Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से – मोहन भागवत की चेतावनी और मंदिर-मस्जिद का हल

Editor-in-chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

अभी कुछ दिनों पहले अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती के अवसर पर पटना में एक महिला कलाकार द्वारा गांधीजी का प्रिय और प्रसिद्ध भजन गाया जा रहा था, जिसमें ईश्वर अल्लाह तेरे नाम पंक्ति पर दर्शकों के बीच खूब हल्ला मचा, विरोध हुआ। अंतत: गायिका को माफी मांगनी पड़ी। सहिष्णुता और सांप्रदायिकता की जिद अब उन्माद में बदल रही है, ऐसी असहिष्णुता हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति में कहीं दर्ज नहीं है। हिंदू धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ गीता में कहा गया है कि ये यथा मां प्रपद्यन्यते, तांस्तथैव भजाम्यहम् जिस व्यक्ति ने जिस आस्था या श्रद्धा से मेरा स्मरण किया है। मेरी शरण में आया है। मैं उसको उसी रूप में अपना लेता हूं या उसके साथ वैसा ही व्यवहार करता हूं। फिर विचारणीय प्रश्न यह है कि यह घृणा किस ग्रंथ या किस विचार-सरणि से बाहर आई है। यह तो तय है कि कोई भी राजनीतिक दल हो वह घृणा का उपयोग अपने राजनीतिक हित में करता है। ऐसा पहले भी होता आया है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक लाभ की हवस ने राजनीतिक दलों को इतना निर्लज्ज और अंधा कर दिया है कि वे जनता को हिंसा, घृणा और उन्माद के अंधे कुएं में धकेल रहे हैं। इस बात को भी विस्मृत किया जा रहा है कि पूरे विश्व में इससे भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन और हिंदू धर्म की हजारों साल की लंबी और बड़ी परंपरा कलंकित हो रही है। घृणा और सांप्रदायिकता के इस अंधे आवेग में राम की मर्यादा पुरुषोत्तम की सहिष्णु छबि को भुलाया जा रहा है।
लेकिन एक दूसरा विचारणीय प्रश्न यहां यह भी सामने आता है कि भारतीय संस्कृति की उदात्त और सहिष्णु वैश्विक छबि की सुरक्षा के लिए पूरी जिम्मेदारी क्या गैर मुस्लिम धर्मों के हिस्से में है। मुस्लिम संप्रदाय में भी एक बड़ा हिस्सा पढ़ा-लिखा और बौद्धिक रूप से समृद्ध है। उन्होंने कभी अपनी यह जिम्मेदारी क्यों नहीं समझी कि वे अपने धर्म के ऐसे नासमझ लोगों को सभी धर्म का आदर करना सिखाए और समझाए जिससे मुस्लिम समाज भी देश के विकास की मुख्य धारा में आ सके। क्योंकि यह तो बहुत स्पष्ट है कि देश के विकास में ही प्रत्येक धर्म का विकास और अस्तित्व सुरक्षित है। हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म के प्रबुद्ध लोगों को यह जिम्मेदारी हाथ में लेनी होगी कि वे इस घृणा की बढ़ती हुई खाई को खत्म करें। कोई भी राजनीतिक दल ऐसी भली मंशा से सामने आएगा इसमें संदेह है। लेकिन पिछले दिनों एक कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसने यह उम्मीद जगाई है कि राजनीति से परे भी कुछ ऐसे संगठन है जो देश के अस्मिता और प्रतिष्ठा के लिए चिंतित है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अनेक बार अपने व्याख्यान और संबोधन में इस बात की चिंता प्रकट की है। उन्होंने कहा है कि यह देश उन सभी का है जो यहां के निवासी हैं। इस देश पर सभी धर्मों का एक सा अधिकार है।
मोहन भागवत ने सलाह दी कि विचार की गहराई काम की ऊंचाई को बढ़ाती है। आरएसएस प्रमुख ने पूर्व सीमा विकास प्रतिष्ठान के कार्यक्रम में मणिपुर में हुई हिंसा पर भी चिंता प्रकट की है। उन्होंने कहा मणिपुर में स्थिति गंभीर है, क्योंकि वहां कोई सुरक्षा नहीं है। स्थानीय नागरिक भी अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। मोहन भागवत ने अनेक बार अपने बयानों में समरसता पर बल दिया है।
नागपुर में 12 अक्टूबर 2024 दशहरा के अवसर पर मोहन भागवत का दिया गया व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने व्याख्यान में अनेक बार चिंता जताई, चेतावनी दी और विस्तार से समझाइश दी है। उन्होंने लोगों से हिंसा का सहारा न लेने, समाज के किसी खास वर्ग पर हमला न करने और किसी की आस्था, पूजा स्थल, पवित्र पुस्तक या उनके संतों का विचारों या शब्दों में अपमान न करने को कहा। आरएसएस प्रमुख ने अपने व्याख्यान में एक महत्वपूर्ण आग्रह किया कि अगर कोई एक व्यक्ति कुछ गलत करता है तो पूरे समुदाय को जिम्मेदार न ठहराया जाए। उन्होंने कहा कि अगर कोई और ऐसा करता है, तो भी हमें संयम से काम लेना चाहिए। जो लोग आरएसएस को लेकर एकतरफा और एकपक्षीय बात का आरोप लगाते रहे उन्हें इस बात को भी ध्यान से सुनना चाहिए। उन्होंने कहा है कि असहिष्णुता और द्वेष भारतीय और मानव विरोधी दुर्गुण हैं। इसलिए चाहे कितना भी क्रोध क्यों न हो, हमें ऐसे अमर्यादित आचरण से बचना चाहिए और अपने लोगों को भी ऐसा करने से रोकना चाहिए। अपने आचरण में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे मन, वचन या कर्म से किसी की आस्था, पूज्य स्थान, महापुरुष, ग्रंथ, अवतार, संत आदि का अपमान न हो। यदि दुर्भाग्यवश कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा कुछ कर भी दे, तो हमें अपने पर नियंत्रण रखना चाहिए।
मोहन भागवत इस समय देश की संवेदनशील नब्ज पर हाथ रख रहे हैं। वे सारी बातों को न सिर्फ गंभीरता से समझ रहे हैं बल्कि उसे स्पष्ट रूप से बता भी रहे हैं। उन्होंने 19 दिसंबर को पुणे में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि अयोध्या में राम मंदिर हिंदुओं के लिए आस्था का मामला था, लेकिन रोज ऐसे नए मुद्दों को उठाने अस्वीकार्य है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ व्यक्तियों को ऐसा लगने लगा है कि वह ऐसे मुद्दों को उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं। मोहन भागवत ने यह बात बहुत सही समय पर कही है। देश में एक ऐसी लहर चल पड़ी है जिसमें हर अनावश्यक उत्साही और अति महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ को लगने लगा है कि मंदिर-मस्जिद का विवाद पैदा करके राजनीति में बड़ी छवि हासिल की जा सकती है। राजनीति में यह लोकप्रियता का शॉर्टकट पैदा हो रहा है। पांचजन्य समाचार पत्र ने भी अपने संपादकीय में इस चिंता को प्रकट करके चेतावनी जाहिर की है-मंदिर हिंदुओं के विश्वास का केंद्र हैं लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए इनका इस्तेमाल बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है। आज के समय में मंदिर और मस्जिद मामले पर अनावश्यक बहस करना या भ्रामक प्रचार करना चिंताजनक ट्रेंड बना हुआ है, सोशल मीडिया ने इस ट्रेंड को और बढ़ा दिया है। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत को पत्र लिखकर भाजपा और संघ के रिश्तों पर सवाल उठाए। केजरीवाल ने चार प्रमुख सवालों के जरिए भाजपा की नीतियों और उसके कामकाज पर सवाल खड़ा किया। उन्होंने पूछा, क्या भाजपा के गलत कामों का संघ समर्थन करता है? भाजपा नेता खुलेआम पैसे बांट रहे हैं, क्या संघ इसे समर्थन करता है? क्या संघ को यह नहीं लगता कि भाजपा लोकतंत्र को कमजोर कर रही है? केजरीवाल के इन सवालों ने राजनीति में हलचल मचा दी। इस पर भारतीय जनता पार्टी ने पलटवार करते हुए केजरीवाल को आड़े हाथों लिया। दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने कहा, आपकी औकात नहीं है कि आप संघ प्रमुख से बात भी कर सकें, उनका नाम लेने का तो सवाल ही नहीं उठता। सचदेवा ने यह भी आरोप लगाया कि केजरीवाल ने कनाडा में आतंकवादियों से पैसे लिए थे और अब वह जनता को भ्रमित कर रहे हैं।
इस ताजा विवाद ने दिल्ली की राजनीति में नया मोड़ ले लिया है और दोनों पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप से राजनीतिक माहौल और भी गरम हो गया है। इस विवाद में सभी राजनीतिक दल और बौद्धिक समाज अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। जाहिर है कि हिंदू संगठनों की जैसी छबि प्रचारित हुई है, उसमें इस तरह के बयानों और भाषणों को संदेह से देखा जाएगा। बहुत संभव है कि यह नए और गैर जरूरी महत्वाकांक्षी लोगों का राजनीति में प्रवेश रोकने का प्रयास भी हो। लेकिन इसका दूसरा कोण महत्वपूर्ण है कि यह देश में फैल रही अशांति और अस्थिरता के प्रयासों पर रोक लगाने की गैरराजनीतिक मंशा भी हो सकती है। इस तरह के बयान ऐसे समय आए हैं जब हिंसा और उग्रता का माहौल बन रहा है और इन बयानों ने अपना पक्ष और सद्भाव की मंशा स्पष्ट करने के लिए आरएसएस प्रमुख ने गेंद मुस्लिम धार्मिक संगठनों के पाले में डाल दी है। सांप्रदायिक सद्भाव और देश हित में धार्मिक कट्टरता को छोडऩे का मुस्लिम संप्रदाय के पास यह एक अवसर है। वह आरएसएस के इस परोक्ष प्रस्ताव पर भी विचार कर सकते हैं कि देश की बहुत संख्य मस्जिदें हिंदू धार्मिक स्थलों की संरचना पर बनाए गए हैं। काशी-मथुरा जैसे प्रमुख स्थल जो देश भर में हैं और जो विवादित है। मुस्लिम धार्मिक संगठन यदि इस पर से अपनी दावा-आपत्ति वापस लेते हैं और विवाद खत्म करने की पहल करते हैं तो देश में ही नहीं पूरे विश्व में शान्ति और सद्भाव का बड़ा संदेश जाएगा। ऐसा कठिन है लेकिन देश हित में ऐसा किया जा सकता है। बाकी जो हर छोटी-बड़ी जगह से मंदिर-मस्जिद के विवाद आ रहे हैं, इस आधार पर खत्म किये जा सकते हैं। कुछ प्रमुख जगहों पर मुस्लिम संगठन अपना हक और दावा छोड़े। कुछ स्थानों से हिंदू संगठन अपना दावा और हक छोड़ें। यानी इन सबके लिए बातचीत का माहौल तैयार किया जाना चाहिए और बातचीत से सारे हल निकाले जा सकते हैं। लेकिन इन सब में सबसे बड़ी दिक्कत आएगी राजनीतिक दलों को, क्योंकि उसमें निजी महत्वाकांक्षा से लेकर राजनीतिक दलों की सफलता भी इसी विवाद को बनाए रखने में है। हाल फिलहाल इस धारणा को बल मिला है कि देश में राजनीतिक सफलता का रास्ता मंदिर-मस्जिद के विवाद की गली से होकर जाता है और बहुत संभव है कि आने वाले समय में विश्व राजनीति का भी इसमें दखल बढ़ जाए। तब स्थितियां और मुश्किल भरी होंगी, बेहतर है कि उसके पहले ही कोई इसका हल निकाला जाए।

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