Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2025: अभिव्यक्ति की आज़ादी और उसके खतरे

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

सतही या नजरी आंकलन से या कहें कि टेबल के उस पार से देखने से लगता है कि इस समय सोशल मीडिया के ज़रिये अभिव्यक्ति की जो आज़ादी है, वैसी आजादी ना मीडिया के पास और पहले कभी नहीं थी। हालांकि, ये आज़ादी उस गंभीर अभिव्यक्ति के लिए तो क़तई नहीं है जो मीडियाकर लोगों को मिली है। ये दौर ठकुर सुहाती का है। सत्ता पर कोई भी क़ाबिज़ हो उसे अपनी प्रशस्ति अच्छी लगती है। वर्तमान समय और पहले भी सच बोलने का हश्र ऐसा ही था जैसा कबीर, सुकरात के समय था।
सांची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।
साधो, देखो जग बौराना।
मीडिया की इतनी दुर्दशा, इतनी बेइज्जती, चारित्रिक और नैतिक गिरावट इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। पहले मीडिया की ताकत से सत्ता डरती थी। आठवें दशक के बाद सत्ता के चरित्र में तेजी से बदलाव आया और मीडिया को डराने-धमकाने और चाटुकार बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। बड़े-बड़े उद्योगपति मीडिया की ताकत, मीडिया का रौब और प्रभाव देखकर मीडिया को भी उद्योग का एक हिस्सा बनाकर इस क्षेत्र में दाखिल हुए। सस्ती जमीन लेना और मीडिया का प्रभाव या रौब दिखाकर दूसरे व्यापारिक हित साधने के लिए अखबार और खास करके न्यूज़ चैनल का इस्तेमाल शुरू हुआ। यहीं से मीडिया का पतन भी शुरू हुआ। मीडिया में आई यह गिरावट और भ्रष्ट आचरण को सत्ता ने जल्दी भांप लिया और मीडिया को विज्ञापन देने या खुशामद करने की अपेक्षा डराने-धमकाने, छापे डालने का काम शुरू किया। उसके बाद तो मीडिया जैसे सत्ता के चरणों में लोटने लगी। मीडिया घरानों में जो ईमानदार थे वे झुके नहीं, लेकिन उनके चैनल खरीदे गए और ईमानदार पत्रकार हाशिये पर डाल दिए गए। ऐसे समय में ईमानदारी, साहस और नैतिकता क्षेत्रीय अखबारों और छोटे चैनलों में बची रही, क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है।
अपनी बात कहने के लिए पहले पूंजी की इतनी ज़रूरत नहीं थी, जितनी अब है। टेक्नोलॉजी के इस दौर में बड़ी और कारपोरेट पूंजी की महिमा है। मीडिया अब बड़ी पूंजी का खेल है। बड़े-बड़ेे कारपोरेट समूह अब मीडिया टाईकून है। मीडिया, पूंजी और सत्ता का ऐसा गठजोड़ पहले कभी नहीं था जैसा अब है। अब संपादकीय, टीबी डिबेट से लेकर सुबह से दिखने वाली खबरें, अख़बारों के मुखपृष्ठ कहीं और से तय होते हैं। दिनभर दिखने वाली खबरों को देखकर लगता है –
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है, क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा।
मीडिया जिस तेज़ी से बदल रहा है और उसके सामाजिक सरोकार बदल रहे हैं ऐसे में जन पक्षधरता की बात करने वाले मीडिया समूह पत्रकार कम बचे हैं। हर साल 3 मई को मनाए जाने वाला विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर पत्रकारों की उस अदम्य हिम्मत को सलाम करते हैं, जो सत्य को उजागर करने के लिए युद्ध के मैदानों से लेकर डिजिटल ट्रोलिंग और कानूनी दबावों तक का सामना करते हैं। यह दिन न केवल प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करता है, बल्कि उन चुनौतियों को भी सामने लाता है जो पत्रकारिता को लोकतंत्र की रीढ़ बनाए रखने में बाधा डालती है। यह भी कम शर्म की बात नहीं है कि 2025 में, जब विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 151वें स्थान पर है और वैश्विक स्तर पर प्रेस स्वतंत्रता अपने निम्नतम स्तर पर है। यह समय है कि हम अभिव्यक्ति की आज़ादी के महत्व और इसके समक्ष खतरों पर गंभीरता से विचार करे।
