Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – वैवाहिक संबंधों में बढ़ता अलगाव, साइलेंट डायवोर्स

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

साइलेंट डायवोर्स अब एक ग्लोबल शब्द युग में बन चुका है और यह कोई ऐसा शब्द भी नहीं रहा कि बहुत पहले पश्चिमी देशों में आया और फिर हमारे यहां आया है। टेक्नोलॉजी के विकास और खास करके सूचना और संचार माध्यमों के बहुत तेजी से पहले संजाल के कारण अब इस तरह की कोई भी चीज पर किसी भी देश का कोई एकाधिकार नहीं रहा है। विवाह संस्था के कमजोर हो जाने की घोषणा बहुत पहले हो चुकी है। फिर लिव इन रिलेशनशिप चर्चा में रहा और अब साइलेंट डायवोर्स चर्चा में है। साइलेंट डायवोर्स या अदृश्य या भावनात्मक तलाक दरअसल एक किस्म का अनुबंध होता है जिसमें दंपत्ति एक ही छत के नीचे रहते हैं लेकिन उनके बीच मानसिक, भावनात्मक या दैहिक रिश्ते खत्म हो जाते हैं। इनके कारण बहुत सारे हैं। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। जब रिश्ते निभाने कठिन हो जाते हैं तो आजकल दंपत्ति को यह लगता है कि तलाक में समय बहुत लगता है। पैसा बहुत खर्च होता है। मानसिक तनाव भी दोनों पक्ष को भोगना पड़ता है। इसके कारण बीच का यह रास्ता निकाला है कि आर्थिक सेटलमेंट जो भी हो जाए लेकिन कोर्ट में जाने की अपेक्षा एक ही छत के नीचे रहा जाए जो बच्चों के लिए भी हितकर होता है और आर्थिक मानसिक और भावनात्मक तनाव से बचा जाता है। वकील की फीस और कोर्ट के भाग दौड़ से भी बचा जाता है। इस तरह के तलाक में पति-पत्नी पूरी तरह से मुक्त होते हैं। उनके बीच सारे अनौपचारिक रिश्ते खत्म हो जाते हैं सिर्फ वे समाज में दिखावे के लिए पति-पत्नी होते हैं।

साइलेंट डाइवोर्स में एक लाभ पति-पत्नी यानि दोनों पक्षों को यह भी लगता है कि तलाक की प्रक्रिया भारतीय अदालतों में बहुत लंबी चलती है इसलिए उन लोगों को लगता है की उम्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अदालतों के चक्कर लगाने में चला जाता है। जब तलाक मिलता है तो आर्थिक नुकसान भी होता है और सबसे बड़ा नुकसान होता है युवावस्था का गुजर जाना। उसके बाद दूसरी शादी या दूसरे रिश्ते की संभावना भी लगभग खत्म हो जाती है। दोनों पक्ष इस संभावना को खोना नहीं चाहते हैं। इसलिए साइलेंट डायवर्स के इस पक्ष ने पति-पत्नी दोनों को इस तरह के समझौते के लिए तैयार किया है।

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वैवाहिक संबंधों में अलगाव का अर्थ है पति-पत्नी के बीच भावनात्मक, मानसिक या शारीरिक दूरी का बढऩा। इसका कारण आधुनिक जीवनशैली और व्यस्तता, करियर की दौड़, लंबे काम के घंटे और तकनीकी व्यस्तता के कारण दंपतियों को एक-दूसरे के लिए समय कम मिलता है। आपस में संवादहीनता और संचार की कमी, खुलकर बातचीत न करना, भावनाओं को दबाना और गलत फहमियां संबंधों में दरार पैदा करती है। वैचारिक मतभेद भी इसका बड़ा कारण है। शिक्षा, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बढऩे से वैवाहिक जोड़ों में विचारों का टकराव आम हो गया है। कई बार दो अलग वर्ग के लोग भी एक साथ जुड़ जाते हैं तो दिक्कत शुरू होती है। मध्यवर्ग की लड़की एलीट क्लास में चली जाती है या एलीट क्लास की लड़की मध्य वर्ग में आ जाती है तो थोड़े ही समय बाद उसे अपनी नियमित जीवन शैली पर दबाव महसूस होने लगता है। यदि संयुक्त परिवार है और घर में माता-पिता या वरिष्ठजन पुराने विचारों के हैं तो वह दबाव अलग से बनता है। सामाजिक दबाव और अपेक्षाओं के कारण परिवार, समाज और ससुराल से अपेक्षाएं अक्सर तनाव का कारण बनती है।

