-सुभाष मिश्र
भारत की राजनीति में धर्म और जाति का सबसे ज़्यादा प्रभाव है। यही वजह है कि शिक्षा के विस्तार के बावजूद धर्म और राजनीति का प्रभाव कम होने का नाम नहीं ले रहा है। पहले स्लोगन था जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, फिर कांग्रेस ने इसके उल्टा कहा कि जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी। हिन्दुत्व के एजेंडे पर सवार भाजपा को जवाब देने के लिए जातिगत जनगणना की वकालत समूचा विपक्ष करता रहा है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी केंद्र सरकार ने लंबे समय तक जातिगत गणना का विरोध किया, लेकिन अचानक 30 अप्रैल 2025 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अगली जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का ऐतिहासिक फैसला लिया। इस अचानक बदलाव के पीछे कई राजनीतिक, सामाजिक और रणनीतिक कारण है। भाजपा के इस चौंकाने वाले फ़ैसले के पीछे 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में अप्रत्याशित नुकसान को देखा जा रहा है। विपक्ष, खासकर कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों ने जातिगत गणना को अपने चुनावी अभियान का प्रमुख मुद्दा बनाया था, जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच भाजपा की विश्वसनीयता पर सवाल उठे। विपक्षी दलों, विशेष रूप से राहुल गांधी और कांग्रेस, ने जातिगत गणना को सामाजिक न्याय का एक्स-रे बताकर इसे सामाजिक समानता का मुद्दा बनाया। इससे जनता में यह धारणा बनी कि भाजपा ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों के हितों की अनदेखी कर रही है। भाजपा को यह एहसास हुआ कि जातिगत गणना का विरोध करने से उसका ओबीसी और निचली जातियों का वोट बैंक, जिसे उसने पिछले एक दशक में हासिल किया था, खिसक सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा हिंदुत्व की छतरी में दरार और ओबीसी वोटों का खिसकने को भी एक बड़ी वजह बताई जा रही है।
भाजपा ने पिछले दशक में हिंदुत्व की विचारधारा के तहत ऊपरी जातियों के साथ-साथ ओबीसी, दलित और आदिवासी वोटों को एकजुट किया था। हालांकि, 2024 के चुनावों में ओबीसी और दलित वोटों का एक हिस्सा विपक्ष की ओर खिसक गया, खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां सपा और कांग्रेस ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को लुभाया। जातिगत गणना का विरोध करने से यह संदेश गया कि भाजपा ऊपरी जातियों के हितों को प्राथमिकता दे रही है, जिससे ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों में असंतोष बढ़ा। इस बदलाव से भाजपा ने अपनी छवि को सभी हिंदुओं की पार्टी के रूप में बनाए रखने की कोशिश की।
यदि हम इस निर्णय के पीछे की राज्यवार राजनीति की बात करें तो विपक्षी राज्यों में जातिगत सर्वेक्षण और दबाव एक कारण समझ में आता है। बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे विपक्षी शासित राज्यों ने अपने स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण शुरू किए, जिससे केंद्र पर दबाव बढ़ा। ये सर्वेक्षण गैर-पारदर्शी बताए गए, और केंद्र ने तर्क दिया कि एक राष्ट्रीय स्तर की पारदर्शी गणना बेहतर होगी। बिहार में नीतीश कुमार (जदयू), जो भाजपा के सहयोगी हैं, ने जातिगत गणना को बढ़ावा दिया। बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए भाजपा नहीं चाहती थी कि राजद और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे पर श्रेय लें।
जातिगत जनगणना के मामले में आरएसएस का समर्थन और रणनीतिक बदलाव भी एक वजह है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जो भाजपा का वैचारिक आधार है, ने सितंबर 2024 में जातिगत गणना का समर्थन किया, बशर्ते इसे राजनीतिक हथियार न बनाया जाए। आरएसएस ने इसे सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक बताया। 30 अप्रैल 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात के बाद यह फैसला लिया गया, जो दर्शाता है कि यह रणनीति संगठन के साथ विचार-विमर्श का नतीजा थी।
भाजपा और मोदी सरकार द्वारा कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर जितने दावे किये जा रहे थे, पहलगाम आतंकवादी हमले ने उनकी सच्चाई सबके सामने ला दी। उल्टे इस मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम बनाने की तमाम कोशिशें भी कश्मीरियत के सामने फेल हो गईं। विपक्ष जातिगत जनगणना को प्रमुख मुद्दे के रूप में उठाता रहा है इसको कमजोर करने की रणनीति के रूप में भी इसे देखा जा सकता है। जातिगत गणना विपक्ष, खासकर कांग्रेस का प्रमुख चुनावी मुद्दा था। इस फैसले से भाजपा ने विपक्ष के इस हथियार को कुंद कर दिया और इसे अपनी उपलब्धि के रूप में पेश किया।
केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मंत्री मंडल के फैसलों की जानकारी प्रेस को देते हुए कहा की कांग्रेस ने अपने शासनकाल में जातिगत गणना नहीं की और इसे केवल राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया। इससे भाजपा ने नैरेटिव को अपने पक्ष में करने की कोशिश की।
बिहार, जहां 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं, सामाजिक न्याय की राजनीति का केंद्र रहा है। नीतीश कुमार और भाजपा की गठबंधन सरकार के लिए जातिगत गणना का समर्थन करना ओबीसी और ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) वोटों को बनाए रखने के लिए जरूरी था। बिहार में पहले ही जातिगत सर्वेक्षण हो चुका है, और भाजपा नहीं चाहती थी कि विपक्ष इसे राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा मुद्दा बनाए। विपक्षी दल, विशेष रूप से कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), राजद, और द्रमुक, इस फैसले को अपनी जीत के रूप में देख रहे हैं। क्योंकि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा और 2024 के चुनावों में जातिगत गणना को प्रमुखता से उठाया। कांग्रेस ने इसे अपने घोषणापत्र में शामिल किया और 50फीसदी आरक्षण की सीमा हटाने का वादा किया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने दावा किया कि उनकी सरकार का जातिगत सर्वेक्षण राष्ट्रीय नीति को प्रेरित करने वाला था। विपक्ष का तर्क है कि भाजपा ने उनके निरंतर दबाव और 2024 के चुनावी नुकसान के बाद यह फैसला लिया। कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहा कि यह राहुल गांधी की दृष्टि की जीत है।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इसे पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक की एकता की जीत बताया। विपक्ष का मानना है कि यह फैसला सामाजिक न्याय की उनकी राजनीति को मजबूत करता है, जो ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों को लामबंद करने का आधार देता है।
जातिगत गणना भारत की सामाजिक और राजनीतिक संरचना के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है इसके ज़रिए सामाजिक न्याय और नीति निर्माण में आसानी होगी। जातिगत गणना से विभिन्न जातियों की जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शैक्षिक स्तर का सटीक डेटा मिलेगा। यह डेटा कल्याणकारी योजनाओं, आरक्षण नीतियों और सामाजिक समावेशन को बेहतर बनाने में मदद करेगा। यह विशेष रूप से ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों के लिए लक्षित नीतियां बनाने में सहायक होगा, जो अभी तक अनुमानित डेटा पर आधारित है। गणना से ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों की वास्तविक जनसंख्या का पता चलेगा, जिससे आरक्षण कोटा (वर्तमान में 27 फीसदी ओबीसी, 15 फीसदी एससी, 7.5 फीसदी एसटी) पर पुनर्विचार हो सकता है।
यह 50फीसदी आरक्षण की सीमा को हटाने या संशोधित करने की मांग को बल दे सकता है, जैसा कि विपक्ष ने वादा किया है। यह जनगणना सामाजिक समीकरणों में बदलाव का मार्ग भी प्रशस्त करेगी। यह गणना उत्तरी राज्यों (जैसे यूपी, बिहार) में ओबीसी की स्थिति को और स्पष्ट करेगी जहां उनकी जनसंख्या अधिक है। इससे दक्षिणी राज्यों के साथ सीट वितरण पर बहस प्रभावित होगी। यह ऊपरी जातियों और निचली जातियों के बीच शक्ति संतुलन को बदल सकता है, जिससे सामाजिक तनाव भी बढ़ सकता है।
केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि राज्य-स्तरीय सर्वेक्षणों में पारदर्शिता की कमी थी। राष्ट्रीय स्तर की गणना से एक विश्वसनीय और एकीकृत डेटा सेट तैयार करना।