2025 की थीम में अब एआई और पत्रकारिता का दोहरा प्रभाव है। इस वर्ष विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की थीम रिपोर्टिंग इन ए ब्रेव न्यू वल्र्ड: दी इम्पैक्ट आफ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आन प्रेस फ्रीडम एंड द मीडिया कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के पत्रकारिता पर दोहरे प्रभाव को उजागर करती है। एक ओर एआई डेटा विश्लेषण और खोजी पत्रकारिता में सहायक बन रहा है, वहीं दूसरी ओर डीपफेक, फर्जी खबरें और स्वचालित ट्रोलिंग ने पत्रकारों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। भारत में जहां डिजिटल मीडिया तेजी से बढ़ रहा है, डीपफेक और फर्जी खबरों का प्रसार न केवल पत्रकारों के लिए चुनौती है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी कमजोर कर रहा है। प्रत्येक राजनीतिक दल अब ऐसी एजेंसी को हायर कर रहे हैं जो डिप फेक न्यूज़, रील्स और वीडियो बनाकर वायरल करने की जिम्मेदारी भारी राशि लेकर करते हैं। इस तरह की खबरों से और वीडियो वायरल करके राजनीतिक दल एक-दूसरे की छवि खराब करते हैं और अब यह किसी से छुपा नहीं रहा है। जिनका हाल ही में खुलासा हुआ है। नेस्को की चेतावनी है कि एआई के दुरुपयोग से प्रेस स्वतंत्रता और सूचना के मुक्त प्रवाह पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2025 के अनुसार, भारत 180 देशों में 151वें स्थान पर है, जो 2024 के 159वें स्थान से मामूली सुधार दर्शाता है। हालांकि, यह सुधार भ्रामक है, क्योंकि भारत का स्कोर 31.28 तक गिर गया है, और रैंकिंग में उछाल अन्य देशों के खराब प्रदर्शन का परिणाम है। आरएसएफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पत्रकारों को कानूनी, राजनीतिक और आपराधिक दबावों का सामना करना पड़ता है। कश्मीर जैसे क्षेत्रों में पत्रकारों को सुरक्षा बलों की ओर से उत्पीडऩ और हिरासत का सामना करना पड़ता है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि 1992 से 2024 तक भारत में 116 पत्रकारों की हत्या हुई, जिसमें 2024 में 3 पत्रकारों की जान गई।
वैश्विक स्तर पर नॉर्वे, डेनमार्क और स्वीडन शीर्ष तीन स्थानों पर हैं, जहां मजबूत कानूनी और सामाजिक ढांचा प्रेस स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है। इसके विपरीत, चीन (172वां), इरीट्रिया (180वां), और बांग्लादेश (165वां) सेंसरशिप और हिंसा के कारण सबसे निचले पायदान पर हैं। दक्षिण एशिया में नेपाल (76वां) अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है, जबकि पाकिस्तान (158वां) भारत से पीछे है। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि प्रेस स्वतंत्रता वैश्विक स्तर पर एक असमान लड़ाई है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के प्रतिबंध इसे सीमित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार प्रेस स्वतंत्रता की वकालत की है, लेकिन जमीनी हकीकत चिंताजनक है। दूरसंचार अधिनियम 2023 और डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट 2023 ने डिजिटल मीडिया पर नियंत्रण बढ़ाया है। यूएपीए और राजद्रोह जैसे कानूनों का दुरुपयोग पत्रकारों को डराने के लिए किया जाता है। 2025 में वायपीएम यूट्यूब न्यूज़ चैनल पर प्रतिबंध और कश्मीर टाइम्स जैसे स्थानीय अखबारों पर दबाव इसकी मिसाल है।