व्यक्तिगत जीवन में व्यस्तता जैसे सोशल मीडिया, दोस्तों या करियर में डूब जाना भी आम बात हो गई है। बहुत सारे दंपति बच्चों या सामाजिक दबाव के कारण साथ रहना लेकिन रिश्ते में कोई अंतरंगता नहीं होती। भारत जैसे देशों में तलाक को अभी भी नकारात्मक रूप से देखा जाता है जिसके कारण कई दंपति औपचारिक अलगाव से बचते हैं। महिलाओं में बढ़ती आर्थिक निर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता की कमी साइलेंट डायवर्स को बढ़ावा देती है। बच्चों के भविष्य को देखते हुए कई जोड़े बच्चों के लिए रिश्ते को बनाए रखते हैं, भले ही वह केवल दिखावटी हो। इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है जिसकी वजह से तनाव, अवसाद और चिंता बढ़ती है। इसका बच्चों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे माता-पिता के बीच तनाव को महसूस करते हैं।

आजकल युवा पीढ़ी में विवाह के प्रति उदासीनता या इसे टालने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसके पीछे बहुत से कारण है जिनमें स्वतंत्रता की चाह भी एक वजह है। युवा, करियर, व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता को प्राथमिकता दे रहे हैं। विवाह के प्रति बदलता दृष्टिकोण भी इसका एक कारण है। पारंपरिक विवाह को बोझ के रूप में देखा जा रहा है। खासकर जब इसमें सामाजिक और पारिवारिक दबाव शामिल हों।

बढ़ती महंगाई, नौकरी की अनिश्चितता और आवास की लागत के कारण कई लोग विवाह को स्थगित कर रहे हैं। बिना विवाह के विवाह जैसा सुख और वैवाहिक जिम्मेदारी से छुटकारा और जब न पटे तो आसानी से अलगाव की वजह से लिव-इन रिलेशनशिप की स्वीकार्यता शहरी क्षेत्रों में बढ़ी है। लिव-इन रिलेशनशिप को एक विकल्प के रूप में देखा जा रहा है जो विवाह की औपचारिकता से बचाता है।

लिव-इन की एक वजह विवाह में असफलता का डर, तलाक और डायवोर्स के समय मांगी जाने वाली भारी-भरकम राशि और पुलिस में की गई शिकायतों से आने वाली परेशानियों का डर भी है। असफल विवाहों की बढ़ती संख्या के कारण कई लोग विवाह से हिचकिचाते हैं। यह सही है कि भारत में तलाक की दर पश्चिमी देशों की तुलना में कम है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें वृद्धि देखी जा रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और अन्य अध्ययनों के अनुसार, भारत में तलाक की दर 1 फीसदी से कम है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में यह 2-3 फीसदी तक हो सकती है। कोर्ट केस डेटा के अनुसार, 2015 से 2023 तक तलाक के मामलों में 15-20 फीसदी की वृद्धि हुई है।

आर्थिक रूप से स्वतंत्रता महिलाएं अस्वस्थ रिश्तों को छोडऩे में सक्षम हैं। वहीं कानूनी सुधार होने से तलाक के कानूनों में सुधार जैसे आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया को आसान किया है। तलाक के बाद एकल अभिभावक परिवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है। इसे रोकने के लिए विवाह पूर्व परामर्श की जरूरत है। विवाह से पहले जोड़ों को परामर्श देना या ताकि वे एक-दूसरे की अपेक्षाओं और जिम्मेदारियों को समझ सकें। दंपतियों को खुलकर बात करने और भावनाओं को साझा करने के लिए प्रोत्साहित करना।

वैवाहिक संबंधों में बदलाव आधुनिक समाज की गतिशीलता को दर्शाते हैं। जहां एक ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को महत्व दिया जा रहा है, वहीं पारंपरिक मूल्यों और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच टकराव भी बढ़ रहा है। वैवाहिक संबंधों में बढ़ता अलगाव, साइलेंट डायवोर्स, विवाह से बचने की प्रवृत्ति, और तलाक के मामलों में वृद्धि आधुनिक समाज की जटिलताओं को दर्शाती है। मनोवैज्ञानिक वैवाहिक संबंधों में अलगाव और तलाक के मामलों को मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक गतिशीलता के दृष्टिकोण से देखते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि वैवाहिक संबंधों में अलगाव का प्रमुख कारण भावनात्मक असंगति और संचार की कमी है। डॉ. जॉन गॉटमैन जैसे वैश्विक विशेषज्ञों ने चार घुड़सवार (आलोचना, अवमानना, रक्षात्मकता, और दीवार खड़ी करना) को रिश्तों के टूटने के प्रमुख संकेतक बताया है। साइलेंट डायवोर्स की स्थिति में दंपति अक्सर अवसाद, चिंता, और कम आत्मसम्मान से जूझते हैं। भारतीय मनोवैज्ञानिक, जैसे डॉ. भावना बर्मी, ने बताया कि सामाजिक दबाव और तलाक के कलंक के कारण कई जोड़े इस स्थिति में फंस जाते हैं, जिससे उनकी मानसिक सेहत पर गहरा असर पड़ता है। यह विशेष रूप से शहरी, शिक्षित युवाओं में देखा जाता है जो स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते हैं। तनाव प्रबंधन और भावनात्मक लचीलापन विकसित करने के लिए तकनीकें, जैसे माइंडफुलनेस।

