-सुभाष मिश्र

मैं भी परसाई की कहानी चूहा और मैं की तरह इस लेख या कहूं आत्म साक्षात्कार का शीर्षक मैं और परसाई लिख सकता था किन्तु मेरी भी हिम्मत जैसी चूहे के सामने परसाई की नहीं हो पाई थी, मेरी भी वही स्थिति है।
यदि ठीक-ठीक याद करूं तो पठन-पाठन के स्तर पर मेरा गहरा जुड़ाव हरिशंकर परसाई से 1980 में हुआ। यही वह समय था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा से जुड़ा और उसी के साथ मुझे दो लोगों की ऐसी संगत मिली जो मीराबाई को मिली थी यानी संगत संग बैठ-बैठ लोकलाज खोई। तो ये दो संत थे स्वर्गीय विनोद शंकर शुक्ल और स्व.भगवान स्वरूप सरस। एक व्यंग्यकार थे तो दूसरे नवगीतकार। दिन में आफिस में नौकरी के समय सरस जी का सानिध्य मिलता तो रात्रि कालीन कालेज में विनोद शंकर शुक्ल का। पिता स्व. राधाकिसन मिश्रा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और ठेठ कांग्रेसी, हरिजन सेवक संघ के पदाधिकारी तो बड़े भाई बबन प्रसाद मिश्रा राष्ट्रीय संघ सेवक संघ से प्रभावित गंभीर पत्रकार संपादक। पिता यानी बाबूजी की सोच से हटकर बड़े भैय्या ने अपनी राह पकड़ी और उनके पास रहकर मैंने अपनी अच्छी बात ये रही की किसी ने किसी की राह में रोड़ा नहीं डाला। सब एक दूसरे का उतना ही सम्मान करते, एक दूसरे की बात सुनते। एक दूसरे से जुड़े लोगों से आत्मीयता से मिलते। यहां किसी प्रकार की कोई वैचारिक कटुता नहीं।
वैसे तो मुझे जबलपुर में 1975 से 1978 तक राईट टाउन में परसाई जी के घर के पास रहने का अवसर भी मिला किन्तु वैसी आत्मीयता नहीं बन पाई जैसी रायपुर आने के बाद, उन्हें पढऩे मिलने के बाद बनी। चंपा देवी रात्रिकालीन महाविद्यालय में एम.ए हिन्दी करने के दौरान हमें कुछ मित्रों ने विनोद शंकर शुक्ल के मार्गदर्शन में पहले व्यंग्यकार शीर्षक से फिर रजिस्ट्रेशन के बाद व्यंग्यशती, शीर्षक से व्यंग्य पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ दिया। हरिशंकर परसाई अंक के लिए जबलपुर जाकर परसाई जी से मिले, साक्षात्कार लिया। बहुत सारी बातें की। परसाई का जादू मेरे सिर चढ़कर बोलने लगा। एम.ए. फाईनल में परसाई पर लघुशोध किया। अब बारी परसाई के लेखन पर पीएचडी करने की आई। सब कुछ तय हो गया। परसाई जी ने मिलकर बहुत सी किताबें रिफ्रेंशन भी मांग लिए। इस बीच नौकरी, पत्रकारिता, सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधि और भीतर से यह डर की परसाई पर चलताऊ काम नहीं करूंगा, जो भी करूंगा वह श्रेष्ठ होगा। इस श्रेष्ठताबोध के चलते परसाई पर पीएचडी तो नहीं हो पाई किन्तु परसाई जीवन के अभिन्न हिस्से जरूर बन गये। परसाई अपने साथ कबीर, तुलसी महात्मागांधी, प्रेमचंद, मुक्तिबोध, गालिब सहित न जाने कितने लोगों को मेरे पास ले आये। सरकारी नौकरी करते समय परसाई के ये वाक्य से बड़े-बड़े अफसर बेचारे बहुत कमजोर होते हैं। ये तबादले से ज्यादा कुछ कर ही नहीं सकते। अगर ये कहें कि
ये बड़े-बड़े अफसर बेचारे बहुत कमजोर होते हैं। ये तबादले से ज्यादा कुछ कर ही नहीं सकते। अगर ये कहें कि तुम्हें मार डालूँगा, तो समझो कि ये तबादले करेंगे।
सुनो भई साधो, कहत कबिरा, पूछिये परसाई से जैसे कालम, परसाई की व्यंग्यरचनाओं और उनके जीवन से मुझे बहुत कुछ सीखने मिला। गर्दिश के दिन अकेले परसाई के नहीं ये, हमारे भी थे। हमें भी परसाई जी के तरह जाने पहचाने लोग मिले। आवारा भीड़ के खतरे समझ में आने लगे। दो नाक वाले लोगों से बहुत वास्ता पड़ा। नौकरी में रहते हुये ठिठुरता हुआ गणतंत्र तथा अकाल उत्सव नजदीक से देखा, महसूस किया। जब जब मन में कोई सवाल उठा आशंका हुई तुरंत परसाई को याद किया। वे हर बार मेरी मदद के लिए उपस्थित रहे और आज भी हैं।
