Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से – सियासत या भाषा की लड़ाई

Editor-in-chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

भाषा लड़ाती नहीं मिलाती है। बीस साल से बिछड़े ठाकरे बंधु जिन्हें बाला साहेब ठाकरे जीते जी एक नहीं कर सके उन्हें हिन्दी ने मिला दिया। त्रिभाषा फार्मूला के अंतर्गत हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में मान्यता देने के आदेश के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में जो भूचाल आया उससे घबराकर देवेंद्र फडणवीस की सरकार ने 16-17 अप्रैल को जारी आदेश को कुछ दिनों पहले वापस ले लिया। फडणवीस सरकार के इस कदम को अपनी विजय बताते हुए ठाकरे बंधुओं ने मुंबई में विजय सभा आयोजित कर इस मराठी अस्मिता से जोड़ दिया। ठाकरे ब्रांड को मराठी मानूस के साथ जोड़कर बनाए रखने, शिवसेना के वोट बैंक पर पहले की तरह कब्जा कायम रखने और अपने खिसकते जनाधार के चलते राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे साथ आये हंै। यह एकता एकनाथ शिंदे गुट को मुंबई महानगर पालिका के चुनाव में भारी पड़ सकता है। यहां शिवसेना का असली वारिस कौन, का मामला है शिंदे या ठाकरे। यह भाषा की कम, राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई ज्यादा है क्योंकि निकट भविष्य में देश की सबसे बड़ी और समृद्ध बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के चुनाव हैं।
नई शिक्षा नीति 2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले ने भारत के कई राज्यों में भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। इस नीति के अनुसार, स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाई जानी हैं, जिनमें कम से कम दो भारतीय भाषाएँ शामिल हों। हालाँकि, कई गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने के प्रयास को हिंदी थोपने की साजिश के रूप में देखा जा रहा है। तमिलनाडु के बाद अब महाराष्ट्र में यह विवाद चरम पर है, जहाँ मराठी अस्मिता के नाम पर राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे नेता एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन कर विजय रैली कर रहे हैं।
नई शिक्षा नीति 2020 में त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू करने का प्रावधान है, जिसमें राज्यों को स्थानीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी (या अन्य भारतीय भाषा) पढ़ाने की सलाह दी गई है। महाराष्ट्र सरकार ने इस नीति के तहत पहली से पांचवीं कक्षा तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने का सरकारी आदेश (जीआर) जारी किया था। इस फैसले को शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने मराठी अस्मिता पर हमला करार दिया। उनका तर्क था कि मराठी भाषा को प्राथमिकता न देकर हिंदी को थोपने की कोशिश की जा रही है, जो महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान के खिलाफ है।
महाराष्ट्र से पहले तमिलनाडु में भी त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर तीखा विरोध देखा गया। डीएमके और एआईएडीएमके जैसे दलों ने हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने को तमिल संस्कृति और भाषा पर हमला बताया। तमिलनाडु में लंबे समय से हिंदी के प्रति संवेदनशीलता रही है, और यहां दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) को प्राथमिकता दी जाती है। तमिलनाडु सरकार ने त्रिभाषा नीति को लागू करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद केंद्र सरकार ने इस नीति में लचीलापन लाने की बात कही।
महाराष्ट्र में त्रिभाषा फॉर्मूले के खिलाफ विरोध ने न केवल भाषाई बल्कि राजनीतिक रंग भी ले लिया। 29 जून 2025 को महाराष्ट्र सरकार ने बढ़ते विरोध के चलते हिंदी को अनिवार्य करने के दो सरकारी आदेशों को वापस ले लिया। इसके बावजूद शिवसेना (यूबीटी) और मनसे ने इसे अपनी जीत के रूप में पेश किया और 5 जुलाई 2025 को मुंबई के वर्ली स्थित एनएससीआई डोम में मराठी विजय दिवस के रूप में एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, जो करीब दो दशक बाद एक मंच पर आए, ने मराठी अस्मिता की रक्षा का संदेश दिया।
