-सुभाष मिश्र
छत्तीसगढ़ अपनी समृद्ध लोककला, जनजातीय संगीत और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए देश-विदेश में जाना जाता है। हबीब तनवीर, तीजन बाई, दाऊ मंदराजी जैसे नामों ने इस धरोहर को देशव्यापी पहचान दी। लेकिन आज यही सांस्कृतिक विरासत बाज़ारवाद और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की अंधी दौड़ में अश्लीलता की भेंट चढ़ती नजर आ रही है।
हाल ही में रायपुर में स्थानीय कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अश्लील छत्तीसगढ़ी गीतों और वीडियो के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। गीतों की सूची पुलिस को सौंपते हुए, संबंधित गायक-निर्माताओं पर कार्रवाई की मांग की गई। किशन सेन, शशि रंगीला, पिक्कू ग्वाला जैसे कई नाम इन विवादास्पद गानों से जुड़े हैं, जिनके बोल इतने आपत्तिजनक हैं कि सार्वजनिक मंच पर उन्हें दोहराना भी मर्यादा के खिलाफ होगा।
छत्तीसगढ़ी संगीत पर जिस प्रकार का प्रभाव भोजपुरी गानों का पड़ा है, वह चिंताजनक है। भोजपुरी संगीत लंबे समय से अश्लीलता और महिलाओं की छवि को लेकर विवादों में रहा है। मनोज तिवारी और रवि किशन जैसे गायक-राजनेताओं के गीतों पर भी महिलाओं को वस्तु की तरह प्रस्तुत करने के आरोप लगे हैं। नेहा सिंह राठौर जैसी युवा कलाकारों ने इस पर खुलकर आवाज़ उठाई है।
छत्तीसगढ़ी संगीत भी अब उसी दिशा में बढ़ रहा है। वीडियो एल्बमों में सेंसरशिप की गैरमौजूदगी और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर व्यूज़ और कमाई की लालसा ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ाया है। लोककला समाज की आत्मा होती है, जो उसकी चेतना और संस्कृति को प्रतिबिंबित करती है। संतोष जैन जैसे वरिष्ठ कलाकारों की आशंका वाजिब है कि अगर यही प्रवृत्ति जारी रही तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा भी भोजपुरी की तरह पारिवारिक दर्शकों से कट जाएगा।
अश्लीलता कोई नई बात नहीं, लेकिन पहले वह सीमित, निजी दायरों तक थी। आज सोशल मीडिया और रील संस्कृति ने इसे सार्वजनिक और सामान्य बना दिया है। फेसबुक, यूट्यूब पर पति-पत्नी और प्रेमी जोड़े अपने निजी क्षणों को भी ‘कंटेंट’ में बदल रहे हैं।
ओशो ने कभी कहा था कि अश्लीलता देखने वाले की नजऱ में होती है, दृश्य में नहीं। यह विचार दर्शन की दृष्टि से रोचक हो सकता है, लेकिन समाज में उसकी व्याख्या और उपयोग कैसे होता है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
सेंसर बोर्ड केवल सिनेमाघरों तक सीमित है, जबकि यूट्यूब, रील्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म इसके दायरे से बाहर हैं। सरकार ने 2021 में डिजिटल मीडिया के लिए दिशा-निर्देश लागू किए हैं, लेकिन क्रियान्वयन की गति धीमी और प्रभाव सीमित है। अश्लीलता को परिभाषित करना और उस पर कार्रवाई करना अब भी चुनौती बना हुआ है।
आज जरूरत है एक संतुलन की—जहां रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनी रहे, लेकिन साथ ही सांस्कृतिक मर्यादा और सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभाया जाए। अश्लीलता सिर्फ मनोरंजन नहीं, वह समाज की सोच और दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।
छत्तीसगढ़ में कलाकारों और युवाओं का यह संगठित विरोध एक सकारात्मक संकेत है। इस आंदोलन को केवल क्षेत्रीय सीमा तक न रखकर राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और नीति निर्माण का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ी लोककला को अश्लीलता के बाजार से बचाना सिर्फ एक सांस्कृतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि अगली पीढ़ी को स्वस्थ और मूल्यों से युक्त मनोरंजन देने की जरूरत है। यह समय है जब समाज, सरकार और कलाकार मिलकर तय करें कि ‘लोककलाÓ की रक्षा, केवल अतीत की स्मृति नहीं, वर्तमान की प्राथमिकता भी बननी चाहिए।