जब देश आजाद हुआ जो सपने लोगों ने देखें थे वो पूरे नहीं हुए। देश में भ्रष्टाचार भाई-भतीजावाद बढऩे लगा ऐसे में परसाई जैसे लेखक मूल्यहीनता को लेकर चिंतित थे। परसाई से पूछने पर वे कहते हैं कि आजादी से पूर्व अंग्रेज इस देश को खा रहे थे। आधा खा चुके, तो देशी लोगों ने कहा कि बाकी हमें खा लेने दो।अंग्रेजों को दस्त लगने लगे थे। वे चले गए। यह 1647 की बात है। हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई। बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पावर है। लेकिन वास्तव में यह था-ट्रांसफर और डिश। थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।
परसाई अपने समय की सच्चाई के साथ-साथ आने वाले समय की सच्चाई को भी देख रहे थे। वे जानते थे कि इस देश के मूल समस्या से लोगों को भटकाकर उनकी आंखों पर कई तरह की पट्टी बांधकर वो सब दिखाया जाएगा जो उनके लिए सही नहीं है। परसाई के समय सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया उस तरह से नहीं आया था जिस तरह से आज है। ज्यादातर पत्र-पत्रिकाएं और अखबारों के जरिए लोगों तक सूचनाएं जाती थी। परसाई कहते हैं रोज अखबार उठाकर देखता हूँ। दो खबरें सामने आती हैं-कोई नया जादूगर और कोई नया साधु पैदा हो गया है। उसका विज्ञापन छपता है। जादूगर आँखों पर पट्टी बाँध स्कूटर चलाता है और ‘गरीबी हटाओÓ बाली जनता कामधाम छोड़कर, तीन-चार घण्टे आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर को देखती हजारों की संख्या में सड़क के दोनों तरफ बड़ी रहती है। ये छोटे जादूगर हैं। इस देश में बड़े-बड़े जादूगर हैं, जो छब्बीस सालों से आंखों पर पट्टी बाँधे हैं। जब वे देखते हैं कि जनता बकुला रही है और कुछ करने पर उतारू है, तो वे फौरन जादू का खेल दिखाने लगते हैं। पट्टी बाँधे राजनैतिक स्कूटर पर किधर जा रहे हो ? किस दिशा को जा रहे हो- समाजवाद? खुशहाली? गरीबी हटाओ? कौन-सा गन्तव्य है?’ वे कहते हैं,
‘गन्तव्य से क्या मतलब? जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है। हम दिखा रहे हैं। जनता को और क्या चाहिए ?Ó
जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए। उसे जादू के खेल चाहिए। मुझे लगता है, ये दो छोटे-छोटे जादूगर रोज खेल दिखा रहे हैं, इन्होंने प्रेरणा इस देश के राजनेताओं से ग्रहण की होगी। जो छब्बीस सालों से जनता को जादू के खेल दिखाकर खुश रखे हैं, उन्हें तीन-चार घण्टे खुश रखना क्या कठिन है! इसलिए अखबार में रोज फोटो देखता हूँ, किसी शहर में नये विकसित किसी जादूगर की।
हमारा समाज दिखावा पसंद समाज है जहां लोगों को अपनी झूठी शान सौकत और नाक बचाने की चिंता है। उन्हें कदम कदम पर दो तरह के नाक वाले दिखते हैं और इसमें दुर्भाग्य यह है कि कुछ गरीब लोग भी है जिन्हें किन्ही कारणों से अपनी नाक की चिंता है। लड़की की शादी के लिए ज्यादा खर्च न करें न उधार ले ऐसा मैं उन्हें समझा रहा था कि लड़की की शादी में टीमटाम कट जायेगी। व्यर्थ खर्च मत पर वे बुजुर्ग कह रहे थे, ‘आप ठीक कहते हैं, मगर रिश्तेदारों में नाक कटेगी। उनकी नाक काफी लम्बी थी। मेरा खयाल है, नाक की हिफाजत सबसे तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है।Ó छोटे आदमी की नाक ज्यादा इसी देश में होती है। और यातो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा बहुत नाजुक होती है। यह छोटा आदमी नाक को छिपाकर क्यों नहीं रखता ?
कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं। कालाबाजार में जेल हो आये हैं औरत खुलेआम दूसरे के साथ ‘बाक्सÓ में सिनेमा देखती है, लड़की का सार्वजनिक गर्भपात हो चुका है। लोग उस्तरा लिये नाक काटने को घूम रहे हैं। मगर काटें कैसे ? नाक तो स्टील की है। चेहरे पर पहले जैसी ही फिट है और शोभा बढ़ा रही है ।
जो बहुत होशियार हैं, वे नाक को तलवे में रखते हैं। तुम सारे श में ढूंढ़ो, नाक ही नहीं मिलती। नातिन की उम्र की दो लड़कियों से बन दो काटने से क्या होता है ? नाक तो चेहरे पर की कटे, तो कुछ मतलब हे है। और जो नाक रखते ही नहीं हैं, उन्हें तो कोई डर ही नहीं है। दो हैं जिनसे साँस ले लेते हैं।

परसाई अपने देखन में अपने आसपास की विसंगतियों, आपसी बोल व्यवहार और संवादों को भी बारिकी से देखते सुनते हैं। इसी लिए वे लिखते हैं। ‘जूते खा गयेÓ – अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे ख कैसे जाते हैं ? मगर भारतवासी ‘इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जा है।Ó
वे ऐसे लेखकों की आलोचना करने से नहीं हिचकते जो आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं किन्तु उनके व्यवहारिक जीवन में नहीं अपनाते। परसाई लिखते हैं। ‘मजा यह है कि भारतीय लेखक एक साथ दो युगों में जीता है-मध्य युग में और आधुनिक युग में। वह कुम्भनदास की तरह घड़े बनाकर नही जीता, पर कहता है- ‘सन्तन कहा सीकरी सों काम ।Ó वह रैदास की तरह जूते नहीं सीता, न कबीर की तरह कपड़े बुनता है- मगर बात उन्हीं के आदर्शों की करता है। यह एक छद्म क्रान्तिकारिता है। इनाम लेने की कोशिश में पीछे नहीं. अकादमियों के लाभ के लिए बराबर प्रयत्नशील, अच्छी सरकारी नौकरी की बराबर तलाश में- मगर साथ ही यह नारा भी कि सरकार लेखक को खरीद रही है। आप तो बाजार में खुद माल की तरह बैठे हैं और खरीदार को दोष देते हैं कि कम्बख्त हम लोगों को खरीद रहा है। फिर बरीदार क्या सिर्फ सरकार ही है? क्या इससे बड़े खरीदार नहीं हैं और क्या ‘मालÓ बिक नहीं रहा ?
