रायपुर। सहमति और असहमति लोकतंत्र के दो खूबसूरत औजार हैं। इनमें से एक तभी बेहतर होता है जब दूसरा सक्रिय होता है और जब देश में प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती के साथ लोकहित की जद में अंतिम व्यक्ति भी शामिल होता है तो देश का नागरिक असहमति से सहमति की ओर स्वयं गमन कर लेता है। जाहिर है असहमतियों का दमन लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक, दार्शनिक और इतिहासकार फ्रांस्वा मैरी ओरएट यानि वाल्टेयर ने कहा था कि हो सकता है कि मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊँ, परन्तु विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूँगा। आज के दौर में भी लोग कूल बनने के लिए इस उद्धरण का प्रयोग तो करते हैं, लेकिन जब इसका पालन करने की बात आती है तो पीछे हठ जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी में भी पिछले कुछ दिनों ऐसा ही वाक्या देखने-सुनने को मिल रहा है। जहां एक वरिष्ठ पत्रकार रूचिर गर्ग को पहले तो उनका कार्यक्रम करने के लिए चिकित्सा महाविद्यालय का सभागार दे दिया जाता है, फिर अचानक से ही सभागार में वायरिंग का काम होने की बात कह कर सभागार देने के लिए मना किया जाता है। लेकिन फिर से सभागार में कार्यक्रम की अनुमति दे दी जाती है। आखिर में वरिष्ठ पत्रकार को उनके कार्यक्रम की अनुमति नहीं दी गई। उन्होने भी हिम्मत नहीं हारी और रायपुर प्रेस क्लब के प्रांगण में यह आयोजन किया। जिसमें प्रदेश भर से प्रबुद्धजन और लेखक, विचारक समेत बड़े पैमाने में गणमान्य नागरिक मौजूद थे।
जनता को नफरत के नशे से बाहर निकालना है: प्रो- अपूर्वानंद
कार्यक्रम के अतिथि दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. और चर्चित लेखक प्रो अपूर्वानंद ने द लेंस.इन की टीम को बधाई दी। उन्होने कहा कि छत्तीसगढ़ आज और आने वाले भविष्य में देश के जनतंत्र का इम्तिहान कैसे होगा यह साबित किया। प्रदेश में सच बोलना और सही सवाल खोजना चुनौती होगी। आज के वक्त किसी ने यह फैसला किया और खड़े हुए वह सराहनीय है।
प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि आज के आयोजन से ही पता चल जाता है कि छत्तीसगढ़ में सवाल खोजना कितना मुश्किल है और उसका जवाब भी कितना मुश्किल है। यह आज के आयोजन से हमें पता चल जाता है। आज हम खुले में बैठे है जो गलत नहीं पर यह जगह हमें 24 घंटे के भीतर मिली है। लोग कहते हैं हम जनतंत्र में रहते हैं। भारत जिस दौर में है क्या भारत को उन सवालों का अहसास है जो उन्हे पूछना चाहिए, लेकिन उन्हे अहसास कौन कराएगा। जैसे हमें भ्रम होता है हम अपने विद्यार्थियों के जरिये विद्यार्थियो को अपने शोध के जरिए अध्ययन कक्षाओं के जरिए हम उन सवालों को खोजना सीखाते है। उनका उत्तर देना सीखाते हैं। लेकिन आज से 100 साल पहले माखनलाल चतुर्वेदी जी ने पत्रकारिता पर व्याख्यान दिया था। उन्होने पत्रकारिता और विश्वविद्यालयों की तुलना की थी। उन्होने कहा था कि एक स्तर पर पत्रकारिता का दायित्व विश्वविद्यालयों के दायित्व से कही अधिक गंभीर है। क्योंकि पत्रकार अखबारों के जरिए तथ्य बतलाते थे जानकारी और विश्लेषण बतलाते है। अध्यापक भी वही करते थे। शोधकर्ता शोध पत्र में गलती करते हैं तो उनके लोग ही उनकी गलती ढूंढ कर दुरूस्त कर देते हैं पर पत्रकार गलती करेगा तो समाज पर गलत असर पड़ेगा। शोध पत्र की भरपाई दूसरे शोध पत्र से हो सकती है पर पत्रकारिता की जानबूझकर की गई गलती की भरपाई नहीं हो सकती। माखनलाल चतुर्वेदी जी के कहे शब्द आज की पत्रकारिता में दिखाई देती है। प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि पिछले 10 साल में भारत की पत्रकारिता ने लोगो को गुमराह किया है। 