पुस्तक समीक्षा- अंधेरे जीवन की विडंबनाओं की कथा

अंधेरे जीवन की विडंबनाओं की कथा

वरिष्ठ कथाकार आनंद हर्षुल का उपन्यास ‘देखना’ पढ़ा। यह उपन्यास रेलवे स्टेशन पर जीवन यापन करने वाले भिखारियों के जीवन पर आधारित है। कहानी का मुख्य पात्र एक अंधा व्यक्ति है। यहाँ अंधे बच्चे के अंधे होने की विडंबना का विवरण है, अंधेरे का रौशनी से संघर्ष है। अंधे बच्चे का यह पूछना है कि सूरज क्या होता है। और अंत में यह पहचानने लगना है कि कौनसे पक्षी के उड़ने की आवाज़ कैसी होती है।

पूर्व में लेखक आनंद हर्षुल की कहानियां पढ़ते हुए मैंने यह बात नोटिस की थी कि वह ग़रीबों को अपनी रचनाओं में प्रमुख स्थान देते हैं। यह किताब भी ग़रीबी को भीतरी तह तक जाकर देखती है। लेखक ने बड़ी कुशलता से ग़रीबी, रेल और भीख की जुगलबंदी को लिखा है। इसे इन पंक्तियों से समझा जा सकता है : “कई बार जनरल डिब्बे की भीड़ को देखकर लगता था कि यह पूरी भीड़ भी कहीं भीख मांगने जा रही है। यह भीड़ भिखारियों से बस थोड़ी ही ऊपर थी। बस इतनी कि भीख नहीं माँग रही थी, बल्कि मेहनत-मज़दूरी कर कमा-धमा रही थी। मजदूरी न मिले और भूख इतनी जग जाए कि असहनीय हो जाए तो यह भीड़ कभी भी भीख की ओर फिसल सकती थी।” ‌

बाल मनोविज्ञान का विश्लेषण भी इस पुस्तक में बहुत बारीकी से किया गया है। मुख्य पात्र के अतिरिक्त गँजेड़ी गोविंद का किरदार और बचपन से वृद्धावस्था तक की उसकी यात्रा भी बहुत रोचक है।

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इसके अलावा इस किताब में एक प्रेमकथा है— एक काली लड़की और एक अंधे भिखारी के प्रेम विवाह और साहचर्य की कथा। उनके बीच प्रथम प्रणय की घटना को बहुत सुंदरता से लिखा गया है जिसके फलस्वरुप यह केवल एक अक्षम व्यक्ति का प्रणय नहीं रह गया है।

सरकारों की योजना के तहत सरकारी स्कूलों में बालकों को मुफ़्त भोजन मिलता है। इस योजना की पोल खोलते हुए लेखक लिखता है कि स्कूलों में मिलने वाला पोषाहार भीख में मिलने वाले बासी भोजन से भी बदतर होता है।

कोरोना काल का बड़ा सजीव चित्रण लेखक ने किया है। उस समय जब समर्थ व्यक्ति भी सीमाओं में बंधे हुए थे, नौकरीशुदा लोग अपने रोज़गार खो रहे थे; ऐसे में भिखारियों पर क्या गुज़री होगी? इस प्रश्न का विस्तृत जवाब इस पुस्तक में मिलता है। यहाँ पुस्तक के परिवेश को देखते हुए यह बात रेखांकित करने योग्य है कि शहर और रेलवे स्टेशन के भिखारी अलग-अलग होते हैं और अलग-अलग होती हैं उनकी रिरियाहटें। लेकिन एक जैसी होती है अपने बच्चों को पढ़ा सकने की उनकी आकांक्षा, उन्हें सुरक्षित रख पाने की जद्दोजहद।

कटाक्ष लेखक कोरोनाकाल में सरकार द्वारा नागरिकों को ताली बजाने के लिए प्रेरित करने की घटना पर भी करते हैं।

पुस्तक के आवरण पर ही यह पता चल जाता है कि यह एक अंधे भिखारी की कथा है जो अपनी बेटी की रक्षा करते हुए हत्यारा बन जाता है। इस‌ घटना से आगे यह जेल की कथा बन जाती है। जेल में भी कैदियों और कर्मचारियों में कुछ मानवता बची रह गई है जो अंधे क़ैदी से अच्छा व्यवहार करते हैं। दूसरी तरफ़ जेल में व्याप्त भ्रष्टाचार और वीआईपी कल्चर पर भी यहाँ व्यंग्य किया गया है।‌ ख़बरों में भी हम ऐसे खुलासों के बारे में पढ़ते हैं कि फलां धन कुबेर या नेता को जेल में वीआईपी सुविधा उपलब्ध कराई गई।

एक तरीके से देखें तो स्टेशन पर भिखारी और जेल में क़ैदी दोनों ही अंधेरों में जीते हुए जीव हैं। जीवन की मुख्यधारा से कटे हुए सड़ांध और अनिश्चय में जीते हुए मनुष्य— भले ही उनकी आँखें देख पाती हों या नहीं। उनके जीवन और परिस्थितियों को वैचारिक और तार्किक कसौटियों पर यह पुस्तक परखती है। इस पुस्तक को पढ़ना भारत के सबसे ग़रीब और तथाकथित अभागे लोगों के जीवन दर्शन से रूबरू होना है।

-देवेश पथ सारिया


 

आधुनिक को आदिवासी होना आना चाहिए

आनंद हर्षुल की लाजवाब कलम से लिखा नहीं, बल्कि कहे-सुनाया गया “रेतीला” उपन्यास शाम को हाथ में आया और देर रात तक पढ़ लिया गया। जैसे ही अंत में पहुँची, निराला की पंक्ति कौंधी—”अन्याय जिधर है, उधर शक्ति।”आज का सच यही है—जो जितना चालक, कपटी, छली, शातिर है, वही फल-फूल रहा है। लेकिन यह सिर्फ यथार्थ का चित्रण भर नहीं, बल्कि कथा-रस से सराबोर एक अद्भुत किस्सागोई है, जो इसे और भी खास बनाती है।इस उपन्यास में हमारे पलटते समय के ज्वलंत मुद्दों को उठाया गया है—एक नहीं, बल्कि कई। ठोस यथार्थ को रोमांटिक संवेदना के साथ पिरोने की जो कला आनंद हर्षुल के पास है, वह अद्भुत है। जिस चरित्र का नैतिक पतन हो चुका हो, उसे भी विश्वसनीय ढंग से गढ़ देना—यह इस कथा की बड़ी उपलब्धि है।ओम महराज—एक ऐसा किरदार, जो हर बड़े से बड़े कांड से निकलने की युक्ति जानता है। और युक्ति क्या है? पैसा। आश्चर्य यह कि जो भरोसेमंद नहीं है, उसी के पास सबसे ज्यादा भरोसा है—पत्नी का, माँ का, मालिक का, दोस्त का, परिवार का…. कौवा योनि में घर आंगन में फुदक रहे रामसहाय ,…सरयू नदी का महानदी नदी में बदलना…मृत्यु को देखने की लालसा, प्रेम की महक..हत्या जैसे कई प्रसंग का सघन संगुफन जैसा बहुत कुछ पाएंगे.

-श्रद्धा श्रीवास्तव


 

प्रेम कहानी को नग की तरह जड़ देना

पिछले दिनों Anand Harshul के इस उपन्यास को पढ़ने का सुयोग हुआ।

उपन्यास क्या है यह तो आप पढ़कर ही जानेंगे।

लेकिन फ़न्तासी और रेत माफ़िया की बारीकियों का एक साथ निर्वाह कर जाना, खड़ी बोली के खूसट क्रिया पदों को लय की शर्तों पर इस तरह निभा ले जाना कि एक भी विवरण उबाऊ न लगे … बल्कि काव्य की प्रतीति भी हो, बिना कवियाये हुए…

कई पीढ़ियों के क्रिया कलापों और धन-सम्पति लोलुप के बीचों बीच एक प्रेम कहानी को भी बेशक़ीमती नग की तरह जड़ देना…

कवर पर यूँ ही यह इबारत नहीं है
प्रकृति और मनुष्य पर रेत माफ़िया की क्रूरता का एक मार्मिक आख्यान

ज़रूर पढ़िएगा।

-तेज ग्रोवर


प्रकृति के स्पंदनों के बीच मानवीय लिप्सा का आख्यान

‘रेतीला’ अपनी भाषा और लिखने के ढंग में ऐसा अनूठा उपन्यास है, जिसका हर वाक्य, अपने अर्थ हो अपने भीतर रखने की जगह, अगले वाक्य की ओर बहा देता है। इसे पढ़ते हुए पाठक इसीलिए अर्थ की खोज में एक वाक्य से दूसरे वाक्य की ओर भागता हुआ, अंत में अर्थों के एक समुच्चय को अपने भीतर जगमगाता हुआ महसूस करता है। उपन्यास की शुरुआत प्रकृति को उसके विराट वैभव में चित्रित करने में होती है। मानों वहाँ समूची प्रकृति का आह्वान किया जा रहा हो। लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है, हम पाते हैं कि शुरुआत में आया प्रकृति वर्णन, आधुनिक भारतीय मनुष्य की लिप्सा को समझने की पृष्ठभूमि ही है। हम भारतीय जो खुद को प्रकृति की निरन्तरता में देखने का दावा करते नहीं थकते, किस निम्न स्तर पर जाकर, प्रकृति को विनिष्ट करने में पूरे मनोयोग से जुट सकते हैं—‘रेतीला’ इसकी मार्मिक कथा कहता है। इसे पढ़ते हुए कभी लगता ही नहीं है कि पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, पशु-पक्षी किसी भी तरह से निर्जीव हों, उन्हें आनंद हर्षुल ने उनकी धड़कनों, स्पंदनों के साथ वर्णित किया है। लेकिन इसके साथ ही भोले आदिवासियों को हर स्तर पर ठगने के प्रयास में उद्घाटित होती मानवीय लिप्सा भी अपने लिजलिजे खून और माँस में लिथड़ी प्रकट होती चलती है। आनंद ‘रेतीला’ में नयी टैकनोलाजी के उस अमानवीय हत्यारे पक्ष को भी रोशनी में ले आते हैं जो हमारे तथाकथित विकास के विमर्श से हमेशा बाहर छूट जाता है।
‘रेतीला’ में आनंद भारतीय गाँव कि उजास और साथ ही सड़ांध को ध्वनित करने, यथार्थवाद के बनाए गए साँचे को भी तोड़ने से भी गुरेज़ नहीं करते और अपने समाज में फैली इन विकृतियों को ना सिर्फ काव्यात्मक भाषा में चरितार्थ करते हैं बल्कि गहरी संवेदनशीलता के साथ, इन विकृतियों के ओट में छिपी मानवीय प्रकृति के उजास की किरणों को भी अपने उपन्यास में फैलने का अवकाश देते हैं।
‘रेतीला’ पानी-सा बहता उपन्यास है, जिसमें उपन्यास लेखन की अत्याधुनिक विधियों से लेकर, स्थापित विधियाँ साथ-साथ प्रयुक्त हुई हैं। मरे हुए कामुक और घृणित चरित्र का कौवे में पुनर्जन्म से लेकर, रेत में दबाकर एक चरित्र को मार डालने तक का वर्णन उसी उदासीनता से किया गया है, जिस उदासीनता के साथ महाकाव्यों में युद्ध का विस्तृत वर्णन किया जाता रहा है। यहाँ पाठक यथार्थवाद और अतियाथार्थवाद के बीच की सीमा रेखा के आर पार सहज ही आवाजाही करता है। ऐसा कम होता है कि एक छोटे-से उपन्यास में, प्रकृति कि खूबसूरती और जीवंतता आधुनिक भारतीय मनुष्य की लिप्सा का एक ऐसा व्यापक रूप सहजता से समा गया हो।
-उदयन वाजपेयी


टकसाली यथार्थवाद से इतर

“अपनी दुनिया में रहने और सोचने का समय तो आपको निकालना ही होगा यदि आप जिन्दा रहना चाहते हैं.”