हमारे देश में इस समय गांधी जी को लेकर सोशल मीडिया में बहुत सारी आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है। कोई उन्हें पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई उन्हें मुस्लमानों का पक्ष लेने वाला तो कोई उनके सत्य प्रयोग जिसमें ब्रह्मचर्य के प्रयोग किए थे। व्यभिचारी बता रहा है। ऐसा नहीं था कि गांधी जी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग को लेकर पहले सवाल नहीं उठते थे। जब परसाई से पूछा गया गांधीजी के ब्रह्मचर्य प्रयोग के बारे में आपका क्या कहना है?
तो उन्होंने उत्तर में कहा कि गांधीजी ने 4 बेटों के बाप होने के बाद लगभग जवानी की दोपहर में ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। उन्होंने पाँच व्रत लिये थे-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा। ब्रह्मचर्य के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अप्राकृतिक तथा अवैज्ञानिक है तथा इससे कुंठाएं तथा मानसिक विकृतियाँ पैदा होती है पर भारत में प्राचीनकाल से ब्रह्मचर्य को शक्ति का साधक माना गया है। ईसाई धर्म में भी पादरियों और साध्वियों (नन्स) के विवाह न करने की व्यवस्था है। पर आमतौर पर ब्रह्मचर्य धारण किए पादरी और नन्स क्रूर होते हैं। मिशन स्कूलों में पढ़ानेवाली ‘नन्सÓ सैडिस्ट (दूसरे को दुख देकर स्वयं सुख-बोध करना) होती हैं। ये बच्चों के कान खींचती, चिकोटी लेती तथा क्रूर व्यवहार करती हैं। यह काम के दमन के कारण है। कुछ पादरी समलैंगिक सम्बन्ध रखते हैं।
गांधीजी ने ब्रह्मचर्य का प्रयोग अपने अन्तिम दिनों में किया। यों ऐसा पहले भी होता था कि आधी रात को उनके शरीर में कँपकँपी होती थी। आश्रमवासी जब उनके हाथ-पाँव की मालिश करते थे, तब वे शान्त होकर सोते थे। मनोवैज्ञानिक इसे एक काम-क्रिया मानते हैं। नोआखाली में 1946 में गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के लिए यात्रा कर रहे थे, साथ में सुशीला नायर, मनु गांधी तथा दूसरे आश्रमवासी थे। नोआखाली में उन्होंने सोचा मेरे तप में कमी है। मेरा ब्रह्मचर्य शायद पूरा नहीं है। मैं ब्रह्मचर्य का प्रयोग करूँगा। यह प्रयोग कैसा हुआ, यह सबसे पहले पुस्तक रूप में लिखा उनके साथ यात्रा कर रहे प्रो. बोस ने। उनकी पुस्तक है-गांधी ज एक्सपेरिमेंट्स विथ ब्रह्मचर्य। प्रयोग यों था-उन्होंने पहले सुशीला नायर से कहा कि हम दोनों एक ही बिस्तर में सोएंगे। यों तब गांधीजी की उम्र 75 साल से आगे थी। सुशीला नायर तो बहाना बनाकर किसी और जगह काम करने चली गईं। तब गांधीजी ने मनु गांधी को राजी किया। दोनों एक ही बिस्तर में सोते थे। सुबह गांधीजी सोचते थे कि मुझे रात को कैसा लगा और मनु से पूछते थे। प्रो. बोस इससे असहमत थे। उन्होंने विरोध किया तो गांधीजी ने उनकी छुट्टी कर दी। प्रयोग चलता रहा। गांधीजी ने नेहरू, पटेल, कृपलानी आदि नेताओं को पत्र लिखे कि मैं यह प्रयोग कर रहा हूँ। सबसे मजे का जवाब कृपलानी ने दिया-आप तो महात्मा हैं। पर जरा सोचिए, आपकी देखादेखी छुटभैए, ब्रह्मचर्य का प्रयोग करने लगें तो क्या होगा? गांधीजी ने हरिजन में लेख भी लिखा। प्रो. बोस ने अपनी पुस्तक में यह सब विवरण दिया है और सवाल किया है वि मनोवैज्ञानिक इसका समाधान सोचें। गांधी कहते थे-मैं ईसा मसीह की तरह गॉड्स यूनफ (ईश्व नपुंसक) होना चाहता हूँ। प्यारेलाल विजय तेन्दुलकर, वेद मेहता वगैरह ने भी गांधीजी की जीवन में ब्रह्मचर्य के इस प्रयोग का विवरण दिया है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जीवन काम का दमन करने की यह प्रतिक्रिया थी। उन्हें रात को कँपकँपी आना और मालिश के ब शान्त होना भी, काम सन्तोष था। वे जीवन की अन्तिम रात तक यह प्रयोग करते रहे।

आज जब नाथूराम गोडसे को गांधी के समकक्ष बताकर महिमामंडित करने का काम किया जा रहा है। उनका मंदिर बनाया जा रहा है ऐसे समय यह जानना जारूरी है कि गोडसे ने गांधी की हत्या क्यों की। जब परसाई से यह प्रश्न पूछा गया कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या क्यों की? उन्हें क्या सजा मिली?
