-सुभाष मिश्र
भारत में चुनाव आयोग को संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत एक स्वायत्त, निष्पक्ष और स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के रूप में स्थापित किया गया है। इसका मूल कार्य चुनाव प्रक्रिया को स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी बनाना है, ताकि लोकतंत्र की आत्मा सुरक्षित रहे। परंतु, हाल के दिनों में खासकर बिहार में आयोग की निष्पक्षता को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं, वे न केवल एक राज्य तक सीमित चिंता हैं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढाँचे की साख से जुड़े हैं।
बिहार में 2025 के संभावित विधानसभा चुनावों से पहले ही सियासी माहौल गर्म हो गया है। खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की फिर से एनडीए में वापसी और राजद सहित इंडिया गठबंधन की नाराजग़ी के बाद यह मुद्दा और गहरा गया है। हाल में हुए राज्यसभा उपचुनाव, स्थानीय निकायों में आरक्षण की सूची, सांसद-विधायक दल बदल प्रकरण, और कुछ आचार संहिता उल्लंघन मामलों में पक्षपातपूर्ण कार्रवाई, ने विपक्ष को यह कहने पर मजबूर किया है कि चुनाव आयोग सत्ता पक्ष की भाषा बोल रहा है।
विपक्षी दलों द्वारा यह आरोप लगाया गया है कि आयोग दलबदलू नेताओं पर बेशर्मी से चुप है, आचार संहिता के उल्लंघन पर सत्तापक्ष के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, और प्रशासनिक नियुक्तियाँ या ट्रांसफर में आयोग का रवैया संदिग्ध रहा है। वहीं सत्तापक्ष (एनडीए), खासकर भाजपा, ने यह साफ कहा है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक चलन है। उनका कहना है कि आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसकी स्वायत्तता पर सवाल उठाकर विपक्ष जनता के बीच भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा है। चुनाव आयोग अगर हर बात पर सफाई देने लगे तो उसकी संस्थागत गरिमा खत्म हो जाएगी। विपक्ष खुद हार का ठीकरा आयोग पर फोड़ता है, जबकि उसके पास जमीनी संगठन और नेतृत्व की कमी है।
सवाल यह है कि क्या किसी संवैधानिक संस्था की आलोचना को लोकतंत्र के विरुद्ध हमला कहा जाना चाहिए? उत्तर साफ है नहीं। लोकतंत्र की खूबसूरती ही इस बात में है कि हर संस्था, चाहे वह न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो या चुनाव आयोग—सार्वजनिक निगरानी और आलोचना के दायरे से बाहर नहीं हो सकती। यह आलोचना व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संस्थागत पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग है।
यदि चुनाव आयोग किसी राज्य या केंद्र में सत्ता पक्ष के अनुकूल दिखता है, तो यह उसके लिए भी चिंतन का विषय होना चाहिए, क्योंकि उसकी ताकत उसकी सार्वजनिक विश्वसनीयता में निहित है। एक बड़ी चिंता यह है कि हाल के वर्षों में चुनाव आयोग ने अक्सर चुप्पी या सीमित प्रतिक्रिया की नीति अपनाई है। चाहे बंगाल में विवाद हो, गुजरात चुनाव के दौरान सरकारी योजनाओं की घोषणाएँ, या अब बिहार में नियुक्तियों का मामला आयोग ने अक्सर पक्षपात के आरोपों पर खुली जवाबदेही से परहेज किया है।
इससे जनता में यह संदेश जाता है कि चुनाव आयोग अब उतना निडर नहीं रहा, जितना टी.एन. शेषन या जे.एम. लिंगदोह के समय में था। चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर जो कदम उठाना जरूरी है उनमें चुनाव आयोग की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी और बहुपक्षीय बनाया जाए।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में सरकार को सलाह भी दी थी कि सीजेआई, प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष की समिति से चुनाव आयुक्त चुने जाएं। सभी राजनीतिक दलों को आयोग की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता के लिए दबाव बनाना चाहिए, न कि केवल तब जब वह सत्ता से बाहर हों।
मीडिया और नागरिक समाज को चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल पूछना बंद नहीं करना चाहिए, बल्कि तथ्यों के साथ विवेकपूर्ण ढंग से निगरानी रखनी चाहिए।
बिहार की वर्तमान राजनीति चुनाव आयोग की उस परीक्षा की तरह है जहाँ उसकी निष्पक्षता, पारदर्शिता और साहस को आँका जा रहा है। सत्तापक्ष यदि यह कहता है कि आयोग पर सवाल उठाना अनुचित है, तो विपक्ष का यह तर्क भी कमजोर नहीं कि लोकतंत्र में हर संस्था को आलोचना से परे नहीं माना जा सकता। भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में चुनाव आयोग को अपने व्यवहार और निर्णयों से विश्वसनीयता अर्जित करनी होगी, न कि सिर्फ संवैधानिक दर्जे के आधार पर। क्योंकि लोकतंत्र की आत्मा सिर्फ मतों में नहीं, मतदाताओं के विश्वास में बसती है।
Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चुनाव आयोग की भूमिका पर उठते सवाल

05
Jul