Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – एडल्टरस और लिव इन रिलेशन को कोर्ट की तल्ख़ टिप्पणी

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

जब भी कोई कोर्ट आम रूटीन से हटकर कोई फैसलों सुनाती है, तो उसकी नज़ीर बनकर अच्छी खासी चर्चा होने लगती है। दांपत्य जीवन में आ रहे बदलाव और लिव इन रिलेशनशिप को लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का फैसला और तल्ख टिप्पणी इन दिनों आपसी विमर्श में और सोशल मीडिया में वायरल है।

एडल्टरस रिलेशन वो रिलेशन होते हैं, जब कोई शादीशुदा इंसान अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाए। ये एक्स्ट्रामैरिटल रिलेशन से अलग है। क्योंकि उसमें (एक्स्ट्रामैरिटल रिलेशन) यौन संबंध बनाए गए हों, ये जरूरी नहीं होता। विवाहेतर संबंध और विवाह में रहते हुए संबंधों को लेकर कोर्ट आये दिन फ़ैसले देता है टिप्पणी करते है। अभी हाल में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक फैसला दिया है, जो एडल्टरस रिलेशन की बात करता है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि विवाहेतर संबंध में रहने वाली पत्नी को मेंटेनेंस नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक मामले में पत्नी की मेंटेनेंस की मांग खारिज कर दी, क्योंकि उसे अपने पति के छोटे भाई के साथ व्यभिचारी संबंध में पाया गया था। परिवार कोर्ट ने पहले पति को 4,000 रुपये मासिक मेंटेनेंस देने का आदेश दिया था, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया, सीआरपीसी की धारा 125(4) का हवाला देते हुए, जो व्यभिचार में रहने वाली पत्नी को मेंटेनेंस से वंचित करता है। यह फैसला अन्य भारतीय कोर्ट, जैसे कर्नाटक हाईकोर्ट, के समान फैसलों के अनुरूप है। पिछले दिनों एक अलग मामले में, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को भारतीय संस्कृति के लिए ‘कलंक’ बताया, इसे पश्चिमी प्रभाव का परिणाम मानते हुए। कोर्ट ने कहा कि विवाह की तुलना में लिव-इन रिलेशनशिप सुरक्षा, सामाजिक स्वीकार्यता और स्थिरता प्रदान नहीं करता। ये फैसले कानूनी रूप से पारंपरिक विवाह पर जोर देते हैं, लेकिन शहरी भारत में, जहां लिव-इन रिलेशनशिप और गैर-पारंपरिक परिवार संरचनाएं बढ़ रही हैं, ये विवादास्पद हो सकते हैं। यह भविष्य में कानूनी चुनौतियों और सुधारों की मांग को जन्म दे सकता है।

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भारत में, परिवार कानून मुख्य रूप से हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) जैसे कानूनों द्वारा शासित होता है। सीआरपीसी की धारा 125 परिवार के सदस्यों, विशेष रूप से पत्नी, बच्चों और माता-पिता को मेंटेनेंस प्रदान करने का प्रावधान करती है। हालांकि, धारा 125 (4) स्पष्ट रूप से कहती है कि यदि पत्नी व्यभिचार में रह रही है या बिना पर्याप्त कारण के पति को छोड देती है, तो उसे मेंटेनेंस का हक नहीं है। इसके अलावा, लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता हाल के दशकों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, जैसे इंद्र शर्मा बनाम वी. के. वी. शर्मा, के माध्यम से मिली है, लेकिन यह अभी भी सामाजिक और कानूनी चुनौतियों का सामना करता है।

बिलासपुर हाई कोर्ट ने पति की रिवीजन पिटीशन को स्वीकार कर लिया। फैमली कोर्ट के मेंटेनेंस आदेश को खारिज कर दिया। वहीं, मेंटेनेंस राशि बढ़ाने की मांग करने वाली महिला की याचिका खारिज कर दी गई।

