-सुभाष मिश्र
क्या वाक़ई में आने वाले समय में अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्मिंदगी महसूस हो सकती है? केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 19 जून 2025 को, एक कार्यक्रम में भारतीय भाषाओं के संरक्षण पर जोर देते हुए एक उल्लेखनीय बयान दिया। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्मिंदगी महसूस हो सकती है और एक ऐसा समाज बनाया जाएगा जहां भारतीय भाषाएं प्राथमिकता में होंगी। यह बयान तमिलनाडु में त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर चल रहे विवाद के बीच आया है, जहां डीएमके सरकार ने इसे हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में देखा है।
यहां यह समझना ज़रूरी है कि भाषाओं में परस्पर प्रतिस्पर्धा नहीं होती। उनमें सहअस्तित्व होता है। किसी भी भाषा का प्रयोग गर्व या शर्म का विषय हो सकता है, यदि समाज की सत्ता-संरचना के संदर्भ में उसे देखा जाए। औपनिवेशिक मूल्यों के दबाव की वजह से हिंदी पर अंग्रेजी को हमारे यहां वरियता मिली हुई है। दुर्भाग्य से हिंदी समाज स्वयं अपनी भाषा को लेकर गर्व करना तो दूर, अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक संपदा को सहेज नहीं पा रहा है। स्वयं भारतवर्ष में उसकी सर्वस्वीकृत निर्विवाद नहीं है। दक्षिण के राज्य उन पर हिंदी थोपने की शिकायत करते रहे हैं। उसे राष्ट्रभाषा मानने से भी इंकार करते हैं। इस स्थिति में हिंदी को पूर्णत: अपनाना और अंग्रेज़ी को अपदस्थ करना कितना कठिन होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
दूसरे अंग्रेज़ी वैश्विक स्तर पर ज्ञान-विज्ञान, बौद्धिक आदान-प्रदान और वाणिज्य-व्यापार की भाषा बन चुकी है। उसका प्रयोग अनिवार्य है। भारतीय भाषाएँ चाहे कितनी ही समृद्ध हों, वे कभी वैश्विक संपर्क की भाषा नहीं हो सकती। एक पुस्तक के विमोचन समारोह में बोलते हुए अमित शाह ने यह भी स्पष्ट किया कि वे स्वयं गैर-हिंदी भाषी राज्य गुजरात से हैं, और उनका इरादा किसी भाषा को दबाने का नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना है। यह बयान भाषा विवाद के बीच सामने आया है, जिसमें उन्होंने हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं की सखी (सहायक) के रूप में प्रस्तुत किया, न कि प्रतिस्पर्धी के रूप में। हालांकि, इन बयानों को कुछ लोगों ने अंग्रेज़ी के खिलाफ एक भावनात्मक अपील के रूप में देखा, जबकि अन्य इसे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने की कोशिश मानते हैं। यह जानकारी वेब और एक्स पर मिली पोस्ट्स से संकलित है, लेकिन इन बयानों का व्यापक प्रभाव और सटीक संदर्भ अभी भी बहस का विषय है, क्योंकि विभिन्न पक्षों ने इसे अलग-अलग तरीके से व्याख्या की है।
भारत में अंग्रेज़ी का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ा है, खासकर शिक्षा, नौकरी और वैश्विक संवाद में। यह स्थिति शहरी क्षेत्रों में और अधिक स्पष्ट है, जहां अंग्रेज़ी को सामाजिक और आर्थिक प्रगति का माध्यम माना जाता है। हालांकि, यह भी सच है कि ग्रामीण और क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय भाषाओं और बोलियों का उपयोग अभी भी प्रचलन में है। कुछ आलोचकों का मानना है कि अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रभुत्व स्थानीय भाषाओं को कमजोर कर रहा है, जबकि समर्थक इसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए आवश्यक बताते हैं। इस पर कोई एकमत राय नहीं है, और यह मुद्दा सामाजिक-आर्थिक संदर्भों से गहराई से जुड़ा हुआ है।
हालांकि, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर कुछ पोस्ट्स में इस बयान को राजनीतिक रूप से प्रेरित माना गया है, जबकि अन्य इसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण का हिस्सा बताते हैं। हालांकि, यह भी सच है कि ग्रामीण और क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय भाषाओं और बोलियों का उपयोग अभी भी प्रचलन में है। नई शिक्षा नीति 2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू करने का प्रस्ताव है, जिसमें मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा, और एक तीसरी भाषा (ज्यादातर हिंदी या अंग्रेज़ी) शामिल है। तमिलनाडु में इसका विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि वहां की राजनीतिक और सामाजिक सोच लंबे समय से हिंदी थोपने के खिलाफ रही है। राज्य के नेता, जैसे मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन, ने इसे तमिल भाषा और संस्कृति पर हमला माना है और दावा किया है कि यह फॉर्मूला क्षेत्रीय पहचान को कमजोर करेगा। दूसरी ओर केंद्र सरकार का तर्क है कि यह नीति भाषाई विविधता को बढ़ावा देती है और सभी भारतीय भाषाओं को समान महत्व देती है। यह विवाद लंबे समय से चल रहा है और हाल के बयानों ने इसे और उजागर किया है। केंद्र सरकार ने जवाब में कहा है कि नेप लचीला है और राज्यों को अपनी पसंद की भाषाएं चुनने की स्वतंत्रता है, लेकिन तमिलनाडु ने इसे लागू करने से इनकार कर दिया है। यह विवाद अभी भी अनसुलझा है और हाल के दिनों में इस पर सियासी तकरार बढ़ी है।