राज ठाकरे ने अपने संबोधन में कहा कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने वह कर दिखाया जो बालासाहेब ठाकरे भी नहीं कर सके, मुझे और उद्धव को एक साथ लाना। उन्होंने त्रिभाषा नीति को सत्ता के बल पर थोपा गया फैसला करार दिया। उद्धव ठाकरे ने भी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि यह रैली मराठी एकता का प्रतीक है और हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
विवाद के दौरान हिंदी भाषियों के साथ मारपीट की कुछ छिटपुट घटनाएँ सामने आई हैं, जिन्हें मराठी अस्मिता के समर्थकों के गुस्से से जोड़ा जा रहा है। हालांकि, इन घटनाओं की व्यापक पुष्टि नहीं हुई है और कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में इसे अतिश्योक्ति के साथ पेश किया गया। मराठी नेताओं ने ऐसी घटनाओं की निंदा की है, लेकिन इनसे हिंदी और मराठी समुदायों के बीच तनाव बढऩे की आशंका जताई जा रही है।
यह विवाद केवल भाषा तक सीमित नहीं है, इसके पीछे गहरे राजनीतिक मंशाएँ भी हैं। महाराष्ट्र में बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) और अन्य स्थानीय निकाय चुनाव नजदीक है। ठाकरे बंधुओं की एकजुटता को मराठी वोट बैंक को एकजुट करने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है, जो सत्तारूढ़ बीजेपी-शिवसेना (शिंदे गुट) गठबंधन के लिए चुनौती पेश कर सकता है। बीजेपी ने इस आंदोलन को नौटंकी करार देते हुए उद्धव ठाकरे पर सवाल उठाए कि उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल में भी त्रिभाषा नीति को स्वीकार किया गया था।
महाराष्ट्र सरकार ने विवाद को शांत करने के लिए शिक्षाविद् डॉ. नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक नई समिति गठित की है जो तीन महीने में भाषा नीति पर सिफारिशें देगी। इस समिति का लक्ष्य मराठी भाषा की प्राथमिकता को बनाए रखते हुए सभी हितधारकों की राय लेना है।
त्रिभाषा फॉर्मूला भाषाई विविधता को बढ़ावा देने का एक प्रयास है, लेकिन गैर-हिंदी भाषी राज्यों में इसे क्षेत्रीय अस्मिता के खिलाफ देखा जा रहा है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा और संस्कृति की रक्षा का मुद्दा हमेशा से राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहा है। ठाकरे बंधुओं का एकजुट होना केवल भाषा की लड़ाई नहीं, बल्कि सत्ता की सियासत में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश भी है। दूसरी ओर हिंदी भाषियों के खिलाफ छिटपुट हिंसा की खबरें सामुदायिक तनाव को बढ़ा सकती है, जिसे रोकने के लिए सरकार को तत्काल कदम उठाने होंगे।
महाराष्ट्र में त्रिभाषा फॉर्मूले का विवाद भाषा, संस्कृति और राजनीति का एक जटिल मिश्रण है। यह न केवल शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में लचीलेपन की जरूरत को दर्शाता है, बल्कि भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषाई संवेदनशीलताओं को समझने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है। ठाकरे बंधुओं की रैली ने मराठी अस्मिता को एक नई ऊर्जा दी है, लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या यह एकता आगामी चुनावों में स्थायी राजनीतिक बदलाव ला पाएगी।
महाराष्ट्र की राजनीति जो कभी भाजपा-शिवसेना के गठबंधन की रही बाद में उनसे शिवसेना में तोड़-फोड़ करके एक और शिवसेना (शिंदे) बनाकर तथा शरद पवार एनसीपी में तोड़-फोड़ कर एक और एनसीपी बनाकर महाराष्ट्र की सत्ता से कांग्रेस, शिवसेना (ठाकरे) एनसीपी (शरद पवार) को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया, उस महाराष्ट्र में अब राजनीति किस करवट बैठती है, यह देखना होगा।