रूरी हैं। अगर हर व्यक्ति अपने आसपास के लोगों का
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थोड़ा ध्यान रखें और समाज मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लें तो इस समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है। छोटे कदम, जैसे किसी से आप ठीक हैं? पूछना, भी बड़ा बदलाव ला सकते हैं।
अकेलापन कई प्रकार का होता है। हर किसी को यह अलग-अलग तरह से महसूस होता है। बहुत बार आप भीड़ भाड़ दोस्त यार रिश्तेदारों से घिरे होने के बावजूद अकेले होते हैं। आप मन का मीत खोजते हैं जिससे आप अपने दिल की बात कर सकें। आपको कोई कंधा, कोई हाथ चाहिए होता है जो आपको आपकी भावनाओं को समझे। ऐसा नहीं होने पर आप बहुत लोगों के साथ रहते हुए भी गुमसुम से रहते हैं। बहुत तरह का शोर-शराबा, भीड़, गपशप, हंसी-मज़ाक के बीच आप अनजान बने रहते हैं। या कहें कि इन सबसे अलग-थलग रहते हैं। हम भीड़ में भी अकेले हो सकते हैं। एक रुमानी रिश्ते में, दोस्तों के बीच भी अकेले हो सकते हैं।
अकेलेपन का एहसास ज़्यादा भीड़, घनी आबादी वाले इलाक़े या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आधुनिक शहरों में बढ़ता दिख रहा है। क्या ऐसा हो सकता है कि बढ़ता शहरीकरण और हमारी जीवनशैली पर बढ़ता तकनीक का प्रभाव हमारे एक-दूसरे से कम जुडऩे की वजह बन रहा है? अवसाद से उभरने के लिए बहुत से उपाय बताये जाते हैं जिनमें प्रमुख रूप से दोस्तों, परिवार या किसी विश्वसनीय व्यक्ति से नियमित बात करें, भले ही छोटी-छोटी बातें हों।
अकेलेपन से बचने के लिए सामाजिक गतिविधियों (क्लब, खेल, शौक) में शामिल हों। नियमित व्यायाम (30 मिनट रोज़) करें यह एंडोर्फिन (खुशी का हार्मोन) बढ़ाता है। संतुलित आहार लें और नींद को प्राथमिकता दें (7-8 घंटे)। भावनाओं को व्यक्त करें। डायरी लिखें या किसी से अपनी भावनाएँ साझा करें। बोझ हल्का करने से राहत मिलती है। अगर आत्मघाती विचार आएँ, तुरंत मदद लें। मनोचिकित्सक या काउंसलर से सलाह लें। सीबीटी अवसाद में बहुत प्रभावी है।
अवसाद से बचने भारत में हेल्पलाइन किरन (1800-599-0019), वंद्रेवाला फाउंडेशन (9999666555)जैसी संस्थाएं हैं जिनकी मदद ली जा सकती है ।
स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों में मानसिक स्वास्थ्य पर कार्यशालाएँ आयोजित करें। सोशल मीडिया पर सकारात्मक संदेश फैलाएं और कलंक को कम करें। समुदाय में सहायता समूह बनाएं, जहां लोग अपनी समस्याएं साझा कर सकें। बुजुर्गों और अकेले रहने वालों के लिए नियमित मुलाकातें शुरू करें।
सरकार मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं (काउंसलिंग, हॉस्पिटल) को सस्ता और सुलभ बनाएं। कार्यस्थलों में तनाव कम करने के लिए नीतियाँ लागू करें (जैसे छुट्टियाँ, लचीला समय)।