Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – न्याय ,पक्ष में होता तो अच्छा, नहीं तो खराब

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

हमारी जनतांत्रित व्यवस्था में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका बंटी हुई है। संविधान में निहित प्रावधानों और व्यवस्थाओं के तहत सभी अपने अपने दायरे में रहकर काम करते हैं और एक-दूसरे के कार्यों में दिनप्रतिदिन किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करते। संसद, विधानसभा कानून बनाते हैं, कार्यपालिका उनका क्रियान्वयन करती है और न्यायपालिका संविधान और कानून में दर्ज प्रावधानों के अनुसार उस पर फैसले देती है। जब कोई मामला कहीं नहीं सुलझता है तो अंतिम रूप से सुप्रीम कोर्ट जाना होता है, जहां से सभी को न्याय की उम्मीद होती है। अधिकांश मामलों में लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर उंगली नहीं उठाते, किन्तु यदि ये फैसले उनकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं होते तो कई बार कोर्ट के निर्णयों को भी कठघरे में खड़ा किया जाता है। प्रजातंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ कहा गया है, जहां रोज तरह-तरह के फैसले सुनाकर किसी को भी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होती है। न्यायापालिका, कार्यपालिका और विधायिका कहीं न कहीं अपने जिम्मेदारियों कानूनी प्रक्रिया और संविधान के प्रति जवाबदेह है, किन्तु मीडिया की जवाबदारी अभी तक उस तरह की नहीं है। यही वजह है कि मीडिया तथ्यों और घटनाओं को अपने तरीके से प्ले करता है। दरअसल हम यह बात आज इसलिए कह रहे हैं कि राज्यसभा के अध्यक्ष देश के उपराष्ट्रपति तथा कुछ राज्यों के राज्यपालों ने अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसलों पर सवाल उठाये हैं। उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ ने तो यहां तक कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट के पास एटामिक मिसाइल है।
उपराष्ट्रपति ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर सवाल उठाए जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों को मंजूरी देने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई थी। उन्होंने इसे संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता, क्योंकि राष्ट्रपति का पद संविधान की रक्षा, संरक्षण और सुरक्षा की शपथ लेता है, जो अन्य संवैधानिक पदों से ऊंचा है। धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 142 के उपयोग को लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ परमाणु मिसाइल की संज्ञा दी, जिसका उपयोग वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए मानते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी जहां न्यायाधीश कानून बनाएं, कार्यपालिका की भूमिका निभाएं या सुपर संसद की तरह व्यवहार करें, बिना किसी जवाबदेही के। धनखड़ ने न्यायपालिका की पारदर्शिता पर सवाल उठाए, जैसे एक जज के आवास पर हुई घटना में एफआईआर न दर्ज होने का मामला। उनकी यह टिप्पणी सार्वजनिक मंचों पर की गई, जिसे कुछ लोग संवैधानिक पद की गरिमा के खिलाफ मानते हैं। उनकी टिप्पणियों को खेदजनक और संवैधानिक शिष्टाचार के विपरीत भी बताया जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमा में रहना चाहिए और राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों पर निर्देश देने से बचना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, विपक्षी दलों ने धनखड़ के रुख की आलोचना की और कुछ ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक लाने की बात कही, हालांकि यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं दिखता।
धनखड़ सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में वकालत कर चुके हैं और संवैधानिक प्रक्रियाओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उनकी यह टिप्पणी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन पर एक व्यापक बहस को जन्म दे रही है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों पर जजों की भूमिका को लेकर प्रमुख लोगों की टिप्पणियां विभिन्न संदर्भों में सामने आई हैं।
तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा वहां की विधानसभा द्वारा पारित प्रस्तावों को लंबे समय तक रोके रखने पर सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है उस पर उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ और केरल के राज्यपाल का बयान हैरान करने वाला है। उपराष्ट्रपति धनखड़ जब सुप्रीम कोर्ट की पीठ के दो जजों के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि 5 जजों की पीठ होने चाहिए तब वे भूल जाते हैं कि इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने वाले अकेले जज कृष्णा अय्यर ने फैसला दिया था, तब तो किसी ने यह बात नहीं कही। सुप्रीम कोर्ट के एक जज या 11 जब फैसला दे वह फैसला सुप्रीम कोर्ट का ही होता है। वे कहते हैं कि लोकसभा और राज्यसभा के स्पीकर की चेयर सदन में बीचों बीच में होती है। वह सदन में किसी दल का नहीं होता। जब सदन में मतो के विभाजन होता है और ट्राइ हो जाता है तभी वह कोटिंग करता है।
तमिलनाडु के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के कार्यों के लिए समयसीमा तय करने के लिए है। वह राज्यपाल के पद को कमजोर नहीं कर रहा है, लेकिन राज्यपालों को संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के प्रति उचित सम्मान के साथ कार्य करना चाहिए। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की ओर से विधानसभा से पारित विधेयकों पर बिना किसी कार्रवाई के रोके रखने के कृत्य की आलोचना करते हुए 8 अप्रैल के अपने आदेश में कहा कि हम किसी भी तरह से राज्यपाल के पद को कमतर नहीं आंक रहे हैं। हम बस इतना ही कहना चाहते हैं कि राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं का सम्मान करते हुए काम करना चाहिए। विधायिका के माध्यम से व्यक्त की जा रही जनता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए और साथ ही जनता के प्रति उत्तरदायी निर्वाचित सरकार का भी सम्मान करना चाहिए। उन्हें मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक की अपनी भूमिका निष्पक्षता से निभानी चाहिए, राजनीतिक सुविधा के विचारों से नहीं बल्कि उनकी तरफ से ली गई सांविधानिक शपथ की पवित्रता से निर्देशित होना चाहिए। तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर राज्य में 10 कानून लागू कर दिए हैं। राज्य विधानमंडल से पारित इन विधेयकों को राज्य सरकार ने आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचित किया, जिसमें कहा गया कि इन कानूनों को राज्यपाल आरएन रवि की ओर से स्वीकृति दे गई है। द्रमुक सांसद और वरिष्ठ वकील पी विल्सन ने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार तमिलनाडु सरकार ने सरकारी राजपत्र में 10 अधिनियमों को अधिसूचित किया है और वे लागू हो गए हैं। इतिहास रच दिया गया है क्योंकि ये भारत में किसी भी विधानमंडल के पहले अधिनियम हैं जो राज्यपाल या राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना बल्कि शीर्ष न्यायालय के निर्णय के आधार पर प्रभावी हुए हैं।
अभी हाल में ही संसद में पारित वक्फ कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है। एक तरफ सरकार जहां इसे मुसलमानों के पक्ष में बता रही है तो विपक्ष इसे एक प्रतिशाध को रुप में ले रहा है। कुछ मीडिया अपनी संपादकीय में कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार और संसद के हर फैसले की समीक्षा से बचना चाहिए और तय समय में न्याय पर ध्यान देना चाहिए। वहीं देश के जाने माने वकील राजनीतिज्ञ कपिल सिब्बल का कहना है कि संशोधित कानून भविष्य में वक्फ बाय यूजऱ की पहचान को रोकता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है। अब सवाल यह है कि वक्फ बाय यूजऱ क्या होता है? आपको बता दें कि अगर किसी संपत्ति का लंबे समय तक धार्मिक या सामाजिक उद्देश्य से उपयोग हुआ है, भले ही लिखित रूप से वक्फ घोषित न हो, तब भी उसे वक्फ बाय यूजऱ माना जाता है। कपिल सिब्बल ने धारा 3सी पर आपत्ति जताई, जो सरकार को यह अधिकार देती है कि वह किसी संपत्ति को एकतरफा तरीके से सरकारी घोषित कर दे और उसे वक्फ की श्रेणी से हटा दे। सिब्बल ने कहा कि सरकारी अधिकारी कैसे खुद ही फैसला कर सकते हैं, जब मामला सरकार और वक्फ के बीच का हो?