तो उसके उत्तर में परसाई कहते हैं कि नाथूराम गोडसे तो प्रतिनिधि था एक विचारधारा का। गांधीजी की हत्या एक खतरनाक विचारधारा ने की थी। यह विचारधारा है-हिन्दू फासिस्टवाद। जर्मन फासिस्टवाद ने दूसरा महायुद्ध कराया था। यह एक तरह का संगठित उन्माद होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसी ही फासिस्टी विचारधारा को मानता है जिसका उद्देश्य अलोकतांत्रिक फासिस्टी तानाशाहीवाला हिन्दू राष्ट्र त्यापित करना है। मगर संघ ने स्वाधीनता आन्दोलन में कोई हिस्सा नहीं लिया। वह दूर रहा। बल्कि अंग्रेज उसे अपना मित्र मानते थे।
गांधीजी धर्म और सम्प्रदाय के भेद के खिलाफ थे। वे ऐसा भारत चाहते थे जिसमें सब धर्मो और सम्प्रदायों के लोग समानता से रहें। हमारा संविधान इसी आधार पर बना है। गांधीजी हिन्दू फासिस्टवाद के रास्ते में सबसे बड़े बाधक व्यक्तित्व थे। देशवासी उनकी बात 40 सालों से मानकर देश के लिए लड़ रहे थे, जेल जा रहे थे, फॉसी पर टंग रहे थे, बलिदान दे रहे थे। गांधीजी को रास्ते से हटाना फासिस्टों के लिए जरूरी था। इसलिए गोडसे के द्वारा उनकी हत्या कराई गई। वह विचारधारा विभिन्न मुखौटों में सक्रिय है। ‘विश्व हिन्दू परिषद्Ó एक रूप है। एकात्मता या और महाभारत के रथ की यात्रा भी इसी विचारधारा का प्रचार है। इस विचारधारा में धर्म को राष्ट्र का आधार मानते हैं। यह गलत, अवैज्ञानिक है। पाकिस्तान बनने का आधार भी इस्लाम धर्म था न? पर उसके दो टुकड़े हो गए। दोनों ही टुकड़े इस्लाम मानते हैं। फिर एक क्यों नहीं रहे? पाकिस्तान में कोई अपने को पंजाबी कहता है, कोई सिन्धी, कोई पख्तून कहता है-यह हमारी कौमियत (राष्ट्रीयता) है। तो पाकिस्तान किसी की राष्ट्रीयता नहीं है। तो बेवकूफो! पाकिस्तान बनाने के लिए लड़े क्यों? हमारे हिन्दू राष्ट्रवाले पाकिस्तान के हालातों से कुछ नहीं सीखते। मगर आम हिन्दू को चौराहों पर नंगे रूप में खम्भे से बँधकर हिन्दू धर्म के कोड़े थोड़े ही खाना है जैसे पाकिस्तान का मुसलमान इस्लाम के कोड़े खाता है।
मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। ब्रह्मांड में गूंजने वाले हजारों-हजार वाक्यों में शायद यही एक वाक्य होगा जिसने मेरे जैसे बहुत से लोगों को बेहतर दुनिया के संघर्ष के लिए प्रेरित किया होगा।
परसाईजी कहते हैं, ‘मनुष्य की छटपटाहट है, मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिए पर यह बड़ी लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लडऩी। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूं और अचरज करता हूं कि ये सुखी कैसे हैं। न उनके मन में सवाल उठते न शंका उठती है।