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास 1960 के दशक से जुड़ा है, जब राज्य में हिंदी थोपने के खिलाफ बड़े प्रदर्शन हुए थे। वर्तमान में नई शिक्षा नीति के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर फिर से विरोध देखा जा रहा है। 23 फरवरी 2025 को केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्टालिन को पत्र लिखकर इस नीति को लागू करने की अपील की थी, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार ने इसे खारिज कर दिया। इस विरोध को राजनीतिक रंग देने की कोशिश बताई गई है, जबकि स्थानीय लोगों का मानना है कि यह उनकी भाषाई और सांस्कृतिक स्वायत्तता की रक्षा के लिए जरूरी है। हाल के दिनों में तमिलनाडु ने मांग की है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई तमिल में शुरू की जाए जो इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाता है।
भारत में बोलियों के विलुप्त होने की समस्या गंभीर होती जा रही है। अनुमान के अनुसार, पिछले कुछ दशकों में सैकड़ों छोटी बोलियाँ, खासकर आदिवासी क्षेत्रों में, वक्ताओं की कमी के कारण लुप्त हो गई हैं। यूनेस्को ने 2023 में एक रिपोर्ट के अनुसार यदि संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए, तो 2050 तक भारत की 10 प्रतिशत से अधिक बोलियां खत्म हो सकती हैं। यह न केवल भाषाई विविधता की हानि है, बल्कि इससे जुड़ी लोककथाएँ, परंपराएं और ज्ञान भी खो रहा है। क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियाँ विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं। वैश्वीकरण के चलते सांस्कृतिक विविधता ख़तरे में है। दुनिया धीरे-धीरे आर्थिक एकीकरण के साथ सांस्कृतिक एकीकरण की ओर बढ़ रही है। एक विश्वव एक संस्कृति में तानाशाही की विजय प्रतिबिंबित होती है। आर्थिक रूप से शक्तिशाली राष्ट्र की तानाशाही संस्कृति और भाषा की एकरूपता में प्रकट होगी। वह दिन बहुत दूर है जब इस तरह की तानाशाही कायम होगी लेकिन वह एक संभावना तो है ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। संकीर्ण राष्ट्रवाद बोलियों के लुप्त होने और एक भाषा की वैश्विक तानाशाही की आशंका से आँख मूँदकर यदि हिंदी के गर्व को नारे की तरह इस्तेमाल करता है तो उसकी राजनीति को समझना कठिन नहीं है। धर्म और भाषा को मिथ्या गर्व की वस्तु बना कर जनता को भरमाया जा सकता है। यह भ्रम भी इसी मिथ्या गर्व से उपजता है कि अंग्रेजी बोलना एक दिन शर्म की बात होगी। यह खुशफहमी के सिवाय कुछ नहीं है। हिंदी की आत्महीनता को अंग्रेजी के विरुद्ध घृणा से छिपाया नहीं जा सकता।
देश में जिस तेज़ी से अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ा है, उसकी जीती जागती मिसाल गॉंव क़स्बे तक में आई इंग्लिश स्कूलों की बाढ़ है। सरकारों को भी अब हिन्दी माध्यम स्कूलों के साथ-साथ इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने पड़ रहे हैं। अंग्रेज़ी का भारत में बढ़ता चलन शहरीकरण और वैश्वीकरण का परिणाम है। शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में अंग्रेज़ी को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे ग्रामीण और क्षेत्रीय भाषाएँ पीछे छूट रही हैं। हाल के सर्वेक्षणों (वेब पर उपलब्ध) के अनुसार, लगभग 60 प्रतिशत शहरी युवा अंग्रेज़ी को अपनी दूसरी भाषा के रूप में अपनाना चाहते हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत से कम है। यह अंतर भाषाई असमानता को बढ़ा रहा है। अमित शाह के बयान को इस संदर्भ में कुछ लोग अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं, लेकिन इसके व्यावहारिक परिणाम अभी अनिश्चित है।
यह मुद्दा केवल भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक पहचान, शिक्षा और राजनीति से गहराई से जुड़ा हुआ है। अमित शाह के बयानों ने इस बहस को और तेज़ कर दिया है, लेकिन इसके समाधान के लिए राज्यों और केंद्र के बीच संवाद की आवश्यकता है। तमिलनाडु का विरोध और बोलियों का विलुप्त होना इस बात का संकेत है कि भाषाई नीतियों को लागू करने से पहले स्थानीय संवेदनाओं को समझना होगा। अमित शाह के बयान और त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर बहस एक जटिल मुद्दे का हिस्सा है, जो भाषा, पहचान और शिक्षा से जुड़ा है। अंग्रेज़ी का बढ़ता चलन और बोलियों का विलुप्त होना इस संदर्भ में गहरे सवाल उठाते हैं। यह स्पष्ट है कि कोई भी नीति लागू करने से पहले क्षेत्रीय संवेदनाओं और भाषाई विविधता को ध्यान में रखना होगा। वर्तमान में यह मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर चर्चा का विषय बना हुआ है और इसके समाधान के लिए संवाद और संतुलन की आवश्यकता है।