-सुभाष मिश्र
(सन्दर्भ : बलात्कार की कोशिश में इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय )
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज राम मनोहर नारायण मिश्र ने 19 मार्च 2025 को फैसला दिया कि 11 साल की बच्ची के साथ हुई घटना जिसमें उसके स्तनों को पकड़ा गया उसके पैजामा की स्ट्रिंग तोड़ी गई, रेप की कोशिश नहीं मानी जाएगी। एक लड़की से कथित दुष्कर्म की कोशिश के आरोप में यह एक बहुत ही अजीब सा निर्णय है। इस निर्णय की पूरे देश में चर्चा और निंदा हो रही है। लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया के उत्साही लोगों ने इस निर्णय को पूरा पढऩे की कोशिश नहीं की है। पहले निर्णय पर एक नजर-महिला के निजी अंग पकडऩा। उसके पैजामे का नाड़ा तोडऩा। उसे पुलिया के नीचे खींचना, दुष्कर्म नहीं है और न दुष्कर्म की कोशिश है। मीडिया में इस फैसले की बहुत चर्चा हो रही है और इस निर्णय पर लानतें भेजी जा रही है लेकिन जो निर्णय सुनाया गया है और जो मीडिया में आया है, वह आधा-अधूरा है। अदालत ने इसे पॉस्को एक्ट के तहत गंभीर यौन उत्पीडऩ माना है और आरोपियों पर रेप केस के तहत सेक्शन 376 आईपीसी के बजाय सेक्शन 9/10 पास्को एक्ट और सेक्शन 354-बी आईपीसी के तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया है।
इस विषय पर आगे चर्चा से पहले यह स्पष्ट कर दिया जाए कि आज की जनधारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के कानूनी नुक्ते को गलत नहीं ठहराता है। कानूनी नुक्ते निगाह से बहुत संभव है कि सही हो और पास्को एक्ट के तहत अदालत को सजा ज्यादा उचित लगती हो लेकिन यह निर्णय और विशेषकर निर्णय की भाषा मानवीय संवेदना से रहित है। इस तरह के निर्णय कानून के बारीक नियमों की सुविधा और सुरक्षा में लिए गए हों, लेकिन यह भी एक जनसामान्य राय है कि ऐसे निर्णय जो बलात्कार की कोशिश नहीं लगते हैं, संवेदना रहित लगते हैं। कानून की संकरी गलियों में ऐसी बहुत सी सुविधाओं के घर सुरक्षित होते हैं जिसका लाभ प्राय: वकील उठाते आए हैं। वकीलों पर यह आरोप प्राय: लगते हैं कि वे केस जीतने की अपनी व्यवसायिकता और जुनून में पीडि़ता के साथ बहुत अश्लील, निर्लज्ज और अमानवीय प्रश्न पूछते हैं। अदालतों में भी इस बात को स्वीकार किया जा चुका है कि यह वकालत का प्रोफेशनलिज्म नहीं है। बल्कि प्रश्नों की ऐसी भाषा पीडि़ता के साथ दुव्र्यवहार है। आज एक न्यायाधीश को भी ऐसे निर्णय देते हुए देखना बहुत गंभीर हताशा देता है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कानूनन कौन सी सजा ज्यादा उचित होगी। महत्वपूर्ण यह है कि किस एक्ट के तहत उस आरोपी को शीघ्र और बड़ी सजा मिल सकती है। परोक्ष में इस निर्णय से एक यह संदेश भी जाता है कि भविष्य में किसी पीडि़ता को पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करने या अदालत में केस दाखिल करने से पहले इस बात की प्रतीक्षा करनी होगी कि बलात्कारी सिर्फ बलात्कार की कोशिश ना करे बल्कि बलात्कार में भी सफल हो जाए और उसके लिए पर्याप्त प्रमाण भी पीडि़ता के पास मौजूद हो। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है यह निर्णय कानून सम्मत हो सकता है। इस निर्णय के पक्ष में न्यायाधीश के पास कितने भी कानूनी तर्क हों, लेकिन पूरे देश में इसे लेकर एक बहस छिड़ गई है। ऐसे निर्णय पहली नजर में ही सिर्फ स्त्री विरोधी ही नहीं मानवीयता के विरोधी भी लगते हैं। क्या पीडि़ता को तब तक विरोध नहीं करना चाहिए था जब तक इस बात के पर्याप्त साक्ष्य उसके पास ना हो जाते कि बलात्कारी अब बलात्कार की कोशिश कर रहा है। यानी पीडि़ता को कानून का जानकार होना भी जरूरी है।
