Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – बढ़ती आयु और घटती संवेदनाएं

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

ये यूज एंड थ्रो का समय है। यह उपयोगिता और फिटनेस का समय है। यह गीव एंड टेक का समय है। यह संयुक्त परिवारों के तेजी से एकल परिवार में तब्दील होने का समय है। यह समाज, परिवार और घरों में बुजुर्गो के एकाकी होने का समय है। यह बुजुर्गो को मार्गदर्शक मंडल में बिठाकर अलग-थलग करने का भी समय है। यह एक क्रूर समय है जिसमें रिश्ते-नाते, माननीय संवेदनाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है। व्यक्ति की उपयोगिता, पद, पावर और पैसा। यह समय हताशा में बैठे हुए व्यक्ति की ओर हाथ बढ़ाने का नहीं उसे इग्नोर करके तेजी से अनदेखी करके निकल जाने का समय है। ऐसे विडंबनापूर्ण समय में देश में बुजुर्गो की संख्या का तेजी से बढऩा और उनके अकेलेपन को कैसे कम किया जाये, उसके बारे में गंभीरता से सोचना और बहुत कुछ किये जाने का भी समय है। यही वजह है कि अब बाकी दुनिया की तरह ही हमारे देश में सनातनी गैर सनातनी सब मिलकर पितृ पक्ष के अलावा भी अपने पूर्वजों के बारे में सोचने को विवश हो रहे हैं। वरना जैसा बोओगे, वैसा ही काटना पड़ेगा। आपकी औलाद भी देख रही है कि आप अपने बुजुर्गों के साथ कैसा सलूक कर रहे हैं जो लोग डॉलर-पॉन्ड-रूबल-दीनार में पैसे कमाने विदेश गए हुए हैं। उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए माता-पिता, नाना-नानी की जरूरत है। उसकी वजह बुजुर्गों के प्रति सम्मान कम और वहां पर बच्चों की देखभाल के लिए डे केयर और नैनी की व्यवस्था बहुत महंगी है। लोग रिश्तों में महंगी व्यवस्था से बचने और अपना काम आसानी से करने के लिए बुजुर्गों को देखभाल के नाम पर अपने साथ बुलाकर रखते हैं, उन्हें यह सौदा सस्ता दिखता है।
2011 की जनगणना के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में एकल परिवारों की हिस्सेदारी बढ़ी है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह प्रवृत्ति पहले से ज्यादा प्रबल है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 60 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों की आबादी 10.38 करोड़ थी, जो कुल आबादी का 8.6 फीसदी थी। यह 2001 के 7.4 फीसदी से बढ़ी है। अनुमान है कि 2050 तक यह 20 फीसदी तक पहुँच सकती है। दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर में कमी के कारण वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात बढ़ रहा है जो 1961 में 10.9 फीसदी से 2011 में 14.2 फीसदी हो गया और 2031 तक 20.1 फीसदी होने का अनुमान है।
एकल परिवारों के बढऩे से बुजुर्ग अक्सर भावनात्मक और सामाजिक अलगाव का सामना करते हैं। हेल्प एज इंडिया के सर्वे के अनुसार, 60 फीसदी बुजुर्गों को लगता है कि उनके साथ समाज में दुव्र्यवहार होता है, जिसमें 56 फीसदी मामलों में बेटे और 26 फीसदी में बहू जिम्मेदार होती है। तेजी से बुर्जुगियत की ओर बढ़ रही पीढ़ी को ग्रेड पेटर्नस डे के जरिए नाती-पोतों के साथ मिल बैठकर बतियाने, उनकी पीड़ा तकलीफ को सुनने की जरूरत है।
वृद्धावस्था में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 62 फीसदी बुजुर्ग ही चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच पाते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी आर्थिक बाधाएं इलाज में रुकावट बनती हैं। अधिकांश बुजुर्गों के पास पर्याप्त पेंशन या सामाजिक सुरक्षा नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार, बुजुर्गों की बड़ी आबादी पेंशन सुरक्षा जाल से बाहर है।
