Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – पावर शिफ्ट के कईं अर्थ हैं

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

दिल्ली में रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने अपनी चौंका देने वाली कथित परंपरा को कायम रखा है। भाजपा का रेखागणित, महिला वोटरों का लुभाने की कवायद क्या है, इस पर अलग ये बात की जायेगी। फिलहाल दिल्ली की इस चौंकाने वाली पुनरावृति से कईं तरह की बातें सामने आई हैं। ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि यह लोगों को चौंका देने का एक कौतुक भर है। इसके पीछे एक सोची-समझी राजनीति और मन:स्थिति भी है। यह भारतीय राजनीति में कोई नई बात भी नहीं है। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीतिक रणनीति को लेकर अनेक निर्णय पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी की तरह लेने लगे हैं। इस तरह के लिए जा रहे निर्णयों की प्रेरणा उन्हें इंदिरा गांधी से मिली है। 70 के दशक में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही अपनी ही पार्टी के प्रभावी और शक्तिशाली राजनीतिज्ञों को कमजोर करने के लिए एक रणनीति अपनाई थी, जिसके तहत केंद्र या राज्यों से अपेक्षाकृत नए और राजनीतिक पटल पर लगभग बैक-बेंचर्स रहने वाले राजनीतिज्ञों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी बल्कि राज्यों के मुख्यमंत्री तक बनाया गया था। उस समय कर्नाटक में गुंडू राव, राजस्थान में जगन्नाथ पहाडिय़ा और महाराष्ट्र में ए आर अंतुले को मुख्यमंत्री बनाया गया था और आमजन से लेकर पूरे राजनीतिक हलकों को चौंका दिया था। जाहिर है कि इंदिरा गांधी का उद्देश्य सिर्फ चौंका देने का नहीं था। वह राज्य या केंद्र में कोई ताकतवर चेहरा नहीं देखना चाहती थी। उस समय से राजनीति में पैदा हुआ यह एक ऐसा डर है जो लगातार बढ़ता चला गया है लेकिन लगभग 50 साल से अधिक बीत जाने के बाद जब इस तरह की राजनीतिक घटनाएं फिर होने लगीं तो राजनीति और आमजन में कई पीढिय़ों का अंतर आ गया है और लंबा अंतराल बीतने के कारण लोग इतिहास को भूल गए हैं और लोग एकाएक चौंक गए।

2014 में भाजपा जब बड़े बहुमत के साथ केंद्र में आई थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस पुरानी लेकिन कारगर रणनीति को फिर से अपनाया और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाकर चौंका दिया। हरियाणा के ताकतवर और बेहद सक्रिय नेता रामविलास शर्मा, कैप्टन अभिमन्यु, ओमप्रकाश धनखड़ और अनिल विज जैसे नेताओं को पीछे धकेल कर चौंका दिया। आमजन ही नहीं पीछे धकेल दिए गए ये नेता भी चौंक गए। लेकिन यह क्रम यही नहीं रुका बल्कि यह परंपरा और आगे बढ़ी और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनाए गए। इसी तरह 2017 में उत्तर प्रदेश में आमजन और राजनीतिक जानकारों के साथ ही खुद केशव प्रसाद मौर्य को भी यह भरोसा था कि वे मुख्यमंत्री बनेंगे क्योंकि वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी थे। मनोज सिन्हा का नाम भी चर्चा में था लेकिन सहसा योगी आदित्यनाथ के नाम की घोषणा हो गई थी। 2023 में मध्य प्रदेश में भी यही दोहराया गया। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कैलाश विजयवर्गीय में से किसी एक के नाम की मीडिया से लेकर जनता तक में अनुमान की हवा थी कि कोई एक मुख्यमंत्री बनेगा, लेकिन सहसा सबको चौंकाते हुए मोहन यादव मुख्यमंत्री बना दिए गए। इसी तरह राजस्थान में भी भजन लाल शर्मा और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय मुख्यमंत्री बनाए गए। हाल ही में 2024 में हरियाणा चुनाव में अचानक मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया जबकि इस बार भी अनिल विज को उम्मीद थी कि वे मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे। अब दिल्ली में प्रवेश वर्मा जो पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे हैं और दिल्ली के सबसे सक्रिय और प्रभावी भाजपा नेता हैं, उनको पीछे छोड़कर रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया गया है। प्रवेश वर्मा ही नहीं और अनेक लोग इस रेस में थे जो नरेंद्र मोदी द्वारा रेखा गुप्ता के चयन से सिर्फ चौंके ही नहीं हैं बल्कि बेहद हताश और दुखी हैं।

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यह कोई अब रहस्य नहीं रह गया है कि राजनीति में कोई सिर्फ जन सेवा के लिए नहीं आता है। पद और पावर की लालसा ही व्यक्ति को महत्वाकांक्षी बनाती है। वह अपने पार्टी की कथित सेवा इसीलिए करता है कि उसकी इस मेहनत, सेवा और समर्पण का प्रतिफल उसे एक दिन बड़े पद के रूप में मिलेगा। प्राय: ऐसा होता भी आया है। व्यक्ति को उसकी मेहनत, समर्पण और सेवा का प्रतिफल दिया जाता है। इसी से बाकी कार्यकर्ताओं में भी काम करने का जोश पैदा होता है और पार्टी के प्रति निष्ठा कायम रहती है। इंदिरा गांधी की ऐसे ही रणनीति के कारण कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ था, लेकिन ऐसा सिर्फ राजनीति में ही संभव है। केंद्र में ऊपर बैठे ताकतवर राजनीतिज्ञ रणनीति को तो कारगर और सेफ मानते हैं, लेकिन अतीत के परिणामों को भूल जाते हैं। हालांकि, राजनीतिक विशेषज्ञों और अधिकांश राजनीतिज्ञों का भी ऐसा मानना है कि भाजपा में इस परंपरा की इतनी दूर और देर तक जाने की उम्मीद नहीं थी, क्योंकि भाजपा से जुड़ा हुआ संघ जैसा ताकतवर सहयोगी दल है जिसका पार्टी में दखल है, लेकिन इसके उपरांत ऐसा हुआ है यह केंद्र की ताकत को ही बताता है। हालांकि यह कोई अच्छे संकेत नहीं हैं। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। कहते हैं कि इतिहास का एक चक्र होता है और यह हर बार पूरा होता है। जब घर-परिवार या प्रशासन में मेहनत, सेवा और समर्पण की अनदेखी का असर उनके कार्य और परिणाम पर पड़ता है तो राजनीति में अनदेखी और उपेक्षा का असर ज्यादा बढ़ेगा। व्यक्ति को अपनी मेहनत, सेवा, समर्पण और विशेष कर निष्ठा की उपेक्षा गहरी हताशा और दुख देती है। हताशा और दुख आगे चलकर गुस्से में बदलता है और यहीं से विद्रोह का जन्म होता है। खासकर ऐसे लोगों को जो लंबे समय से पार्टी के निष्ठावान, समर्पित और सक्रिय नेता होते हैं। इतने लंबे समय की सेवा और समर्पण की अनदेखी को वे अपमान भी समझते हैं। पार्टी के दूसरे कार्यकर्ताओं को भी यह संदेश जाता है कि ऐसा किसी के साथ भी घटित हो सकता है।
हालांकि, इस मुद्दे पर भी कई तरह की बातें हैं। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह वही डर है जिसके तहत सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए राजनीतिज्ञों को लगता है कि नीचे से ऊपर आ रहे लोगों की ताकत को बढऩे नहीं दिया जाए। कल को ये लोग उन्हें हटा सकते हैं लेकिन यह बात पूरी तरह स्वीकार नहीं की जा सकती है। यह भी संभव है कि यह पावर शिफ्ट है। यह पुराने राजनीतिज्ञों से सत्ता लेकर युवा लोगों को सौंपना है। इस तरह की पावर शिफ्ट में जाति के गणित भी देखे जा रहे हैं, क्योंकि भाजपा पहले ब्राह्मण और बनियों की पार्टी मानी जाती थी, लेकिन अब वहां ओबीसी और अनुसूचित जाति और आदिवासी जनजाति का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है तो पावर शिफ्ट को इस नजरिए से भी देखा जा सकता है ।

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