जातिगत गणना भारत की राजनीति को कई तरह से प्रभावित कर सकती है। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों ने ओबीसी को राजनीतिक रूप से सशक्त किया और क्षेत्रीय दलों (जैसे सपा, राजद, जदयू) को मजबूत किया। जातिगत गणना मंडल राजनीति को फिर से जीवंत कर सकती है, जिससे ओबीसी-केंद्रित दल और विपक्षी गठबंधन को फायदा हो सकता है। इससे क्षेत्रीय दलों को नया मुद्दा मिलेगा, जो भाजपा के हिंदुत्व नैरेटिव को चुनौती दे सकता है। भाजपा इस गणना का उपयोग ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों को लक्षित कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए कर सकती है। यह गैर-प्रमुख ओबीसी (जैसे कुरमी, राजभर) और गैर-जाटव दलितों (जैसे पासी, वाल्मीकि) को लुभाने की रणनीति को और मजबूत करेगा। हालांकि, यदि गणना से ओबीसी की जनसंख्या अनुमान से अधिक निकलती है, तो यह आरक्षण और प्रतिनिधित्व की मांग को बढ़ाएगा, जिसे संभालना भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
भाजपा की हिंदुत्व विचारधारा सभी हिंदुओं को एकजुट करने पर आधारित है, लेकिन जातिगत गणना जाति आधारित पहचान को मजबूत कर सकती है, जिससे हिंदू एकता का नैरेटिव कमजोर पड़ सकता है। यूपी के हालिया उपचुनावों (2024) में भाजपा ने बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों के साथ हिंदुत्व और गैर-यादव ओबीसी/दलित गठजोड़ को मजबूत किया, जिससे यह संकेत मिलता है कि वह जाति और हिंदुत्व को संतुलित करने की कोशिश करेगी।
विपक्ष, खासकर कांग्रेस, सपा और राजद, इस गणना को सामाजिक न्याय के लिए अपनी जीत के रूप में प्रचारित करेगा। यदि गणना के परिणाम ओबीसी और दलितों की बड़ी आबादी को दर्शाते हैं तो यह विपक्ष को इन समुदायों को लामबंद करने का अवसर देगा। हालांकि, विपक्ष को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह इस मुद्दे को जमीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से उठाएं जैसा कि 2024 के चुनावों में देखा गया कि केवल नारे पर्याप्त नहीं है।
जातिगत गणना से ऊपरी जातियों में यह डर पैदा हो सकता है कि ओबीसी और अन्य समुदायों को अधिक आरक्षण या लाभ मिलेगा। जिससे भाजपा का पारंपरिक ऊपरी जाति वोट बैंक असंतुष्ट हो सकता है। हालांकि, भाजपा का दावा है कि उसकी हिंदुत्व विचारधारा और सामाजिक इंजीनियरिंग इस जोखिम को कम करेगी। गणना से उत्तरी राज्यों में ओबीसी की बड़ी आबादी का खुलासा होने पर संसदीय सीटों के पुनर्गठन पर बहस तेज होगी। दक्षिणी राज्य, जहां जनसंख्या वृद्धि कम है, इसे अपने प्रतिनिधित्व के लिए खतरे के रूप में देख सकते हैं। बिहार, यूपी, और अन्य हिंदी बेल्ट राज्यों में जातिगत गणना 2025 और उसके बाद के चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा होगी। यह विपक्ष को ओबीसी और दलित वोटों को एकजुट करने का अवसर देगा लेकिन भाजपा भी इसे अपनी कल्याणकारी योजनाओं और हिंदुत्व के साथ संतुलित करने की कोशिश करेगी।
यदि गणना समय पर पूरी होती है तो इसके परिणाम 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। केंद्र ने गणना की समयसीमा स्पष्ट नहीं की है। 2021 की जनगणना कोविड-19 के कारण स्थगित हो गई थी और नई जनगणना कब शुरू होगी, यह अभी अस्पष्ट है। विपक्ष ने इस पर सवाल उठाए हैं। यह संभव है कि भाजपा इस घोषणा को केवल राजनीतिक ऑप्टिक्स के लिए इस्तेमाल कर रही हो।
विपक्ष को इस मुद्दे को जमीनी स्तर पर ले जाना होगा, जबकि भाजपा को हिंदुत्व और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन बनाना होगा। एक्स पर कुछ पोस्ट में दावा किया गया कि भाजपा ने हमेशा जातिगत गणना का समर्थन किया, लेकिन यह भ्रामक है। 2014 से पहले भाजपा ने इसका समर्थन किया था, लेकिन 2021-2023 में केंद्र ने इसका विरोध किया। भाजपा का जातिगत गणना पर रुख में बदलाव एक रणनीतिक कदम है जो 2024 के चुनावी नुकसान, विपक्ष के दबाव, और ओबीसी वोटों को बनाए रखने की जरूरत से प्रेरित है। विपक्ष इसे अपनी जीत मान रहा है, क्योंकि उसने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उभारा। जातिगत गणना सामाजिक न्याय को मजबूत कर सकती है, लेकिन यह मंडल राजनीति को पुनर्जनन दे सकती है और हिंदुत्व के नैरेटिव को चुनौती दे सकती है।
गणना से सामाजिक तनाव बढ़ सकता है, खासकर यदि कुछ जातियों को अपेक्षा से कम या अधिक प्रतिनिधित्व मिलता है। आरएसएस ने चेतावनी दी है कि इसे राजनीतिक हथियार नहीं बनाना चाहिए, लेकिन विपक्ष और क्षेत्रीय दल इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश करेंगे। जनता को गणना की प्रक्रिया और परिणामों की पारदर्शिता पर नजर रखनी चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि डेटा का दुरुपयोग न हो। भविष्य में यह यूपी, बिहार जैसे राज्यों में राजनीतिक समीकरणों को बदल सकता है, लेकिन इसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि गणना कब और कैसे लागू होती।