यह तो बात हुई एक बुजुर्ग आम नागरिक की किन्तु ऐसे लोग जो सरकारी सेवा में रहते हुए सेवानिवृत्त हुए हैं जिन्हे पेंशन मिलती है ऐसे लोगों के केंद्र सरकार 31/12/2025 के पहले सेवानिवृत्त कर्मचारियों को 8वें वेतन आयोग के लाभ से वंचित करने की क्रूरता कर रही है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने पर पहले से ही रोक लगाई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 01-07-2015 को सिविल अपील संख्या 1123/2015 में दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय जिसमें न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से निर्णय दिया है कि पेंशन एक अधिकार है और इसका भुगतान सरकार की इच्छा पर निर्भर नहीं करता। पेंशन नियमों द्वारा शासित होती है और उन नियमों के अंतर्गत आने वाला सरकारी सेवक पेंशन का दावा करने का हकदार होता है। पुराने पेंशनधारियों को नये पे-कमीशन के लाभ से वंचित रखने का त्रुटिपूर्ण निर्णय। पेंशनधारियों के साथ केंद्र सरकार इतना क्रूर रवैया क्यों अपना रही है? क्या मोदी सरकार की वित्त मंत्री के अनुसार पेंशनधारियों पर मंहगाई का प्रभाव नहीं पड़ता है? निर्णय में यह स्वीकार किया गया है कि पेंशन का पुनरीक्षण और वेतनमानों का पुनरीक्षण अविभाज्य हैं। पीठ ने दोहराया कि पुनरीक्षण के बाद मूल पेंशन किसी भी स्थिति में संशोधित वेतनमान में न्यूनतम पे बैंड की 50 फीसदी से कम नहीं हो सकती। सरकार वित्तीय बोझ का बहाना बनाकर पेंशनधारकों के वैध बकाया को नहीं नकार सकती।
रायपुर के कोटा स्थित सीबीएसई स्कूल डेफोडिल में ग्रेड पेरेंट डे मनाकर वहां पढऩे वाले बच्चों के माता-पिता के साथ दादा-दादी, नाना-नानी को बुलाकर उनका सम्मान करके उनके अनुभव साझा किये गए। बहुत सारे बुजुर्गो ने जिस भावुक तरीके से अपनी पीड़ा, उदगार व्यक्त किये वह तेजी से बदलते हमारे समाज की तस्वीर को पेश करता है। सबने यह महसूस किया कि बुजुर्गों के पास अनुभव के खजाने होते हैं उनके बिना पारिवारिक सांस्कारित और मूल्यों की कल्पना अधूरी है।
ऐसा नहीं है कि सरकार बुर्जुगों की देखभाल को लेकर चिंतित नहीं है। सरकार द्वारा वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007 बनाया गया है। यह अधिनियम बच्चों को माता-पिता के भरण-पोषण की जिम्मेदारी देता है और प्रत्येक जिले में कम से कम 150 गरीब बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम स्थापित करने का प्रावधान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के अधिनियम के तहत पेंशन, आश्रय और चिकित्सा सुविधाओं को लागू करने के लिए बार-बार निर्देश दिए हैं। यह मामला सुविधाओं से ज्यादा व्यक्तिगत केयर और मान-सम्मान का है।
हमारे देश में राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत गरीबी रेखा से नीचे के बुजुर्गों को मासिक पेंशन दी जाती है, लेकिन राशि (200 रुपये) अपर्याप्त है। अटल पेंशन योजना और अन्य योजनाएँ कुछ राहत देती हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता और पहुँच की कमी है। आयुष्मान भारत योजना बुजुर्गों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य बीमा प्रदान करती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों और विशेषज्ञों की कमी बनी रहती है। कुछ राज्यों (जैसे केरल) में बुजुर्गों के लिए विशेष स्वास्थ्य पैकेज हैं, लेकिन यह पूरे देश में एक समान नहीं है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तीर्थ दर्शन योजना बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा प्रदान करती है। एल्डर-फ्रेंडली सिटी की अवधारणा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रस्तावित है, जिसका उद्देश्य शहरों को बुजुर्गों के लिए सुरक्षित, समावेशी और सुविधाजनक बनाना है। भारत में यह अवधारणा अभी प्रारंभिक चरण में है, लेकिन कुछ शहरों (जैसे कोच्चि और भुवनेश्वर) में इस दिशा में प्रयास शुरू हुए हैं। प्रमुख विशेषताएं सुलभ बुनियादी ढाँचा: रैंप, लिफ्ट, और बुजुर्गों के लिए अनुकूलित सार्वजनिक परिवहन।
