अभाव मूल्य श्रृंखला का
राजकुमार मल
भाटापारा:- रुझान घट रहा है राष्ट्रीय बांस मिशन से बांस की खेती करने वाले किसानों में क्योंकि प्रसंस्करण और विपणन की सुविधाओं को लेकर कोई पहल नहीं की जा रही है।
घटते क्रम में है प्रदेश में बांस की बोनी का रकबा। राष्ट्रीय बांस मिशन की शुरुआत तो जोर- शोर से हुई थी लेकिन तैयार हो चुके बांस अब परेशानी खड़ी कर रहे हैं क्योंकि वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। साथ ही बांस आधारित प्रसंस्करण इकाई के फायदे भी फलीभूत नहीं हो सके हैं।
इसलिए कम हो रही खेती
राष्ट्रीय बांस मिशन योजना के तहत अनुशंसित प्रजाति बम्बोस, बालकोवा और तुलदा को कमजोर गुणवत्ता वाली प्रजाति मानी जाती है। बांस उत्पादक किसानों की मांग कनक कैच जैसी उच्च गुणवत्ता वाली प्रजाति में थी लेकिन कमजोर उपलब्धता घटते रुझान की बड़ी वजह बन रही है। इसके अलावा योजना अब तक गैर वन क्षेत्र तक ही पहुंच पाई है जबकि जरूरत आदिवासी समुदायों तक होनी थी, जहां विशाल संभावना थी।
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मूल्य श्रृंखला और अभाव प्रसंस्करण का
योजना तो बेहतर थी लेकिन बांस उत्पादक किसानों ने इसलिए रुझान नहीं दिखाया क्योंकि न उच्च गुणवत्ता वाली प्रजाति मिली ना मूल्य श्रृंखला को लेकर जिम्मेदारों ने पहल की। इसके अलावा बांस आधारित उद्योगों के लिए प्रसंस्करण इकाइयों की भी जानकारी समय पर नहीं मिली। किसानों का कहना है कि बांस की व्यावसायिक खेती के लिए अपार संभावनाएं हैं बशर्ते गंभीरता से ध्यान दिया जाए।
बनती हैं यह सामग्रियां
गरीबों की लकड़ी कहे जाने वाले बांस से फर्नीचर बनते ही हैं। घरेलू उपयोग भी सदियों से चला आ रहा है। हस्तशिल्प में बांस शिल्प को जैसा बढ़ावा मिल रहा है, उसने भी विस्तार को अवसर दिया हुआ है। कागज के बाद दूसरी सफलता बांस के कपड़े बनाने में मिली है, जो बाजार में बहुत जल्द देखने में आने वाला है। बताते चलें कि देश में बांस की लगभग 136 प्रजातियां हैं, जिसकी मदद से वार्षिक उत्पादन 3.23 मिलियन टन पर पहुंचा हुआ है।
नीति और ज़मीनी कार्य में सामंजस्य ज़रूरी
राष्ट्रीय बांस मिशन एक दूरदर्शी पहल रही है, लेकिन इसके अपेक्षित परिणाम तभी मिल सकते हैं जब योजना निर्माण के साथ-साथ ज़मीनी कार्यान्वयन में भी गंभीरता हो। उच्च गुणवत्ता वाली प्रजातियों की अनुपलब्धता, प्रसंस्करण इकाइयों का अभाव और मूल्य श्रृंखला की कमी किसानों के रुझान में गिरावट के प्रमुख कारण हैं। बांस सिर्फ पारंपरिक उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके औद्योगिक और हस्तशिल्पीय उपयोगों में भी अपार संभावनाएं हैं।
-अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर