Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से- सोशल मीडिया: जासूसी तकनीक की शक्ति या राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट?

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

भारत के प्राचीन इतिहास से लेकर आज के डिजिटल युग तक, जासूसी हमेशा से सत्ता, युद्ध और सुरक्षा की रणनीतियों का अनिवार्य हिस्सा रही है। विषकन्या, अईयार और गुप्तचर जैसे रूपों में शुरू हुई यह परंपरा आज सोशल मीडिया की परछाइयों में अपना नया चेहरा तलाश चुकी है। हाल ही में यूट्यूबर ज्योति मल्होत्रा की गिरफ्तारी ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है क्या सोशल मीडिया हमारे लिए सिर्फ मनोरंजन और जानकारी का माध्यम है, या यह देश की सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है?
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर दिल्ली सल्तनत और मुगल काल तक जासूसी को शासन का अभिन्न उपकरण माना गया। यह व्यवस्था उस समय सीमित थी, लेकिन अत्यधिक प्रभावशाली। मध्यकाल में अईयार जैसे बहु-कुशल जासूस रणनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय रहते थे। ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जासूसी ने नई परतें ओढ़ीं, जो राष्ट्रवाद और विरोध की भावनाओं से संचालित थीं लेकिन आज की जासूसी छुपे हुए कैमरों, डेटा एनालिटिक्स, फेक प्रोफाइल्स, वीपीएन और एन्क्रिप्टेड चैट्स के ज़रिए की जा रही है। फर्क बस इतना है कि आज जासूस सूट-बूट में नहीं, बल्कि ट्रैवल व्लॉगर, यूट्यूबर और इन्फ्लुएंसर के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं।
ज्योति मल्होत्रा के मामले ने इस बात को उजागर किया है कि कैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स देश की सुरक्षा के लिए जोखिम बन सकते हैं। एक यूट्यूबर, जो सामान्यत: दर्शनीय स्थलों की यात्रा करती है, जब सीमावर्ती क्षेत्रों में वीडियो बनाकर उन्हें आईएसआई जैसे दुश्मन देशों की खुफिया एजेंसियों को भेजती है तो यह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि देशद्रोह है। टेक्नोलॉजी ने स्लीपर सेल और जासूसी नेटवर्क को न केवल अधिक कुशल, बल्कि अति गोपनीय भी बना दिया है। अब जासूसों को सीमा पार करने की ज़रूरत नहीं, बल्कि वे स्मार्टफोन और कैमरे के ज़रिए दुश्मन की आंखें बन सकते हैं।
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई वर्षों से भारत में स्लीपर सेल्स के माध्यम से अपनी पैठ बनाने की कोशिश करती रही है। रॉ, एनआईए और आईबी जैसे भारतीय एजेंसियां लगातार इन प्रयासों को विफल करने में जुटी हैं। लेकिन सोशल मीडिया ने यह लड़ाई और भी पेचीदा बना दी है। अब दुश्मन एजेंसी घर बैठे ही अपने एजेंटों को निर्देश दे सकती है और एजेंट सामान्य जीवन जीते हुए जासूसी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं।
यह समय केवल सुरक्षा एजेंसियों की नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक की परीक्षा का है। सोशल मीडिया पर जानकारी साझा करते समय सतर्क रहना, संवेदनशील स्थानों की जानकारी का प्रचार न करना, और किसी भी संदिग्ध गतिविधि की रिपोर्ट करना-यह हर नागरिक का कर्तव्य बन गया है।
सरकार को भी चाहिए कि सोशल मीडिया निगरानी तंत्र को मज़बूत करे, संवेदनशील क्षेत्रों में फोटो-वीडियो निर्माण पर नियंत्रण लगाए, और डिजिटल साक्षरता के माध्यम से नागरिकों को इस नए प्रकार के युद्ध के प्रति सजग बनाए।
जासूसी एक शाश्वत वास्तविकता है, लेकिन जब यह तकनीक के साथ मिलकर आम जनजीवन में घुल-मिल जाती है तो चुनौती कई गुना बढ़ जाती है। विषकन्या से लेकर सोशल मीडिया तक, भारत में जासूसी की परंपरा समय और साधनों के साथ बदली है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य ‘सत्ता और सुरक्षा पर नियंत्रण आज भी वहीं है।
ज्योति मल्होत्रा का मामला न सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों के लिए चेतावनी है, बल्कि आम नागरिकों के लिए भी एक सबक है कि आज हर कैमरा सिर्फ क्लिक नहीं करता, वह किसी राष्ट्र की रक्षा या विघटन का माध्यम भी बन सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि तकनीक का उपयोग विवेक से हो और देशहित सर्वोपरि रहे।

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