10 साल से मीडिया ने मनगढ़ंत तथ्य प्रस्तुत किया है। हम सच्चाई को नहीं देख पाते। पूरी दुनिया में यही सवाल पूछा जा रहा है गाजा में जो हो रहा है उस सच को भी रिपोर्ट नहीं किया जा रहा। गाजा में इस वक्त सबसे बड़ा इम्तिहान है। यूरोप-अमेरिका के कई बड़े समाचार संस्थान सच दिखाने में विफल हो गए। वे न तो सच देखना चाहते है और न ही चाहते है कि उनके पाठक सच देखे। भारत में भी ऐसा ही हो रहा है। वक्फ बोर्ड पर सर्वोच्च न्यायालय ने 3 प्रश्न किये पर मीडिया ये सवाल नहीं पूछ पाई। सुको ने पूछा तब मीडिया संसथानों के सामने मजबूरी हो गई की इसे कवर करें। कबीर जी ने कहा था सांच कहे तो मारन धावे अब हम सच देखने से घबराने लगे है। ऐसे में लेंस का काम गंभीर हो गया है। जनता को नफरत के नशे से बाहर निकालना है, उससे बाहर लाना है। जनता को सच देखने का साहस पैदा करना होगा। यह नशा 10 साल का है इससे बाहर लाना होगा।
एआई हमारा चित्र नहीं बल्कि जिंदगी बदल देगा: नीरजा चौधरी
प्रख्यात पत्रकार और जानीमानी लेखिका नीरजा चौधरी ने कार्यक्रम को संबोधित किया। उन्होने कहा कि मुझे इस एतिहासिक पल के लिए बुलाया उसके लिए आभारी हूं द लेंस.इन की टीम को बधाई। उनके उत्साह उर्जा देख लगा यह टीम बहुत दूर जाने वाली है। महिला सशक्तीकरण का मुद्दा दर्शाने वाले हैं। मैं चुनाव के समय देश मे घुमती हुं और युवा महिलाओं से मिलती हूं। तो कहना चाहती हूं यह सदी युवा महिलाओं की होने वाली है उनमें आसमान से तारे तोडऩे की चाह है। एक 90 साल की हैदाराबाद की महिला से मैने पूछा कि वे अपनी नातियों के लिए क्या चाहती है तो उन्होने कहा कि वे पढ़ लिखकर अपने पैर पर खड़े हो जाए। इसी तरह मुजफ्फरपुर में एक 10 साल की छोटी दलित लड़की जो स्कूल छोड़ चुकी थी उसकी मां काम करती है। मैने पूछा तुम क्या बनना चाहती हो 10 मिनट तक वह कुछ नही बोली फिर एक शब्द बोली कम्प्यूटर। तो आप इस उर्जा को कुछ देर टाल सकते हो पर रोक नही सकते। लेखिका नीरजा चौधरी ने आज के प्रश्न और पत्रकारिता का उत्तर को गंभीर मुद्दा बताया। उन्होने कहा कि एआई सबसे बड़ा सवाल है ये 10 साल में हमारी चित्र नहीं बल्कि जिंदगी बदल देगी। पूरा समाज बदल जाएगा। इसके लिए हमें सोचना पड़ेगा। सोशल मीडिया ने मीडिया का रोल बदल दिया है। पत्रकार सवाल करता है लेकिन पत्रकार लोगों के सामने सच रख सकता है। द लेंस इन का लोगो सच साफ-साफ बहुत बेहतरीन है। मीडिया का रोल पब्लिक रिलेशन नहीं करना है, न किसी सरकार, न किसी पार्टी के लिए मीडिया का रोल सच दिखाना और पावर को आईना दिखाना है। जब मैने पत्रकारिता शुरू की थी तब लोग कहते थे अखबार में लिखा है वो सच ही होगा। पर आज के दौर में ऐसा नही है। पत्रकारिता पर भरोसा खत्म हो रहा है। आज भी देश में कई पत्रकार हैं जो सच दिखाने का साहस रखते हैं। नए जमाने में पॉलिटिकल पत्रकारिता होती है। नेता भी अपने चहेते पत्रकारों से बात करते है। आडवाणी जी सभी पत्रकारों से संसद में बात करते थे पर आज नेता सोशल मीडिया पर ही अपनी बात रखते हैं। हमें मीडिया के वास्तविक रोल को बचाना है और उसी डगर पर चलना है।
