Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – जानलेवा फर्जीवाड़ा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से - जानलेवा फर्जीवाड़ा

-सुभाष मिश्र

देश में डिग्रियों, नौकरियों, असली-नक़ली और अमानक चीजों की आपूर्ति को लेकर कई तरह के फर्जीवाड़े सुनाई देते हैं, किन्तु यदि यह फर्जीवाड़ा जब लोगों के लिए जानलेवा साबित होने लगे तो फिर पूरी चयन प्रक्रिया और उन संस्थाओं पर भी सवाल खड़ा करता है जिन पर लोगों को भरोसा है। अस्पताल में लोग अपनी जान बचाने की उम्मीद से भर्ती होते हैं किन्तु यहां फर्जी डिग्री वाले डॉक्टर की वजह से उनकी जान चली जाती है। वैसे हमारे अस्पतालों में डॉक्टरों और प्रबंधन की लापरवाही से भी बहुत से लोगों की जानें आये दिन जाती रहती हैं
अभी हॉल ही में मध्यप्रदेश के दमोह के मिशन अस्पताल में एक शख्स, जिसका असली नाम नरेंद्र विक्रमादित्य यादव बताया जा रहा है, ने फर्जी दस्तावेजों के जरिए नौकरी हासिल की। उसने खुद को लंदन से प्रशिक्षित कार्डियोलॉजिस्ट (एन जॉन केम) के रूप में पेश किया और हृदय संबंधी सर्जरी करने का दावा किया। इस दौरान उसने 15 ऑपरेशन किए, जिनमें से 7 मरीजों की मौत हो गई। इसके पहले उसने छत्तीसगढ़ के बिलासपुर स्थित अपोलो अस्पताल में नौकरी करते हुए आठ और लोगों की जान ली। इस फर्जी डॉक्टर से इलाज कराकर अपनी जान गंवाने वालों में मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री, छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष स्वर्गीय राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला भी थे। फर्जी डिग्रीधारी डाक्टर ने जब बहुतों की जान ले ली। इसके बाद सूचना के अधिकार के तहत उसकी सही जानकारी बाहर आई। जानकारी बाहर आने के बाद सोया तंत्र जिसमें चिकित्सा संस्थाएं भी हैं, होश में आई। तब तक 15 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके थे।

प्रसंगवश यह शेर याद आता है-
बड़ी देर कर दी मेहरबान आते-जाते
तुम्हे देखकर थम गई मेरी जान जाते-जाते।।