पारिवारिक परामर्शदाता वैवाहिक समस्याओं को पारिवारिक और सामाजिक संदर्भ में देखते हैं, विशेष रूप से भारत जैसे देशों में, जहां संयुक्त परिवार और सामाजिक अपेक्षाएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परामर्शदाताओं के अनुसार, ससुराल या परिवार की अत्यधिक हस्तक्षेप, वित्तीय तनाव और बच्चों की परवरिश से संबंधित मतभेद वैवाहिक तनाव को बढ़ाते हैं। भारत में जहाँ विवाह को दो परिवारों का मिलन माना जाता है, ये दबाव और गहरे हो जाते हैं। परामर्शदाता साइलेंट डायवर्स की स्थिति को सुधारने के लिए युगल थैरेेपी की सलाह देते हैं, जिसमें जोड़े को एक-दूसरे की भावनाओं और जरूरतों को समझने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वे मानते हैं कि बच्चों के लिए साथ रहना हमेशा लाभकारी नहीं होता, अगर रिश्ता विषाक्त हो।

परामर्शदाता तलाक को अंतिम उपाय मानते हैं, लेकिन इसे अस्वास्थ्यकर रिश्तों से मुक्ति का एक रास्ता भी मानते हैं। वे जोड़ों को आपसी सहमति से तलाक या मध्यस्थता की प्रक्रिया को समझने में मदद करते हैं। परामर्शदाताओं का कहना है कि युवा विवाह को स्थगित करने या टालने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप जैसे विकल्प चुन रहे हैं जो सामाजिक बदलाव का हिस्सा है।

सेक्स विशेषज्ञ वैवाहिक संबंधों में अंतरंगता और यौन संतुष्टि को एक महत्वपूर्ण कारक मानते हैं। सेक्स विशेषज्ञ जैसे भारत की डॉ. प्रकाश कोठारी, मानते हैं कि वैवाहिक अलगाव का एक बड़ा कारण यौन असंतुष्टि और अंतरंग-दूसरे से अंतरंगता की कमी है। साइलेंट डायवर्स की स्थिति में अक्सर जोड़े शारीरिक अंतरंगता से पूरी तरह दूर हो जाते हैं। भारत में यौन शिक्षा की कमी और यौन चर्चा पर सामाजिक वर्जनाएँ जोड़ों को अपनी यौन समस्याओं पर खुलकर बात करने से रोकती हैं। इससे गलतफहमियां और असंतुष्टि बढ़ती है। विशेषज्ञों का कहना है कि यौन असंगति तलाक का एक छिपा हुआ कारण हो सकता है, हालाँकि इसे अक्सर सामाजिक कारणों के पीछे छिपा दिया जाता है।

यदि हम विवाह नामक संख्या या परंपरा की बात करें तो विवाह प्रणाली की उत्पत्ति मानव सभ्यता के विकास के साथ हुई और इसका स्वरूप समय, स्थान और संस्कृति के अनुसार बदलता रहा। प्रागैतिहासिक काल यानी प्रारंभिक मानव समुदायों में विवाह का कोई औपचारिक स्वरूप नहीं था। संभवत: साथी चयन प्रजनन और सामाजिक सहयोग के लिए था। समूहों में संसाधनों और संतानों की देखभाल के लिए जोड़े बनते थे। प्राचीन सभ्यताएं में मेसोपोटामिया, मिस्र भारत और चीन जैसी सभ्यताओं में विवाह सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन गया। यह संपत्ति, वंश, और सामाजिक गठबंधनों को बनाए रखने का साधन था। मध्यकाल में धर्म ने विवाह को और संगठित किया। ईसाई धर्म में विवाह को पवित्र संस्कार माना गया, जबकि इस्लाम में इसे अनुबंध (निकाह) के रूप में देखा गया। विवाह बंधन की शुरुआत के पीछे सामाजिक स्थिरता जिसमें विवाह ने परिवार इकाई बनाकर समाज को संगठित किया। विवाह के पीछे संसाधनों का साझा उपयोग और संतानों की देखभाल। वंश को आगे बढ़ाना और संपत्ति का हस्तांतरण भी शामिल है। इसके बाद यौन संबंधों को सामाजिक नियमों के दायरे में लाना भी इसका उद्देश्य है।