भारत में लागू पॉक्सो एक्ट (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012) भारत में बच्चों (18 साल से कम उम्र के व्यक्तियों) को यौन शोषण, यौन उत्पीडऩ और पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से बचाने के लिए बनाया गया एक विशेष कानून है। इसे 14 नवंबर 2012 को लागू किया गया और 2019 में इसमें संशोधन कर इसे और सख्त बनाया गया। इस एक्ट के अनुसार 18 साल से कम उम्र का कोई भी व्यक्ति (लड़का या लड़की) इस कानून के तहत बच्चा माना जाता है। यौन उत्पीडऩ धारा 11-12 के तहत अश्लील इशारे, टिप्पणी या छूने जैसे कृत्य शामिल हैं। 3 साल तक की जेल और जुर्माना है। प्रवेशी यौन हमला धारा 3-4 में शरीर में प्रवेश करने वाले यौन कृत्य जिसमें कम से कम 7 साल की सजा, अधिकतम आजीवन कारावास और जुर्माना है। गंभीर प्रवेशी यौन हमला धारा 5-6 में 12 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ बलात्कार या गंभीर हमले पर कम से कम 20 साल की सजा और अधिकतम आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रवाधान है। 2019 संशोधन के बाद गैर-प्रवेशी यौन हमला धारा 7-8 में गुप्तांगों को छूना या यौन इरादे से शारीरिक संपर्क करने पर 3-5 साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान है। बाल पोर्नोग्राफी धारा 13-14 में बच्चों को अश्लील सामग्री में शामिल करने पर 5-10 साल तक की जेल और जुर्माने का प्रवाधान है। पॉक्सो कानून के अंतर्गत अपराध की गंभीरता के आधार पर सजा न्यूनतम 3 साल से लेकर मृत्युदंड तक हो सकती है। 12 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ बलात्कार के मामले में मृत्युदंड का प्रावधान (2019 संशोधन) जोड़ा गया है। पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत विशेष अदालतें गठित की गई है ताकि तेज़ी से सुनवाई सुनिश्चित हो सके। पॉक्सो एक्ट के अंतगर्त कोई भी व्यक्ति (परिवार, शिक्षक, पड़ोसी) शिकायत दर्ज कर सकता है। पुलिस को एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत बच्चे की पहचान गोपनीय रखी जाती है। मेडिकल जांच और मनोवैज्ञानिक सहायता का भी प्रावधान है। यदि हम भारत में बच्चों के साथ छेडख़ानी और बलात्कार की घटनाओं के आकड़ों पर नजऱ डालें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित की जाने वाली क्राइम इन इंडिया रिपोर्ट के अनुसार 2022 में बच्चों के खिलाफ अपराधों के 1,62,449 मामले दर्ज किए गए। जिनमें से 47 प्रतिशत यौन अपराध थे। पॉक्सो एक्ट के तहत 47,221 मामले दर्ज हुए। 2022 में बच्चों के खिलाफ बलात्कार के 8,353 मामले दर्ज हुए। इनमें से 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले प्रमुख थे। पॉक्सो के तहत यौन उत्पीडऩ के 12,000 से अधिक मामले दर्ज हुए। 2016 में पॉक्सो के तहत 36,022 मामले दर्ज हुए थे, 2019 में 47,335 मामले दर्ज हुए थे, जिसमें से 11,000+ बलात्कार के थे। जो 2022 में बढ़कर 47,221 हो गए, जो यौन अपराधों में वृद्धि और जागरूकता दोनों को दर्शाता है। अन्य स्रोतों से एकत्र की गई जानकारी के अनुसार, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा लोकसभा में बताया गया कि 2019 से 2022 तक पॉक्सो के तहत 1.5 लाख से अधिक मामले दर्ज हुए। बचपन बचाओ आंदोलन का अनुमान है कि भारत में हर दिन 100 से अधिक बच्चे यौन शोषण का शिकार बनते हैं, जिनमें से कई मामले दर्ज ही नहीं होते।
इलाहाबाद की अदालत ने निर्णय सही दिया या गलत दिया, बहस का विषय यह नहीं होना चाहिए। बहस का विषय यह होना चाहिए कि बलात्कार या बलात्कार की कोशिश जैसे कृत्य के लिए अभी भी कानून में बदलाव की जरूरत है। स्त्रियों और छोटी बच्ची या बच्चा अभी भी असुरक्षित हैं। साथ ही शीघ्र और उचित न्याय की उम्मीद अभी दूर है।