भारत में जो चुनौतियाँ हैं उनमें हमारे सामने प्रमुख रूप से शहरी नियोजन में बुजुर्गों की जरूरतों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। कई वृद्धाश्रमों में संसाधनों की कमी, खराब प्रबंधन, और अपर्याप्त कर्मचारी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण वृद्धाश्रमों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2020 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में जन्म के समय औसत जीवन प्रत्याशा 69.6 वर्ष है। इसमें पुरुषों की औसत आयु 68 वर्ष और महिलाओं की 71 वर्ष है। यह 1970 के 47.7 वर्ष से काफी बढ़ी है। हालांकि यह श्रीलंका (74 वर्ष) और चीन (75 वर्ष) जैसे पड़ोसी देशों से कम है। हमारे देश और विदेशों में बुजुर्गो की मिलने वाली सुविधाएँ की बात करें तो नॉर्वे, स्वीडन, स्विट्जरलैंड जैसे देशो में मजबूत पेंशन योजनाएँ जो बुजुर्गों को आर्थिक स्वतंत्रता देती हैं। स्विट्जरलैंड में उच्च जीवन प्रत्याशा (83 वर्ष) के साथ सुरक्षा और खुशहाली सूचकांक में उच्च स्थान है। मुफ्त या सब्सिडी वाली गेरियाट्रिक देखभाल, होम केयर, और विशेष नर्सिंग होम। स्वीडन में बुजुर्गों के लिए डे-केयर सेंटर और मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयाँ आम हैं। नॉर्वे में एज-फ्रेंडली शहरों का विकास किया जा रहा है। इसी तरह कनाडा में औसत आयु 82 वर्ष है और जापान में जापान में औसत जीवन आयु 84 वर्ष है जो दुनिया में सबसे अधिक है।
बात संयुक्त राज्य अमेरिका की जाये तो यहां निजी और मेडिकेड-वित्त पोषित नर्सिंग होम और असिस्टेड लिविंग सुविधाएँ उपलब्ध है। मेडिकेड 61 फीसदी नर्सिंग होम लागत को कवर करता है। निजी देखभाल महँगी है और निम्न-मध्यम आय वाले परिवारों को कठिनाई होती है। यदि हम भारत की बात करें तो हमारे यहां भारत में आयुष्मान भारत और एनपीएचसीई जैसे कार्यक्रम हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में गेरियाट्रिक देखभाल की कमी है। भारत में पेंशन योजनाएँ (जैसे एनएसएपी) सीमित हैं और केवल गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए हैं, जबकि कनाडा और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में सार्वभौमिक पेंशन योजनाएँ हैं।
भारत में एकल परिवारों के बढऩे से बुजुर्ग अकेलेपन का सामना करते हैं, अभी केवल कोच्चि के बाद तिरुवनंतपुरम देश की दूसरी एल्डर फ्रेंडली सिटी बनने वाली है जहां बुजुर्गो को घर में अस्पताल, ईवी में मुफ्त सफर व डे केयर मिलेगी। यहां नगर निगम में रहने वाले वाले सभी बुजुर्गो की उनके घरों में ही मेडिकल जांच की जाएगी।
बुजुर्गों को परिवार की कमी खलती है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। शहरों में तेजी से बढ़ते वृद्धा आश्रम इस बात के गवाह है कि घरों के भीतर घर बन गये है। बहुतों को अपनी निजता और जीवनशैली इतनी पसंद है कि वे अपने घर में किसी दूसरे की उपस्थिति चाहे वे उनके बुजुर्ग माता-पिता क्यों न हो बर्दाश्त नहीं करते। पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों को लेकर गरियाने वाले हम तेजी से उसी संस्कृति के पोषक बन जा रहे है जिसकी कालांतर में हम खुलकर आलोचना करते हैं। माता-पिता श्रवण कुमार, न सही पर ऐसे बच्चों की कल्पना तो करते हैं जो बुढ़ापे में उनकी लाठी बने। साहिल लुधियानवी के लिखे एक फिल्म के बहुचर्चित गाने की लाईन है-
तुझे सूरज कहूं या चंदा
तुझे दीप कहंू या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन
जग में मेरा राजदुलारा

आज उंगली थाम के तेरा,
तुझे मैं चलना सिखलाऊं ।
कल हाथ पकडऩा मेरा
जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ।।

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