आनन्द हर्पल के कहानी-संग्रह बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का से ली गयी यह टिप्पणी स्वयं उनकी कहानियों के सन्दर्भ में मुझे अर्थपूर्ण जान पड़ती है. कम-से-कम उनकी कुछ प्रारम्भिक कहानियों के अनुभव को खोलने के लिए इसे (बीज वाक्य की तरह पढ़ा जा सकता है, सलांकि इसे थोड़ा फैलाकर देखने पर लगता है कि इसमें निहित सामान्यीकरण हिन्दी कहानी के प्रायः समूचे परिदृश्य को समेट लेना चाहता है इस अर्थ में कि कहानी जिन्दा रहने के मानवीय संघर्ष को ही तो अपनी खास विधागत काया में रूपायित करती है, बल्कि कहानी ही क्यों यह यो साहित्य मात्र का सहज गुणधर्म है, फिर इस कथन का आनन्द हत की कहानियों के परिप्रेक्ष्य में क्या और कितना विशिष्ट अर्थ है। क्या कहानियाँ मानवीय संघर्ष को किसी खास अन्दाज में देखती है, जिससे उनके अनुभव-संसार में कुछ विशिष्ट पटित होता नजर आता है? अपनी दुनिया से वंचित हो जाने के एहसास- तले दबे हुए पात्र क्या सचमुच उसे दुबारा हासिल करने, उसमें रहने और सोचने की जुगत करते हुए जिन्दा रहने की कोशिश करते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अस्तित्व का यह संघर्ष उनके जीने की शैली को अनायास ही एक अतिरिक्त गरिमा देने की लेखकीय आकांक्षा से प्रतिफलित होता है-जैसा कि अनेक जन-संघर्षवादी कहानियों में देखने में आता है? या फिर जीवन के सहज बंद में उनका संघर्ष साकार होता है जिसे लेखक अपने सर्जनात्मक उलन के बीच खोज पाता है?

आनन्द के पात्रों का इस तरह जीना दरअसल अपनी दुनिया में जीना नहीं है. अपनी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा रोज-प-रोग वे किसी और की दुनिया में जीने के लिए मजबूर हैं. इसलिए उनकी दुनिया रोग स्थगित होती है

और अपने भीतर वे उसे फिर-फिर आविष्कृत करते हैं, उनके लिए जीने का वास्तविक अर्थ है-अपनी दुनिया को बार-बार खोना और पाना खोने और पाने का यह सिलसिला उनका दैनंदिन पदार्थ बनता है. गौरतलब है कि ये पात्र अपने इस पदार्थ के प्रति – दूसरे शब्दों में कहें तो जिन्दा रहने की जद्दोजेहद को लेकर यत्किचित सजग है उनके भीतर अपनी जीवन-स्थितियों को लेकर बेचैनी है, हालांकि ये कोई मुखर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते लेकिन उनके व्यवहार में एक और भयाकुलता और दूसरी ओर प्रतिरोधकता का अन्दस्ली उडेलन बहुत सूक्ष्म स्तर पर सक्रिय होता है. अपने सहज दैनंदिन संघर्ष में आकार पाती उनकी प्रायः जाने-पहचाने से, पनाहीन किस्स के यथार्थ की रचना करती है इस पदार्थ की नहीं उड़ती है और उनके पेड़ अपने आवेग में उन्हें सरहद से पर फेंक देने को अनिवासी चरित्र है चेष्टा करते हैं, ये दृश्य के हाशिये की तरफ धकेल दिये जाते हैं लेकिन बारवार एक नियमित यातना का पता स्पर्श पाकर सीट आते अपने स्वस्थ सीमांत के भीतर जहाँ कमतर होने का महीन-सा एहसास उन्हें चौतरफ पेरता से बाहर आने की कोई तात्कालिक युक्ति उनके पास नहीं है, यथास्थिति के प्रति यह सजगता आनन्द की कहानियों में जीने के संघर्ष को एक विशिष्ट भागमा देती है, उनके पात्र प्रायः सजग, किन्तु विवश पात्र हैं, सजगता उन्हें ताकत देती है विवशता उन्हें कमजोर करती है, ये सजगता और विवशता के आन्तरिक द्वन जीने वाले पात्र हैं. नयी कहानी के चरित्रों की तरह न तो अनुभववाद के आत्मविवश बन्धनों में कैद है और न ही वे जनवादी या समान्तर कहानी के मायकों की तरह अपने संघर्ष को गौरवान्थित करते दिखाई देते हैं. ये किसी साँचे में ढले, इकहरे और रीतिबद्ध पात्र नहीं है.

-जयप्रकाश

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