वहीं वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा कि मुझे भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामले में दखल नहीं देगा। उन्होंने यह भी कहा कि विधायिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। वक्फ संशोधन विधेयक पर केंद्रीय मंत्री ने कहा कि मैंने किसी अन्य विधेयक की इतनी गहन जांच होते नहीं देखी है। जिसमें एक करोड़ प्रतिनिधित्व शामिल हो। जिस पर जेपीसी की अधिकतम बैठक हो और विधेयक पर चर्चा के दौरान राज्यसभा में एक रिकॉर्ड बना हो।
राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा कि कुछ जज कानून बनाते हैं, कार्यपालिका की भूमिका निभाते हैं और सुपर पार्लियामेंट की तरह बर्ताव करते हैं। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को न्यायपालिका के लिए 24 घंटे उपलब्ध परमाणु मिसाइल बता दिया है। यह एक ऐसा बयान है, वह जितना तीखा है, उतना ही प्रतीकात्मक भी महसूस हो रहा है।
जजों की भूमिका पर टिप्पणियां अक्सर फैसलों के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रभावों पर केंद्रित होती हैं। धार्मिक मामलों (अयोध्या, ज्ञानवापी, पुजारी नियुक्ति) में संतों और धार्मिक नेताओं की प्रतिक्रियाएं भावनात्मक और धार्मिक पहलुओं पर जोर देती हैं। कानूनी विशेषज्ञ और पूर्व जज न्यायपालिका की स्वतंत्रता, सरकार के साथ संबंधों और सामाजिक समावेशिता पर ध्यान देते हैं। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं उनके वैचारिक रुख को दर्शाती हैं, जहां बीजेपी अक्सर धार्मिक फैसलों का समर्थन करती है और विपक्ष संवैधानिकता पर जोर देता है। सीजेआई चंद्रचूड़ जैसे जजों की भूमिका को लेकर प्रशंसा और आलोचना दोनों देखने को मिलती है, खासकर उनकी प्रगतिशीलता और सरकार के साथ तालमेल को लेकर।

निम्नलिखित कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं, जो इन टिप्पणियों को संक्षेप में दर्शाते हैं। अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला (2019) पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 40 दिनों की सुनवाई के बाद विवादित स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए दे दिया और मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक जमीन आवंटित की। इस पर हनुमानगढ़ी के महंत राजू दास ने फैसले की सराहना की और कहा कि यह संतों और हिंदू समुदाय की भावनाओं का सम्मान करता है। वहीं कुछ पूर्व जजों ने इस फैसले को संतुलित बताया, लेकिन कुछ ने इसे सामाजिक सौहार्द को प्राथमिकता देने वाला माना, न कि विशुद्ध कानूनी आधार पर।
ज्ञानवापी मस्जिद-एएसआई सर्वे (2023) पर सुप्रीम कोर्ट ने एएसआई सर्वे को मंजूरी दी, जिसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा। इस पर महंत राजू दास ने कहा कि सर्वे से दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा और हिंदू पक्ष को न्याय मिलेगा। वहीं मुस्लिम पक्ष ने कोर्ट के रुख को पक्षपातपूर्ण माना।वहीं कानूनी विशेषज्ञों ने कोर्ट की सक्रियता को धार्मिक विवादों में हस्तक्षेप के रूप में देखा, जबकि अन्य ने इसे ऐतिहासिक सत्य की खोज के लिए जरूरी माना।
कांवड़ यात्रा और दुकानदारों के नाम प्रदर्शन मामला (2024) पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश पर रोक लगाई, जिसमें कांवड़ मार्ग पर दुकानदारों को अपना नाम प्रदर्शित करने को कहा गया था। इस पर महंत राजू दास ने कोर्ट के फैसले पर अप्रत्यक्ष रूप से असंतोष जताया और कांवड़ यात्रियों से कैंप में ही भोजन लेने की अपील की। बीजेपी ने फैसले को धार्मिक भावनाओं के खिलाफ बताया, जबकि विपक्ष ने इसे संवैधानिक माना।
एससी/एसटी एक्ट पर फैसला (2018) पर सुप्रीम कोर्र्ट ने तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई और निर्दोषों को संरक्षण देने की बात कही। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा कि जजों की कमी के कारण संवैधानिक पीठें प्रभावी नहीं हो पा रही हैं, जिससे ऐसे मामलों में देरी होती है। कुछ दलित संगठनों ने इसे एक्ट को कमजोर करने वाला बताया, जबकि अन्य ने इसे दुरुपयोग रोकने की दिशा में कदम माना।
मंदिरों में पुजारी नियुक्ति और जाति (2023) पर मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि पुजारी की नियुक्ति में जाति की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए, बल्कि योग्यता और प्रशिक्षण महत्वपूर्ण हैं। जस्टिस एन आनंद वेंकटेश ने सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें पुजारी की नियुक्ति को धर्मनिरपेक्ष कार्य माना गया। इसपर कुछ हिंदू संगठनों ने इसे परंपराओं के खिलाफ बताया, जबकि प्रगतिशील समूहों ने इसे समावेशी कदम माना।

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