-सुभाष मिश्र
मशहूर शायर फैज अहमद फैज की इंकलाबी नज्म है
बोल कि लब आजाद है तेरे, बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता अंधेरे में का कवितांश है
अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे
तोडऩे होंगे ही मढ़ और गढ़ सब।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के हवाले तथा देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रही बहस के बीच राज्यसभा सांसद सुप्रसिद्ध शायर इमरान प्रतापगढ़ी के विरुद्ध गुजरात में पुलिस द्वारा दर्ज मामले को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि साहित्य, कला, व्यंग्य जीवन को अधिक सार्थक बनाते हैं, गरिमापूर्ण जीवन के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि भले ही बड़ी संख्या में लोग किसी दूसरे के विचारों को नापसंद करते हों, लेकिन विचारों को व्यक्त करने के व्यक्ति के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए और उसकी रक्षा की जानी चाहिए।
इमरान प्रतापगढ़ी युवाओं में बहुत लोकप्रिय है और राजनीतिक मंचों, मीडिया में उनकी जवाबी देते बनती है। उनकी शायरी की कुछ बानगी इस तरह से है।
कोई मेरा इमाम था ही नहीं
मैं किसी का गुलाम था ही नहीं
तुम कहां से ये बुत उठा लाए
इस कहानी में राम था ही नहीं ।।
अपनी मोहब्बत का यों बस एक ही उसूल है
तू कुबूल है और तेरा सब कुछ कुबूल है।
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अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर राजनीतिक दलों का चरित्र और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश एक दूसरे से भिन्न है।
इस समय पूरे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहस गरम है। स्टेडअप कामेडियन कुनाल कामरा की टिप्पणी के साथ उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के समर्थक शिवसैनिक ने जिस तरह का उत्पात मचाया, तोडफ़ोड़ की और डराने-धमकाने की जो कोशिश की उसी दौर में कांग्रेस के राज्यसभा सांसद सुप्रसिद्ध शायर इमरान प्रतापगढ़ी के विरूद्ध गुजरात में दर्ज प्रकरण पर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आई है, वह विचारणीय है। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी पहली बार की हो किन्तु अलग-अलग राजनीतिक दल जब उनके विरूद्ध कोई टिप्पणी होती है तो वह संबंधित कलाकार, पत्रकार, विपक्षी नेता, एक्टीविस्ट के खिलाफ कार्यवाही होती है। इस बीच मद्रास हाईकोर्ट ने कुणाल कामरा को 7 अप्रैल तक अंतरिम जमानत दे दी है। कुणाल कामरा बार-बार माफी नहीं मांगने की बात कह कर कभी निर्मला सीतारमण पर कामेडी करते है तो कभी मीडिया को गिद्धो का झुंड बता रहे है।
सुप्रीम कोर्ट ने इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात में दर्ज एफआईआर को खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने कहा कांग्रेस सांसद ने जो किया वो कोई अपराध नहीं है।
कथित तौर पर सौहार्द बिगाडऩे वाले सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गुजरात पुलिस ने केस दर्ज किया था।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायालय का कर्तव्य है। पीठ ने कहा, भले ही बड़ी संख्या में लोग किसी दूसरे के विचारों को नापसंद करते हों, लेकिन विचारों को व्यक्त करने के व्यक्ति के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए और उसकी रक्षा की जानी चाहिए। विता, नाटक, फिल्म, व्यंग्य और कला सहित साहित्य मनुष्य के जीवन को और अधिक सार्थक बनाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का इमरान प्रतापगढी के खिलाफ गुजरात सरकार द्वारा दर्ज मुकदमे की सुनवाई करते हुए जस्टिस ए.एस. ओका ने कहा कि इमरान प्रतापगढी की कविता अहिंसा का संदेश देती है, जो महात्मा गांधी के मार्ग से मिलती-जुलती है। उन्होंने सवाल उठाया कि ऐसी कविता पर गुजरात पुलिस ने आपराधिक मामला कैसे दर्ज कर लिया। जस्टिस ओका ने जोर देकर कहा कि यह मामला इस बात को दर्शाता है कि संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी पुलिस अभिव्यक्ति की आज़ादी के मूल अधिकार को पूरी तरह समझ नहीं पाई है। कोर्ट ने यह भी कहा कि रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान किया जाना चाहिए।
सुनवाई के दौरान गुजरात सरकार का पक्ष रखते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कविता को सडक़ छाप (सस्ता) करार दिया और इसे मशहूर कवि फैज़ अहमद फैज़ की रचनाओं से तुलना करने से इनकार किया। हालांकि, कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कविता किसी समुदाय को निशाना नहीं बनाती थी।