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सवाल पूछने की आजादी है पर सवाल पूछने के बाद आजादी की गारंटी नहीं: सिद्धार्थ वरदराजन
जाने माने पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने टीम को बधाई दी। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में आपने बड़ी संजीदगी से साथ रास्ते का चयन किया। देश में ऐसा सियासी माहौल है कि मीडिया सवाल पूछने से दूर भाग रहा है। ऐसी ही सवाल है कि क्या लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव से जुड़ा है। क्या चुनाव के अलावा लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है। लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है वह खोते जा रहे है। लोकतंत्र में आपको हर दिन हर रोज मौका मिलता है कि आप अपने हक की आवाज या सवाल पूछ सकते हैं। अगर हम ईमानदारी से पूछे तो क्या भारत के लोगों को उनका यह हक मिल रहा है। तो पाएंगे कि देशवासियों को यह अधिकार नहीं मिल रहा है। लोकतंत्र की कल्पना की गई थी कि चुनाव के साथ-साथ अलग-अलग संस्था देखे की सरकार सही काम कर रही है या नहीं। कानून के तहत काम कर रही है या नहीं। देश में शिक्षा वैज्ञानिक तरिके से चले पर आज हम इन सभी को देखे तो पाएंगे इनमें से कोई भी संस्था ठीक से काम नहीं कर पा रही है। पिछले 10 साल में हमने सुना की सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैसले पर सवाल उठाया। उसी तरह उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर सवाल उठाया उससे ही पता चल जाता है कि यह सरकार सभी पर नियंत्रण रखना चाहती है। आज कई संस्थान कमजोर हो गए पर मीडिया में कोई चर्चा नहीं हो रही।
दूसरा सवाल यह कि क्या चुनाव फ्री और फेयर तरिके से हो सकता है। हम ईवीएम पर सवाल नहीं कर रहें, लेकिन जिस तरह से धन का प्रयोग चुनाव में होता है उद्योगपतियों को डोनेशन दिया जा रहा। एक खास पार्टी को उसमें बीजेपी को 83 प्रतिशत चंदा मिला है। ऐसे में हम फेयरचुनाव की बात कैसे सोच सकतें हैं। पिछले 75 साल में चुनावों में धन का उपयोग कम किया जाए पर यह बढ़ता जा रहा है। भारत के प्रदेशों के अधिकारों को कम किया जा रहा उनको एंटीनेशलन बताया जा रहा। प्रदेशों के अधिकारों पर लगातार हमला हो रहा है उस पर कोई चर्चा नहीं होती। आज का आखिरी सवाल कि क्या हम आजाद है? प्रश्न उठाने के लिए क्या कुणाल कामरा आजाद नहीं था। लतीफा सुनाने उसने केवल गद्दार शब्द कहा, लेकिन केस हो गया। उसे मुंबई से भागकर चेन्न्ई जाना पड़ा खतरे में पड़ गया। ऐसे ही कई फिल्मकार लेखकों के साथ यही हो रहा। उन्होने कहा कि सवाल पूछने की आजादी है पर सवाल पूछने के बाद आप आजाद है इसमें मोदी की कोई गारंटी नहीं है। जो सवाल उठाते है उन पर एफआईआर हो जाता है।
कार्यक्रम के आयोजक और द लेंस डाट इन के प्रधान संपादक रूचिर गर्ग ने अपने संबोधन में प्रेस क्लब का आभार व्यक्त किया। उन्होने कहा कि यह अपने घर का आभारी होना है। एक स्थल की अनुमति रद्द होने के बाद अध्यक्ष प्रफुल्ल ठाकुर ने कहा कि प्रेस क्लब है न ! इसे दर्ज किए बिना बात पूरी नहीं होगी। तमाम पत्रकार मित्रों का आभार जो अलग-अलग तरह से लगातार उत्साह बढ़ा रहे थे,मदद कर रहे थे। इसमें ऐसे वरिष्ठ संपादक और वरिष्ठ चिकित्सक तो इतना साथ थे कि एक बार तो लगा था कि स्थल परिवर्तन करना ही नहीं पड़ेगा। ऐसी मदद में कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे।