editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से -विभाजन की विभीषिका पर सियासत

editor-in-chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

मनुष्य दरअसल स्मृतिजीवी होता है। वह स्मृतियों में जीता है। उसकी स्मृतियों में बहुत सी अच्छी स्मृतियाँ होती है और बहुत से खराब भी होती हैं। वह खराब स्मृतियों को भुला देना चाहता है, वह नहीं चाहता कि खराब दृश्य बार-बार उसके सामने आए। मनुष्य का मस्तिष्क भी कम्प्यूटर की हार्डडिक्स की तरह होता है जिसमें से बहुत सारा पुराना डाटा डिलीट होकर नया जमा होता रहता रहता है। लोग इतिहास से सबक लेते हैं, जो लोग ऐसा नहीं करते वे भविष्य में कहीं न कहीं ठोकर खाते हैं।
आज़ादी के जश्न के अवसर पर भला हम ये बातें आखिर क्यों कर रहे हैं? हम 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। 14 अगस्त 1947 को हमारे देश से टूट कर पाकिस्तान बना। पाकिस्तान किन परिस्थितियों में बना था, इसे जानने समझने के लिए हमें उस काल की सारी परिस्थितियों के सही परिप्रेक्ष्य में समझना, जानना ज़रूरी है। महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान अगर बनेगा तो वो मेरी लाश पर बनेगा। बावजूद इसके पाकिस्तान बना। बहुत से लोग गांधी-नेहरू जैसे नेताओं को इसके लिए क़सूरवार मानते हैं। गोडसे जैसे लोगों ने इसका बदला गांधीजी की हत्या करके भी लिया। आज भी बहुत से लोग आये दिन गांधीजी पर सोशल मीडिया के ज़रिए गरियाने से बाज नहीं आते। देश के बाक़ी बड़े नेता भी नहीं चाहते थे की विभाजन हो, बावजूद इसके पाकिस्तान बना।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अंगे्रज जो हमारे देश में व्यापार करने आए थे, उनकी नीति थी कि फूट डालो राज करो। उनकी यही मंशा थी कि अगर हम आपस में फूट डालो की नीति अपनाते हैं तो हम यहां राज करने में सफल रहेंगे। काफी हद तक वो अपने इस प्रयास में सफल भी रहे। अंग्रेजों के इस प्रयास में कौन लोग मददगार रहे, कौन राय साहब, राय बहादुर बने। किन लोगों ने अपनी रियासतें बचाई, राजे-रजवाड़े कौन बचे? कौन उनके साथ क्लब में डांस कर रहे थे? ये भी याद किया जाना चाहिए। ये भी याद किया जाना चाहिए कि अंग्रेज जब हमारे देश में आए और ईस्ट इंडिया कंपनी लेकर आए, जो ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारी कंपनी थी वो धीरे-धीरे हमारे देश में राज कैसे करने लगी? और हम 250 सालों तक गुलाम कैसे रहे? इससे पहले अंग्रेजों के आने के पहले बहुत सारी रियासतें थीं, बहुत सारे लोग थे। हम आज जिस अखंड भारत की बात करते हैं वह भी कई राज्यों, रियासतों में बंटा हुआ था। चाहे देश के अलग-अलग भाग में किसी का भी शासन रहा हो वे अपनी अलग स्वायत्तता चाहते थे। चाहे मुग़ल शासक हों, चाहे हूण हों, चाहे कल्चुरी हों, या कोई दूसरे हों, अलग-अलग राज्यों में लोग बंटे हुए थे और फैले हुए थे। हमने जिस भारत की कल्पना की थी, उसका विचार नाम भरत से आया। सिंधु घाटी से हिन्दू आया। चाणक्य ने सोचा था कि चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मिलकर एक ऐसा भारत बनाएंगे,जो बहुत दूर तक फैला होगा। हम इतिहास में जाये तो हमें उसमें काबुल, अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल से लेकर बहुत सारे देश जो आज अपना अलग अस्तित्व रखते हैं इस जम्बू द्वीप में दिखाई देते थे।
आज जब इसे कुछ लोग इंडिया बोलते हैं, कुछ लोग हिंदुस्तान बोलते हैं। यही भारत है, और जब ये भारत विभाजित हुआ था, तो इसकी तमाम कड़वी यादें लोगों के मन में बसी हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया कि हम विभाजन विभीषिका स्मरण दिवस मनाएंगे। भाजपा 14 अगस्त को इसको मना रही है। भाजपा का कहना है कि हम इस दिवस को इस लिए मना रहे हैं, कि जिन लोगों ने इसमें अपनी जान गंवाई, जिनके घर छीने गए। जो कहीं से विस्थापित होकर यहां आए, हम उनके दर्द को कम करना चाहते हैं। हम लोगों को याद दिलाना चाहते हैं कि ये आजादी कितनी मुश्किल से मिली है? तो वहीं कांग्रेस पार्टी के लोगों का कहना है कि भाजपा इसी बहाने लोगों की सहानुभूति बटोरना चाहती है। उस पीड़ा को जो हिंदू-मुस्लिम की पीड़ा के रूप में सामने आती है। अगर हम विभाजन की बात करें, तो हम इस पर बहुत सारी किताबें पढ़ सकते हैं। बहुत सारे उपन्यास पढ़ सकते हैं। तमस जैसा उपन्यास भी इसी पर आधारित है, तो किस तरह हम ट्रेन टू पाकिस्तान की बात करें या फिर भारत एक खोज की बात करें। लोग यहां पर एक जैसे थे। आजादी की लड़ाइयां सब एक साथ मिलकर लड़ रहे थे। ऐसा नहीं था कि हिंदू अलग लड़ रहे थे और मुसलमान अलग। सारे लोग एक साथ लड़ रहे थे। अगर लाहौर की जेल में सरदार भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव थे, तो लाहौर का कॉलेज आजादी का एक बड़ा केंद्र था। तब तक हिंदू-मुस्लिम एक थे, परिस्थितियां ऐसी बनी कि हिंदू-मुस्लिम के बीच एक बड़ी खाई पैदा करने की कोशिश की गई। इसके बावजूद भारतीय मुसलमानों के सामने एक सवाल रखा गया था कि क्या वो जिन्ना के नेतृत्व में बन रहे पाकिस्तान जाएंगे, इसके बावजूद भी वो लोग पाकिस्तान नहीं गए। उसके बावजूद भी पाकिस्तान बना, इससे पहले भी ये घोषणा हुई थी कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र बनेगा।
हमारे देश के नेताओं ने कहा कि वो एक धर्मनिरपेक्ष्य राष्ट्र बनाएंगे। जहां सभी धर्मों का सम्मान होगा। गांधीजी इस विभाजन के विवाद को रोकना चाहते थे, वो इसके लिए पाकिस्तान भी जाने को तैयार थे। वे वहां भी बात करना चाहते थे। कई बार हम देखते हैं कि कई देश अलग-अलग टुकड़ों में विभाजित होते हैं, बाद में उनके भी मन में आता है कि हम एक हो जाएं। उनकी भी यही कोशिश होती है कि कैसे हम आपसी एका को बनाएं। जब हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं। तकनीकी भाषा में कहें तो ये ग्लोबल विलेज हैं। एक जगह अगर कुछ होता है तो उसका असर कई जगहों पर देखने को मिलता है। आज रूस-युक्रेन अगर लड़ रहे हैं तो इसका असर भी तमाम जगहों पर देखने को मिल रहा है। अगर अफगानिस्तान में कुछ होता है तो उसका असर हमारे देश पर पड़ता है। अगर पाकिस्तान में कुछ होता है या फिर ताजा मामला बांग्लादेश का है। हम बड़े फक्र से कह सकते हैं कि जब दो देश विभीषिका झेल रहे थे तो 1971 में बांग्लादेश का जन्म हुआ। बांग्लादेश को आजादी दिलाने में हमारे देश का बड़ा हाथ रहा। भारत का ये मानना था कि बांग्लादेशियों को वो अधिकार नहीं मिल रहे थे, जिसके वो असल हकदार थे। अब हम भारत पाकिस्तान के बंटवारे की विभीषिका को याद करने के लिए विभाजन की विभीषिका स्मरण दिवस मना रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपने इतिहास को याद करें। उसी के साथ ही साथ हम उन गल्तियों को भी याद करें जिनकी वजह से हम इतने वर्षों तक गुलाम रहे। अब इसको लोग अलग-अलग चश्में से देखते हैं। सवाल तो यही है कि आज हम जितनी नफरत मुसलमानों से करते हैं क्या हम उतनी ही नफरत अंग्रेजों से भी करते हैं? अब तो अंग्रेजियत हमारे जेहन पर इस तरह हावी हो चुकी है कि हम आज भारत की सारी भाषाओं को छोड़कर अंग्रेजी भाषा को अपना रहे हैं। हम यूरोप की तरफ बढ़ते गए फिर हम अमेरिका की ओर बढ़ते चले गए। आज हमारे खानपान में सारा पाश्चात्य शामिल है। इसमें कोई बुराई नहीं है। ऐसे में अगर देखा जाए तो न तो अंग्रेजी बोलने में बुराई है न हिंदी, न बांग्ला और न ही तमिल। उर्दू बोलने में भी कोई बुराई नहीं है, उर्दू यहीं की जुबान है, ये अफगानिस्तान से नहीं आई। बहुत सारे लोग जो पंजाब में रहते थे, राजस्थान में रहते थे, उनकी लिपि में उर्दू थी, लिहाजा वो उर्दू लिखते थे। हमारे बड़े से बड़े शायर ने उर्दू में लिखा, फिर फारसी में लिखा। अब मिर्जा गालिब की बात करें तो वो पहले फारसी में लिखा करते थे। बाद में उनको लगा कि नहीं अपनी मादर-ए जुबान में लिखना चाहिए तो उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू कर दिया। अब हम ये देखते हैं कि हमारी बोली भाषा क्या है? हम स्मृतियों की बात करते हैं तो हमें ढेर सारी स्मृतियों को संजोना पड़ेगा। स्मृतियां धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। हमें अगर किसी का मोबाइल नंबर याद रखना हैं तो वो भी हमें सलीके से याद नहीं रहता है। उसे हम मोबाइल में खोजते हैं। एक समय था जब हमें चीजें याद रहा करती थीं। हमें चीजें याद दिलाई जाती थीं। अभी जब से हम सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गए तो हमें वो तमाम सारी चीजें याद दिलाई जा रही हैं, जो बहुत कम जरूरी होती हैं। बार-बार हमारे जेहन में ऐसी स्मृतियां बोई जा रही हैं, जिससे हमारे मन में लोगों को प्रति नफरत पैदा हो। ये जो विभाजन की विभीषिका स्मरण दिवस हम मना रहे हैं, तो क्या हम उस विभीषिका को याद कर रहे हैं, जो उस वक्त हुई थी? सरकार की ओर से इसको लेकर तरह-तरह की प्रदर्शनी लगाई जाएगी। प्रधानमंत्री इस पर दु:ख भी व्यक्त करेंगे। इसको लेकर तमाम फिल्में आईं नाटकों में तमाम दृश्य सामने आए। आइए हम ऐसे ही कुछ दृश्यों को आपसे साझा करते हैं। ये दृश्य कितने भयावह थे। हम उस वक्त की ट्रेनों को देखें, उस वक्त हो रही भीषण मार-काट हो रही थी। टोबा टैक्सिंग जैसी चर्चित कहानी है वो हमको याद दिलाती है कि किस तरह एक आदमी जेल में अपने देश को ढूंढता है। या फिर हम कहें कि जिसने लाहौर नहीं देखा वो जन्मा ही नहीं, असगर वजाहत का ये नाटक जिसको हबीब तनवीर करते थे और अब तो कई लोग करते हैं। उस वक्त बहुत से लोगों की स्मृति में कराची था, तो बहुत से लोगों की स्मृति में लाहौर था, तो वहीं ढेर सारे लोगों की यादों में दिल्ली था। किसी की स्मृति में अमृतसर था, जिसको लेकर तमाम फिल्में बनीं। कुछेक बहुत गंभीर फिल्में भी बनीं। तो कुछ ऐसी भी फिल्में आई जिस तरह का वैमनस्यता का हम बीज बोना चाहते हैं। कुछ ऐसी भी फिल्में उस दौर में आईं। जिस दौर की हम बात कर रहे है। उस दौर में नाटक भी लिखे गए, उपन्यास भी लिखे गए। इससे साबित होता है कि हम अपने इतिहास से कुछ सीखना चाहते हैं, मगर सवाल तो यही है कि क्या जो भी हमारे साथ हो रहा है हम उसे लेकर उतने संवेदनशील हैं? जिनके बल पर हमने स्वतंत्रता हासिल की। क्या हम उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद कर रहे हैं? किस तरह से उन्होंने कठोर यातनाएं झेली। देश जब स्वतंत्रता दिवस मनाने को तैयार है तो 11 तारीख से ही भाजपा ने लोगों को घर-घर तिरंगा के माध्यम से इसको याद कराने की पूरी कोशिश की। उधर ये भी निर्धारित हुआ कि 12 से 14 तक हम विभाजन की विभीषिका को लोगों को बताएंगे। लोगों के पास इसको लेकर जाएंगे। तो मुझे लगता है कि ये ठीक है। पर ये दोधारी तलवार है, हम इसके माध्यम से क्या बताते हैं ये हमारे राजनीतिक दलों को समझना पड़ेगा। इससे हमारे बच्चे क्या सीखेंगे यह भी समझने वाली बात होगी, क्योंकि जो विभीषिका हमारे यहां है वही यूक्रेन में है।
जब हम अमेरिका जाते हैं तो हम उनको बिरादर बोलते हैं। हमें लगता है कि उनके शायर और कवि भी एक जैसे हैं, वो उन्हीं कबीर, फैज को याद करेगा। आज हम अपने पुरखों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं कि आज हम जो कुछ भी हैं अपने पुरखों की वजह से हैं। हम लोगों से भी यही कहते हैं कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए ये सब छोड़ कर जा रहे हैं। हम जब पर्यावरण की बात करते हैं तो हम कहीं न कहीं अपनी आने वाली पीढ़ी की बात करते हैं। हम उनको विश्वास दिलाते हैं कि हमारे बाद भी दुनिया होगी। हमारे पुरखों को भी यही यकीन था कि उनके बाद भी दुनिया होगी। हम जिन स्मृतियों को सहेजते हैं वो कहीं न कहीं हमें काम आती हैं।

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