इससे पहले, रायपुर के फैमिली कोर्ट ने सितंबर, 2023 में जब तलाक का आदेश दिया, तब कानूनी रूप से इस बात (एडल्टरस रिलेशन) को स्थापित किया गया था। लेकिन फैमिली कोर्ट ने इस सबूत को नज़रअंदाज कर दिया। वकील ने ये भी कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 (4) की भी अवहेलना की गई, जो एडल्टरस रिलेशन से जुड़ी हुई है। महिला के वकील ने एडल्टरस रिलेशन के दावे का खंडन किया। उन्होंने तर्क दिया कि कोई भी पिछली एक्स्ट्रामैरिटल रिलेशन उस समय नहीं थी, जब उसने मेंटेनेंस के लिए आवेदन दायर किया था। इसके अलावा, वकील ने तर्क दिया कि पत्नी की आय की कम है, जिससे वो अपनी जिंदगी नहीं चला पा रही। जबकि पति के आय के कई स्त्रोत हैं।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस अरविंद वर्मा ने अपना फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि एडल्डरस रिलेशन के आधार पर दिया गया तलाक सीआरपीसी की धारा 125 (4) के तहत आता है। हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले (शांताकुमारी बनाम थिम्मेगौड़ा) का हवाला दिया। इस मामले में बताया गया था कि शादी में रहते हुए एडल्टरस रिलेशन में रहने वाली पत्नी मेंटेनेंस की हकदार नहीं है। ऐसे में उन आधारों पर तलाक के दावे को बहाल नहीं किया जा सकता। बिलासपुर हाईकोर्ट के ये फैसले कानूनी रूप से पारंपरिक विवाह पर जोर देते हैं, लेकिन शहरी भारत में, जहां लिव-इन रिलेशनशिप और गैर-पारंपरिक परिवार संरचनाएं बढ़ रही हैं, ये विवादास्पद हो सकते हैं। यह भविष्य में कानूनी चुनौतियों और सुधारों की मांग को जन्म दे सकता है।

भारत में वैवाहिक संबंध, विवाहेतर संबंध और लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े कानूनी फैसले हाल के वर्षों में महत्वपूर्ण रहे हैं, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के हाल के फैसलों ने इस क्षेत्र में रुचि बढ़ाई है। यह सर्वेक्षण नोट हाल के दो प्रमुख फैसलों पर केंद्रित है (1) एक पत्नी को मेंटेनेंस से वंचित करना, जो व्यभिचार में पाई गई थी, और (2) लिव-इन रिलेशनशिप को भारतीय समाज के लिए ‘कलंक’ कहना। यह टिप्पणी एक हिरासत मामले में आई, जहां एक पुरुष ने लिव-इन रिलेशनशिप से जन्मे बच्चे की हिरासत मांगी थी। कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप ‘पश्चिमी प्रभाव’ का परिणाम है और पारंपरिक भारतीय मूल्यों के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा कि विवाह की तुलना में लिव-इन रिलेशनशिप सुरक्षा, सामाजिक स्वीकार्यता और स्थिरता प्रदान नहीं करता। यह रिश्ता इसलिए पसंद किया जाता है क्योंकि यह समाप्त करने में आसान है, लेकिन सामाजिक रूप से इसे कलंक माना जाता है। यह टिप्पणी रूढ़िवादी दृष्टिकोण को दर्शाती है, जो शहरी भारत में बढ़ते लिव-इन रिलेशनशिप के साथ टकराव पैदा कर सकता है, जहां ये रिश्ते अधिक स्वीकार्य हो रहे हैं। दोनों फैसले भारतीय कानूनी प्रणाली में पारंपरिक परिवार संरचनाओं पर जोर देते हैं। मेंटेनेंस का फैसला सीआरपीसी की धारा 125(4) पर आधारित है, जो व्यभिचार को मेंटेनेंस से वंचित करने का स्पष्ट प्रावधान करता है। दूसरी ओर, लिव-इन रिलेशनशिप पर टिप्पणी सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों को दर्शाती है, जो विवाह को प्राथमिकता देती है।

मेंटेनेंस का फैसला वित्तीय रूप से निर्भर महिलाओं के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, विशेष रूप से यदि वे व्यभिचार में पाई जाती हैं। यह सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से विवादास्पद हो सकता है। लिव-इन रिलेशनशिप पर टिप्पणी ग्रामीण और रूढ़िवादी क्षेत्रों में कलंक को बढ़ा सकती है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में, जहां ये रिश्ते स्वीकार्य हो रहे हैं, यह असहमति पैदा कर सकता है। ये फैसले भविष्य में कानूनी चुनौतियों को आमंत्रित कर सकते हैं, विशेष रूप से लिव-इन रिलेशनशिप के अधिकारों और संरक्षण के लिए। सुप्रीम कोर्ट पहले से ही कुछ मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दे चुका है, लेकिन क्षेत्रीय कोट्र्ट्स की रूढ़िवादी टिप्पणियां इस प्रवृत्ति को प्रभावित कर सकती हैं।

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