कॉरपोरेट्स द्वारा मीडिया हाउसेज का अधिग्रहण और विज्ञापनों पर निर्भरता ने स्वतंत्र पत्रकारिता को कमजोर किया है। छोटे और क्षेत्रीय मीडिया हाउसेज फंडिंग की कमी से जूझ रहे हैं, जबकि पत्रकार कम वेतन और अस्थायी नौकरियों में काम करने को मजबूर हैं। सोशल मीडिया पर पत्रकारों को टीआरपी-हंग्री और बायस्ड कहकर निशाना बनाया जाता है, जिससे उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं। साइबर हमले और ट्रोलिंग ने पत्रकारों, खासकर महिला पत्रकारों के लिए मानसिक दबाव बढ़ाया है। भारत मीडियाकर्मियों के लिए सबसे खतरनाक देशों में से एक माना जाता है। कश्मीर और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकारों को हिंसा और हिरासत का सामना करना पड़ता है। युद्ध क्षेत्रों में पत्रकारिता किसी सैनिक की बहादुरी से कम नहीं है। गाजा, यूक्रेन और सूडान जैसे संघर्ष क्षेत्रों में पत्रकार बमबारी, क्रॉसफायर, और लक्षित हमलों के बीच सत्य को सामने लाते हैं। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में 124 पत्रकार मारे गए, जिनमें 85 गाजा में शहीद हुए। आईएफजे ने 147 फिलिस्तीनी पत्रकारों की मौत का आंकड़ा दर्ज किया, जो पत्रकारिता के इतिहास में अभूतपूर्व है। गाजा में अल जज़ीरा के पत्रकार इस्माइल अल-घूल और रामी अल-रिफी ड्रोन हमलों में मारे गए, जबकि विदेशी पत्रकारों पर प्रवेश प्रतिबंध और इंटरनेट ब्लैकआउट ने कवरेज को और मुश्किल बनाया।
गाजा में अधिकांश पत्रकारों के पास बुलेटप्रूफ जैकेट या हेलमेट तक नहीं थे। युद्ध की भयावहता और परिवार की चिंता पत्रकारों को पीटीएसडी और अवसाद की ओर धकेल रही है। रूस और गाजा में पत्रकारों पर कठोर प्रतिबंध लगाए गए हैं। भारत को भी ऐसे ही देशों से प्रेरणा मिल रही है। इंटरनेट कटौती और उपकरणों की कमी ने रिपोर्टिंग को लगभग असंभव बना दिया।
यूनेस्को के अनुसार, 2006-2024 के बीच 85 प्रतिशत पत्रकार हत्याओं के मामले अदालत तक नहीं पहुंचे। यूनेस्को की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरण पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों पर हमले 2019-2023 के दौरान 42फीसदी बढ़े, क्योंकि वे अवैध खनन और कॉरपोरेट अनियमितताओं को उजागर करते हैं। लैटिन अमेरिका में 2024 में 12 पत्रकारों की हत्या ने इसे सबसे खतरनाक क्षेत्र बना दिया। चीन में सख्त सेंसरशिप और गिरफ्तारियां प्रेस को दबाती हैं, जबकि अमेरिका में सार्वजनिक प्रसारकों की फंडिंग में कटौती ने स्वतंत्र पत्रकारिता को कमजोर किया है।
पत्रकारों पर डिजिटल दबाव भी बढ़ रहा है। साइबर हमले, निगरानी और ट्रोलिंग ने पत्रकारों की स्वतंत्रता को सीमित किया है। आरएसएफ की 2025 की रिपोर्ट में आर्थिक संकट को भी रेखांकित किया गया है, जहां टेक दिग्गजों (गूगल, फेसबुक) का विज्ञापन बाजार पर कब्जा और कॉरपोरेट अधिग्रहण ने स्वतंत्र पत्रकारिता को कमजोर किया है। इन चुनौतियों के बावजूद, कुछ सकारात्मक पहल प्रेरणा देती हैं। यूनेस्को का 2025 गिलर्मो कैनो प्रेस फ्रीडम पुरस्कार निकारागुआ के लॉ पें्रस अखबार को दिया गया जो तानाशाही के खिलाफ पत्रकारिता की मिसाल है। भारत में डिजिटल प्लेटफॉम्र्स और स्वतंत्र पत्रकार सत्य को सामने लाने में जुटे हैं।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2025 हमें याद दिलाता है कि पत्रकारिता केवल खबरें नहीं, बल्कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। गाजा की बमबारी से लेकर भारत के कानूनी दबाव और एआई की डीपफेक चुनौतियों तक पत्रकार हर मोर्चे पर डटकर मुकाबला कर रहे हैं। आरएसएफ की 2025 की रिपोर्ट में प्रेस स्वतंत्रता के सबसे बुरे दौर की बात कही गई है जो काफी हद तक सही भी है लेकिन कुछ साहसी और ईमानदार पत्रकारों का जज्बा और स्वतंत्र मीडिया की ताकत हमें उम्मीद देती है। अभिव्यक्ति की आज़ादी को बचाने के लिए समाज, सरकार और नागरिकों को मिलकर पत्रकारों की सुरक्षा, स्वतंत्रता, और गरिमा सुनिश्चित करनी होगी।

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