Related News

कथित फर्जी डॉक्टर ने ब्रिटेन के मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर जॉन केम के नाम का दुरुपयोग किया था। यह घटना स्वास्थ्य सेवाओं में सत्यापन की कमी और मरीजों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल उठाती है।
मध्य प्रदेश के दमोह जिले में मिशनरी अस्पताल में प्रैक्टिस करने वाले एक फर्जी हृदय रोग विशेषज्ञ के बाद अब जबलपुर से भी एक फर्जी डॉक्टर का मामला सामने आया है। आरोपी डॉक्टर बीजेपी जिला चिकित्सा प्रकोष्ठ का सहसंयोजक भी है। वह फर्जी आयुष डिग्री के आधार पर यहां एक सरकारी अस्पताल में काम करता था। फिलहाल जबलपुर जिले की एक अदालत के आदेश के बाद पुलिस ने फर्जी डॉक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर जांच भी शुरू कर दी है। शुभम अवस्थी के खिलाफ 5 अप्रैल को मामला दर्ज किया गया है। इससे दो दिन पहले मध्य प्रदेश के दमोह जिले में एक मिशनरी अस्पताल में प्रैक्टिस करने वाले एक अन्य फर्जी हृदय रोग विशेषज्ञ की गिरफ्तारी हुई थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दर्ज शिकायत के अनुसार, फर्जी डॉक्टर द्वारा इलाज किए गए सात हृदय रोगियों की मृत्यु हो चुकी है।
रीएजेंट घोटाले के नाम से चर्चित घोटाले में स्वास्थ्य विभाग अधिकारियों ने सिंडीकेट बनाकर साजिश के तहत बाजार मूल्य से कई गुना अधिक कीमत पर मेडिकल उपकरणों एवं दवाइयों की खरीदी कर 660 करोड़ का घोटाला किया। 55 हजार के रेफ्रिजरेटर को ढाई लाख में खरीदा। ब्लड जांच वाली 700 मशीनें बंद पाई गई जिन्हें बाजार रेट से 8 से 10 गुना अधिक कीमत पर खऱीदा गया। छत्तीसगढ़ मेडिकल सर्विसेस कार्पोरेशन लिमिटेड (सीजीएमएससी) घोटाले में तत्कालीन प्रभारी महाप्रबंधक बंसत कुमार कौशिक, बायो मेडिकल इंजीनियर छिरोद रौतिया, उपप्रबंधक कमलकांत पाटनवार, डॉ. अनिल परसाई, मेडिकल इंजीनियर दीपक कुमार बंधे को गिरफ्तार किया। इस प्रकरण में मोक्षित कार्पोरेशन दुर्ग के संचालक शंशाक चोपड़ा को पहले ही गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है। अभी दो आईएएस अधिकारियों की संलिप्तता इस प्रकरण में पाई गई है जिन पर भी शीघ्र कार्रवाई होगी।
अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग विभाग के अधीनस्थ उच्च स्तरीय छानबीन समिति ने 98 लोगों को फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर सरकारी नौकरी में पाया है। इस घोटाले में यदि दोषियों पर कार्रवाई होती है तो 170 से अधिक कर्मचारियों की नौकरी पर खतरा मंडरा सकता है। कोर्ट के हस्तक्षेप और सरकारी लेटलतीफ़ी के कारण फिलहाल अधिकांश मामलों की जांच चल रही है। छत्तीसगढ़ सरकार के कृषि विभाग में फर्जी दिव्यांग प्रमाण पत्र के आधार पर नौकरी करने के 72 मामले सामने आए हैं।
राजस्थान सरकार ने फर्जी डिग्री से नौकरी पाने वाले 134 शारीरिक शिक्षकों और अन्य 30 कर्मचारियों को सेवा से बर्खास्त कर दिया है। इन सभी 134 शारीरिक शिक्षकों के खिलाफ एसओजी ने फर्जी दस्तावेज़ और फर्जी डिग्री के आधार पर नौकरी पाने का मुक़दमा दर्ज किया है। राजस्थान में सरकारी 156 फायरमैन को फर्जी डिग्री डिप्लोमा लगाकर नौकरी पाने के रैकेट में पकड़ा गया है। राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड की परीक्षा में 600 फ़ायरमैन सफल हुए थे, जिसमें से 400 को नियुक्ति दे दी गई थी।
दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के अधीन संचालित दूरस्थ शिक्षा निदेशालय की मार्कशीट व डिग्रियां राज्य के बाहर धड़ल्ले से बिक रही हैं। 19 मार्च को देश के अनेक विश्वविद्यालयों की फर्जी मार्कशीट बनाने वाले गिरोह को पकड़ा गया है। यहां इंदिरा गांधी राष्ट्रीय ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) समेत देश की नामचीन सरकारी व निजी विश्वविद्यालय की मार्कशीटें बनाई जा रही थीं। युवाओं को सत्यापन की गारंटी भी दी जाती थी। एसटीएफ द्वारा आगरा में पकड़े गए सरगना ने पूछताछ में स्वीकार किया है कि नकली मार्कशीट बनवाने वाले 300 से ज्यादा युवा सरकारी नौकरी पा चुके हैं। अब तक विभिन्न प्रदेशों के 40 विश्वविद्यालयों की 900 से ज्यादा तैयार मार्कशीट डिग्री बरामद हुई है।
वैसे तो हमारे देश में नकली डिग्रीधारियों, नीम-हकीमों, झोलाछाप डॉक्टरों और बैगा-गुनिया जैसे कथित चिकित्सकों की भरमार एक जटिल समस्या है, जिसके पीछे कई कारण हैं। इसे केवल जागरूकता की कमी या चिकित्सकों की कमी तक सीमित नहीं किया जा सकता। यदि हम इसके कारणों की पड़ताल करें तो पायेंगे कि भारत में मेडिकल कॉलेजों और प्रशिक्षित डॉक्टरों की संख्या जनसंख्या की तुलना में अपर्याप्त है। ग्रामीण और छोटे शहरों में तो यह कमी और भी गंभीर है। नतीजतन, लोग प्रशिक्षित डॉक्टरों की अनुपस्थिति में झोलाछाप या नकली डिग्री वालों पर निर्भर हो जाते हैं। आम जनता, खासकर कम पढ़े-लिखे और गरीब तबके में, यह समझने की क्षमता कम है कि कोई व्यक्ति योग्य डॉक्टर है या नहीं। वे डिग्री या प्रमाण-पत्र की जांच करने के बजाय सस्ते और तुरंत इलाज के लालच में पड़ जाते हैं। मेडिकल प्रैक्टिस को नियंत्रित करने वाले कानून जैसे कि इंडियन मेडिकल काउसिंल एक्ट का सख्ती से पालन नहीं होता। नकली डिग्री वालों के खिलाफ कार्रवाई में देरी या भ्रष्टाचार के चलते ये लोग बच निकलते हैं।
निजी अस्पतालों में इलाज महंगा होने और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लंबी प्रतीक्षा के कारण लोग सस्ते विकल्पों की ओर जाते हैं, भले ही वे अवैध हों। झोलाछाप डॉक्टर कम कीमत पर इलाज का वादा करते हैं, जिससे उनकी मांग बनी रहती है। कई झोलाछाप डॉक्टर बिना औपचारिक डिग्री के किसी योग्य डॉक्टर के अधीन काम करके या फार्मेसी चलाकर अनुभव हासिल कर लेते हैं और फिर खुद को चिकित्सक घोषित कर देते हैं।
नकली दवाओं का फल-फूलता कारोबार भी इन्ही कारणों से जुड़ा है, लेकिन इसके कुछ अतिरिक्त पहलू भी हैं। दवा वितरण में पारदर्शिता और निगरानी की कमी के कारण नकली दवाएं बाजार में पहुंच जाती हैं। झोलाछाप डॉक्टर अक्सर ऐसी दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि ये सस्ती होती है। नकली दवा बनाने वाले और बेचने वाले मोटे मुनाफे के लिए इस धंधे में है। ड्रग कंट्रोलर और फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन जैसे संस्थानों के पास संसाधनों और अधिकारियों की कमी है, जिससे नकली दवाओं पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाती।
यह समस्या जागरूकता की कमी और चिकित्सकों की कमी दोनों का परिणाम है, लेकिन इसके मूल में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की असमानता, कानून का कमजोर क्रियान्वयन और आर्थिक मजबूरी भी है। नकली दवाओं का कारोबार इन कमियों का फायदा उठाकर पनपता है। इसे रोकने के लिए जनजागरूकता, सख्त कानूनी कार्रवाई और स्वास्थ्य ढांचे में सुधार की जरूरत है।

Related News