भारत में विवाह को लेकर जो धारणाएं है उसमें विवाह को जीवन का पवित्र बंधन माना जाता है, जो धर्म, कर्म और सामाजिक दायित्वों से जुड़ा है। हिंदू धर्म में इसे सात जन्मों का बंधन कहा जाता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में हिंदू विवाह को कानूनी रूप देता है। इसमें सात फेरे, कन्यादान जैसी रस्में शामिल हैं। मुस्लिम विवाह में निकाह एक अनुबंध है, जिसमें मेहर (दहेज) और सहमति महत्वपूर्ण है। सिख विवाह में आनंद कारज, गुरु ग्रंथ साहिब के समक्ष होता है। अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत संभव, लेकिन सामाजिक प्रतिरोध आम है।

लिव-इन रिलेशनशिप की वृद्धि के प्रमुख कारणों में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की चाह। विवाह की औपचारिकताओं और सामाजिक दबाव से बचना। विवाह की तुलना में कम खर्चीला। प्रेम और अनुकूलता का परीक्षण करने की इच्छा शामिल है। यदि हम इसकी कानूनी स्थिति की बात करें तो भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत कुछ अधिकार प्राप्त हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे वयस्कों का निजी अधिकार माना है, लेकिन सामाजिक स्वीकार्यता सीमित है।

पश्चिमी देशों में लिव-इन को कानूनी मान्यता (जैसे कॉमन-लॉ पार्टनरशिप) और सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त है। यूरोप और अमेरिका में लिव-इन रिलेशनशिप की दर बढ़ रही है। उदाहरण के लिए यूएस में 2020 तक 15 फीसदी जोड़े लिव-इन में थे। लिव इन रिलेशनशिप की वजह से विवाह का स्वरूप बदल रहा है किन्तु विवाह खत्म नहीं हो रहा, बल्कि इसका स्वरूप बदल रहा है। लोग अब प्रेम, समानता और व्यक्तिगत पसंद पर आधारित विवाह को प्राथमिकता दे रहे हैं। लिव-इन और विवाह का सह-अस्तित्व: लिव-इन कई मामलों में विवाह का पूरक है। कई जोड़े लिव-इन के बाद विवाह करते हैं।

विवाह प्रणाली मानव सभ्यता का एक मूलभूत हिस्सा रही है, जो सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक आवश्यकताओं से विकसित हुई। विश्व भर में विवाह की प्रथाएं और धारणाएं विविध हैं, लेकिन आधुनिकता के साथ इसमें बदलाव आ रहा है। लिव-इन रिलेशनशिप ने विवाह की पारंपरिक अवधारणा को चुनौती दी है, लेकिन इसे पूरी तरह खत्म करने की बजाय यह वैकल्पिक जीवनशैली के रूप में उभर रहा है। भारत जैसे देशों में सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ें विवाह को मजबूत बनाए रखती हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आधुनिक मूल्यों के साथ इसका स्वरूप बदल रहा है। समाज को इन बदलावों को समायोजित करने के लिए लचीला और समावेशी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इन तमाम बातों से यह तो स्पष्ट होता है कि भारतीय विवाह आज भी आदर्श विवाह है। परंपरागत रूप से जो विवाह का स्वरूप है वही आदर्श विवाह है। यह संबंधों को स्थायित्व देता है। लिव-इन में संबंधों का स्थायित्व नहीं होता इसलिए दो लोग भावनात्मक रूप से ज्यादा नहीं जुड़ पाते हैं। संबंधों में स्थायित्व की संभावना ही भावनात्मक रिश्तों की जड़े मजबूत करती हैं। भारतीय विवाह में दो परिवारों के आपस में रिश्ते होते हैं। इस विवाह में शुरुआत से ही इस धारणा को बल मिलता है कि इससे परिवार आगे बढ़ेगा। बच्चे होंगे फिर उनके बच्चे होंगे। परिवार की वृद्धि, वंश की वृद्धि की कल्पना ही रिश्तो की मजबूती का कारण बनती है। जरूरत है तलाक के कारणों की खोज करना और उन कारणों को दूर करना है। तलाक के विकल्प नहीं बल्कि स्थाई संबंधों के विकल्प की तलाश की जाना है। इन सबका हल भारतीय संस्कृति में ही संभव है और इसको पश्चिम भी स्वीकार करता है।

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