Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सेना के शौर्य पर सियासत का साया

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

देश की सीमाओं की सुरक्षा में तैनात भारतीय सेना का शौर्य और पराक्रम सदैव गर्व और सम्मान का विषय रहा है। चाहे वह सर्जिकल स्ट्राइक हो, एयर स्ट्राइक, या हालिया ऑपरेशन सिंदूर—हर बार सेना ने देश के सम्मान की रक्षा करते हुए अद्वितीय वीरता का परिचय दिया है। परंतु दुर्भाग्यवश, इन वीर कार्रवाईयों पर अब बार-बार सियासत की छाया पड़ती दिखाई दे रही है, जो न केवल सेना की गरिमा को ठेस पहुंचाती है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और संवेदनशीलता को भी आघात पहुंचाती है।
हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत द्वारा की गई ऑपरेशन सिंदूर जैसी निर्णायक सैन्य कार्रवाई को पहले तो सभी राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर समर्थन दिया। लेकिन जल्द ही यह सैन्य विजय भी सियासी आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाज़ी का शिकार बन गई। एक ओर सत्ता पक्ष ने इस ऑपरेशन को सरकार की सख्त नीति और प्रधानमंत्री के नेतृत्व का प्रमाण बताया, वहीं विपक्ष ने इसे चुनावी लाभ के लिए भुनाने का आरोप लगाया। इसके बाद आई भारत शौर्य तिरंगा यात्रा, मुख्यमंत्रियों की बैठक और सांसदों के संभावित विदेश दौरे जैसे कदमों ने इस आरोप को और बल प्रदान किया कि सेना के शौर्य को राजनीतिक एजेंडे के तहत इस्तेमाल किया जा रहा है।
चिंता का विषय केवल यह नहीं है कि राजनीतिक दल इन कार्रवाईयों का श्रेय लेने की होड़ में लगे हैं, बल्कि यह भी है कि सेना के अधिकारियों पर की गई कुछ आपत्तिजनक टिप्पणियां जैसे कैप्टन सोफिया कुरैशी को लेकर दिए गए बयान न केवल सेना की गरिमा पर आघात हैं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं के भी खिलाफ हैं। इन बयानों पर कोई ठोस कार्रवाई न होना और अदालतों द्वारा संज्ञान लेना, राजनीति के गिरते स्तर की ओर इशारा करता है।
सर्जिकल स्ट्राइक (2016) और एयर स्ट्राइक (2019) जैसे पूर्ववर्ती अभियानों के समय भी यही सियासी रेखाचित्र उभरकर सामने आई थी। तब भी सत्ता पक्ष ने इन्हें अपने राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग किया और विपक्ष ने प्रश्न उठाए, जिनका परिणाम दोनों पक्षों की छवि पर पड़ा। वर्तमान समय में भी यही क्रम दोहराया जा रहा है, जिससे सेना के शौर्य को सियासी हथियार में बदलने का खतरा और गहरा होता जा रहा है।
यह तथ्य निर्विवाद है कि सेना का कार्यक्षेत्र राजनीति से परे होना चाहिए। वह राष्ट्र की सुरक्षा का प्रतीक है, किसी एक पार्टी की नीति या चुनावी रणनीति का उपकरण नहीं। जब राजनीतिक दल वीरता का इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए करते हैं या सेना के नाम पर झंडा यात्राएं निकालकर अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करते हैं तो यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को धूमिल करता है, बल्कि सेना जैसे संवेदनशील और सम्मानित संस्थान की गरिमा को भी क्षति पहुंचाता है।
समय की मांग है कि सभी राजनीतिक दल आत्मचिंतन करें। सेना को सियासत से परे रखते हुए उसका सम्मान करें और उसे मतदाता आकर्षण का साधन न बनाएं। देश के नागरिकों को भी चाहिए कि वे शौर्य और सियासत के इस अंतर को समझें और यह सुनिश्चित करें कि देश की रक्षा करने वाली संस्था को हम सब मिलकर न केवल सलामी दें, बल्कि उसकी निष्पक्षता और गरिमा की रक्षा भी करें।
सेना की वीरता किसी पार्टी की नहीं, पूरे राष्ट्र की धरोहर है। उसे राजनीति की ज़द से बाहर रखना हर जागरूक नागरिक और सच्चे राष्ट्रभक्त का कर्तव्य है।

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