Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – नक्सलवादः शांति वार्ता नहीं सफाया होगा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

सरकार अब पूरी तरह से नक्सलियों के ख़ात्मे पर आमादा है। सEditor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – नक्सलवादः शांति वार्ता नहीं सफाया होगा रकार पहले गोली के साथ शांति की बात करती थी, लेकिन अब सरकार का रूख एकदम बदला हुआ है। हाल ही में नारायणपुर में छत्तीसगढ़ पुलिस ने अब तक 27 नक्सली मारे गए हैं, जिनमें कुख्यात नक्सल लीडर नंबाला केशव राव और अलियास बसवराजू के खात्मे की भी पुष्टि हुई है। इस मुठभेड़ में दो जवान हुए हैं। अबूझमाड़ में नक्सल आपरेशन की सफलता पर सीएम विष्णु देव साय ने खुशी जताई है। उन्होंने कहा कि नक्सलवाद खत्म हो रहा है। साय ने एक्स पर लिखा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एवं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के मार्च 2026 तक देश-प्रदेश में नक्सलवाद के खात्मे के संकल्प को मजबूती प्रदान करते हुए सुरक्षाबल के जवान निरंतर सफलता हासिल कर लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।
नक्सलवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक लंबे समय से चली आ रही चुनौती है, और हाल के घटनाक्रमों से साफ है कि सरकार अब इस समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए कठोर कदम उठा रही है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना और अन्य सीमावर्ती राज्यों में नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई तेज हो गई है। हाल ही में छत्तीसगढ़ में हुए बड़े ऑपरेशन में टॉप नक्सली लीडर बसव राजू सहित 27 नक्सलियों को मार गिराया गया, जो सरकार की नई रणनीति का हिस्सा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह खत्म करने की घोषणा की है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हथियारों के बूते नक्सलवाद को खत्म किया जा सकता है और सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए किस तरह की रणनीति अपनानी चाहिए। खासकर जब तेलंगाना के कुछ नेता शांति वार्ता की वकालत कर रहे हैं?
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा पर हाल के ऑपरेशन, जैसे कि कुर्रगुट्टालू पहाड़ में 14 मई 2025 को 31 नक्सलियों को मार गिराने वाला ऑपरेशन और अब बसव राजू सहित 27 नक्सलियों को ढेर करना, यह दिखाता है कि सरकार ने नक्सलवाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई को तेज कर दिया है। केंद्रीय गृह मंत्री ने कई बार दोहराया है कि मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा। उनकी बातों से साफ है कि सरकार अब शांति वार्ता से हटकर अंतिम प्रहार की रणनीति पर काम कर रही है।
बिहार, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के अधिकांश हिस्सों में नक्सलवाद काफी हद तक कम हो चुका है। छत्तीसगढ़ में भी यह समस्या अब मुख्य रूप से बस्तर के चार जिलों तक सीमित हो गई है। 2019 से 2024 तक कई राज्य नक्सल प्रभाव से मुक्त हो चुके हैं, और नक्सली हमलों में 53फीसदी की कमी आई है। बीजापुर में 50 नक्सलियों ने मार्च 2025 में आत्मसमर्पण किया जो दिखाता है कि कई नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में लौट रहे हैं।
यहां एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हथियारों से नक्सलवाद खत्म हो सकता है? इस पर बहुत से लोगों का मानना है कि हथियारों और सैन्य कार्रवाई के जरिए नक्सलवाद को काफी हद तक कम किया जा सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह खत्म करना इतना आसान नहीं है। इसके प्रमुख कुछ कारणों में इसकी जड़ों का गहरी होना हैं। नक्सलवाद केवल एक सशस्त्र आंदोलन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक असमानता, शोषण और विकास की कमी से उपजा है। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की कमी ने नक्सलियों को स्थानीय समर्थन दिलाया है। जब तक इन मूल समस्याओं का समाधान नहीं होगा, नक्सलवाद का विचार पूरी तरह खत्म नहीं होगा। दूसरा बड़ा कारण नक्सलियों की रणनीति भी है। नक्सली गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाते हैं, जिसमें वे जंगलों और दुर्गम इलाकों में छिपकर हमले करते हैं। सैन्य कार्रवाई से उनके नेताओं को खत्म किया जा सकता है, लेकिन छोटे समूह फिर से संगठित हो सकते हैं। जंगल क्षेत्र में और शहरीय इलाक़ों में कुछ लोग इस मूवमेंट से सहानुभूति रखते है और समर्थन भी करते हैं। कुछ स्थानीय लोग नक्सलियों को शोषितों का मसीहा मानते हैं। सैन्य कार्रवाई के दौरान अगर आम नागरिक प्रभावित होते हैं, तो इससे नक्सलियों को सहानुभूति मिल सकती है, जैसा कि पहले भी देखा गया है। सैन्य कार्रवाई से नक्सलियों की संख्या और प्रभाव को कम किया जा सकता है, लेकिन विचारधारा को खत्म करना मुश्किल है। माओवादी विचारधारा को हथियारों से नहीं, बल्कि वैकल्पिक विचारधारा और विकास के जरिए ही खत्म किया जा सकता है। नक्सली आंदोलन इस समय पूरी तरह नेतृत्व विहीन होता जा रहा है। लोगों और ठेकेदारों से जबरिया लेव्ही वसूली और डराने-धमकाने की घटनाओं ने नक्सलियों से लोगों का मोहभंग भी किया है। नक्सली आंदोलन से सहानुभूति रखने वालों को लगता है कि जिन क्षेत्रों में नक्सली प्रभाव है वहाँ अपार खनिज और वनसंपदा है जो इनका प्रभाव ख़त्म होते ही पूँजीपतियों के क़ब्ज़े में आ जायेगी और फिर इसका बेतहाशा दोहन होगा। यदि नक्सलवाद को पूरी तरह खत्म करने के लिए सरकार को एक बहुआयामी रणनीति अपनानी चाहिए, जिसमें सैन्य कार्रवाई के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विकास और शांति वार्ता को भी शामिल किया जाए। सरकार को सैन्य कार्रवाइयों को और प्रभावी बनाने के लिए खुफिया जानकारी पर ध्यान देना चाहिए, ताकि नक्सली नेताओं को सटीक रूप से निशाना बनाया जा सके डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और ग्रेहाउंड्स जैसी विशेष इकाइयों का इस्तेमाल बढ़ाना चाहिए। ये इकाइयां स्थानीय इलाकों और नक्सली रणनीतियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, और रोजगार के अवसरों को बढ़ाना जरूरी है। जब स्थानीय लोग देखेंगे कि सरकार उनके जीवन को बेहतर कर रही है तो वे नक्सलियों का समर्थन छोड़ देंगे। नक्सलवाद से निपटने के लिए राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना (2015) में सुरक्षा और विकास दोनों पर जोर दिया गया था। इसे और प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिए। आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति जैसी छत्तीसगढ़ में नई आत्मसमर्पण नीति बनी है वैसी प्रभावी नीति सभी प्रभावित राज्यों को बनानी होगी। जिसमें आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को पुनर्वास और आर्थिक मदद दी जा रही है। इस नीति को और आकर्षक बनाना चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा नक्सली हिंसा छोड़ें। पूर्वोत्तर और कश्मीर में कई आतंकियों ने हथियार छोड़कर मुख्यधारा में वापसी की है। इस मॉडल को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकता है। शांति वार्ता का विकल्प भी खुला रखना होगा तेलंगाना के नेताओं द्वारा शांति वार्ता की वकालत सही दिशा में एक कदम हो सकता है। शांति वार्ता उन नक्सलियों के लिए एक रास्ता हो सकती है जो हिंसा छोडऩा चाहते हैं, लेकिन डर या दबाव के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे। सरकार को विश्वसनीय मध्यस्थों के जरिए शांति वार्ता शुरू करनी चाहिए। हालांकि, यह तभी सफल होगी जब नक्सली भी हिंसा छोडऩे के लिए तैयार हों। तेलंगाना के कुछ नेता शांति वार्ता की वकालत करते हैं और उनका तर्क समझा जा सकता है। शांति वार्ता से कई फायदे हो सकते हैं यह उन नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने का मौका देती है जो हिंसा छोडऩा चाहते हैं। इससे अनावश्यक खून-खराबा रुक सकता है और स्थानीय समुदायों में भय का माहौल कम हो सकता है। शांति वार्ता के जरिए नक्सलियों की मांगों को समझा जा सकता है, और अगर उनकी मांगें जायज हैं (जैसे विकास और अधिकार) तो उन्हें पूरा करने की कोशिश की जा सकती है।
हालांकि, शांति वार्ता की अपनी सीमाएं भी हैं। नक्सलियों का इतिहास रहा है कि वे वार्ता के दौरान अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करते हैं। अतीत में कई बार शांति वार्ता विफल हो चुकी है। अगर नक्सली हिंसा छोडऩे को तैयार नहीं हैं तो वार्ता बेकार हो सकती है। सैन्य दबाव के बिना नक्सली वार्ता के लिए तैयार नहीं होंगे, जैसा कि हाल के आत्मसमर्पणों से साफ है। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लेना जरूरी है। उन्हें यह भरोसा दिलाना होगा कि सरकार उनके हितों की रक्षा कर रही है, न कि केवल नक्सलियों को खत्म करने के लिए कार्रवाई कर रही है। बस्तर शांति समिति जैसे प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें स्थानीय लोग नक्सल हिंसा के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं।
हथियारों के बूते नक्सलवाद को काफी हद तक कम किया जा सकता है, जैसा कि हाल के ऑपरेशनों और आत्मसमर्पणों से दिख रहा है लेकिन इसे पूरी तरह खत्म करने के लिए सैन्य कार्रवाई के साथ-साथ विकास, पुनर्वास, और शांति वार्ता को भी अपनाना होगा। सरकार की मौजूदा रणनीति सही दिशा में है, लेकिन इसे और समग्र बनाना होगा। तेलंगाना के नेताओं की शांति वार्ता की वकालत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे सैन्य दबाव के साथ जोड़कर एक संतुलित रणनीति बनानी चाहिए। नक्सलवाद को खत्म करने के लिए सिर्फ बंदूकें नहीं, बल्कि विकास और विश्वास की भी जरूरत है। अगर सरकार इस संतुलन को बनाए रखती है तो 2026 तक नक्सलवाद को काफी हद तक खत्म करना संभव हो सकता है।

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