पूर्व में हुई सुनवाई के बाद आज 28 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने इमरान प्रतापगढी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में कोई अपराध नहीं बनता। जस्टिस की बेंच ने फैसले में कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी एक स्वस्थ और सभ्य समाज का अभिन्न अंग है, और इसके बिना सम्मानजनक जीवन संभव नहीं है।
यदि हम अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर आए फैसले और टिप्पणियाँ पर नजऱ डालें तो हम पाते हैं की सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को राजनीतिक दल नहीं मानते। हमारे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ड्ड) के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी एक मूल अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) मामले में मैगज़ीन क्रॉसरोड्स पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ यह पहला बड़ा फैसला था। कोर्ट ने प्रतिबंध को रद्द करते हुए कहा कि जब तक कोई कानून राज्य की सुरक्षा से सीधे जुड़ा न हो, वह अस्पष्ट आधारों (जैसे सार्वजनिक व्यवस्था) पर अभिव्यक्ति की आज़ादी को सीमित नहीं कर सकता। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी को संरक्षित करने और मनमाने कानूनों के खिलाफ सख्त रुख अपनाया।
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962)मामलें में देशद्रोह कानून की संवैधानिकता पर सवाल उठा। कोर्ट ने देशद्रोह कानून को सही ठहराया, लेकिन स्पष्ट किया कि सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं है, जब तक कि वह हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था को न भडक़ाए। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी में सरकार की आलोचना का अधिकार शामिल है।
श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) मामले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को चुनौती, जो ऑनलाइन आपत्तिजनक सामग्री पोस्ट करने पर गिरफ्तारी की अनुमति देती थी। कोर्ट ने धारा 66ए को रद्द कर दिया, इसे अस्पष्ट और अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ बताया।
कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ऑनलाइन और ऑफलाइन अभिव्यक्ति की आज़ादी बराबर महत्वपूर्ण है, और अस्पष्ट कानून असहमति को दबाने के लिए इस्तेमाल नहीं हो सकते।
मीडिया वन मामला (2022)मामले में मलयालम न्यूज़ चैनल मीडिया वन पर सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को चुनौती। कोर्ट ने प्रतिबंध हटाते हुए कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के असमर्थित दावों के आधार पर अभिव्यक्ति पर रोक नहीं लगाई जा सकती। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रेस की आज़ादी लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे संरक्षित करना ज़रूरी है।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पूर्ण नहीं है और इसे अनुच्छेद 19(2) के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता जैसे कारणों से प्रतिबंधित किया जा सकता है। लेकिन ये प्रतिबंध उचित और मनमाने नहीं होने चाहिए। इमरान प्रतापगढी मामले में कोर्ट ने कहा कि असुरक्षित लोगों के मानदंडों से नाराजगी या दुश्मनी को नहीं आंका जा सकता, जो इसकी ऐतिहासिक स्थिति के अनुरूप है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी को अतिसंवेदनशील व्याख्याओं से बचाना चाहिए।
एक ओर तो सुप्रीम कोर्ट अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर स्पष्ट टिप्पणी करके दोषपूर्ण एफआईआर को निरस्त कर रहा है। पुलिस को समझाईश दे रहा है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्री शंभूराज देसाई ने कुणाल कामरा को चेतावनी देते हुए कहा कि कि वह कुणाल कामरा को टायर में डालकर थर्ड डिग्री देंगे। शंभूराज देसाई ने कहा है कि शिंदे के बयान के कारण शिवसैनिक चुप हैं। पुलिस से कुणाल कामरा मामले में थर्ड डिग्री अपनाने की बात कह रहे हैं।
दरअसल हमारे देश में समरथ को नीति दोष गोसाई वाली कहावत सदियो से चरितार्थ हो रही है। सत्ता को अपनी आलोचना पसंद नहीं है। सत्ता के इशारे पर कभी पुलिस तो कभी कार्यकर्ता या फिर बुलडोजर ध्वस्तात्मक, प्रतिरोध की कार्यवाही करते दिखते हैं। ऐसे लोगों के मन में लोकतंत्र संविधान और न्यायालयों का कोई सम्मान नहीं है। अब देखना ये होगा की इमरान प्रतापगढ़ी के पक्ष में आया ये फैसला अभिव्यक्ति की आजादी चाहने वालों के लिए क्या ये पैगाम लायेंगे की बोलती लब आजाद है तेरे।
एक बुरा दौर आया है टल जाएगा
वक्त का क्या है एक दिन बदल जायेगा।