परसाईजी संभवत: पहले अकेले ऐसे लेखक हैं, जिनके निबंध, कहानी पर सबसे ज्यादा नाट्य रूपांतरण किए जाकर नाट्य मंचन किए गए हैं और किये जा रहे हैं। परसाईजी की रचना पर आधारित नाटक इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर पिछले पांच दशक मे सर्वाधिक मंच और नुक्कड़ पर प्रदर्शित हुआ। रानी नागफनी की कहानी, निठल्ले की डायरी, सदाचार का ताबीज, भोलाराम का जीव, एक लड़की पांच दीवाने, अकाल उत्सव, प्रेमचंद के फटे जूते जैसी कितनी ही रचनाएं जिन पर आज भी लगातार नाट्य मंचन हो रहे हैं।
परसाईजी कहते हैं, मुझे दिखाऊ सहानुभूति से सख्त नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वालों को, चांटा मार देने की इच्छा होती है। जप्त कर जाता हूं वरना तो शुभचिंतक पिट जाते।
परसाईजी अपने प्रारंभिक दिनों का बहुत ही निर्ममता और साफगोई के साथ बयान करते हुए कहते हैं कि मैंने पहली विधा बिना टिकट यात्रा कैसे की जाए ये सीखी। दूसरी विधा उधार मांगने की सीखी। तीसरी विधा बेफ्रिकी से जीवन जीने की सीखी। यह विधा मुझे मेरी बुआ ने सीखाई, जिनका मानना था कि जो होना है होगा, तुम बेफ्रिक रहो। चौथी विधा ये सीखी की डरो किसी से मत।
परसाईजी अपने गर्दिश के दिनों को याद करते हुए कहते हैं- गर्दिश की अपनी अहमियत है, लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इसका गहरा संबंध है।
परसाईजी जब अपने समकालीनों को याद करके ‘जाने पहचाने लोग च्च्लिखते हैं तो उसमें वे सभी लोग शामिल होते हैं। शमशेर बहादुर सिंह से लेकर होटल का नौकर भोलाराम जैसा एक सामान्य सा आदमी भी शामिल होता है। चिरऊ महाराज से लेकर पंडित माखनलाल चतुर्वेदी भी, नत्थूलाल सराफ से लेकर न्यायमूर्ति ब्रज किशोर चतुर्वेदी भी।

- युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते हुए देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिन्हों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?
इस समय जब कालेजों में मेरिड के आधार पर छात्र संघ चुनाव हो रहे हैं और सीधे चुनाव से सरकारें बचती है। ऐसे में जब किसी ने परसाई से पूछा कि क्या दलगत राजनीति का छात्र राजनीति में प्रवेश उचित है?
तो हरिशंकर परसाई कहते हैं कि छात्र राजनीति से बच नहीं सकते। हाईस्कूल का छात्र देश की राजनीति समझने लगता है। राजनीति है तो दलगत राजनीति भी है। मगर विश्वविद्यालय के अधिकांश छात्र और उनके नेता राजनीतिक सिद्धान्त नहीं समझते, न उनके प्रति उनकी निष्ठा है। मैं देखता हूँ-कल तक जनता पार्टी का छात्र नेता आज कांग्रेसी बनकर यूनियन का चुनाव लड़ रहा है। छात्र राजनीति गुंडों के हाथों में है। राजनीतिक सिद्धान्तों से मतलब नहीं। राजनीतिक सिद्धान्त केवल कम्युनिस्ट पार्टियां सिखाती हैं। दलगत राजनीति में छात्रों का आना बुरा नहीं। बुरी बात है गुंडागिरी और राजनीतिक मूढ़ता। सारी बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियाँ छात्रों का उपयोग करना चाहती हैं। साथ ही वे यह चाहती हैं कि छात्र सैद्धान्तिक राजनीति में न पड़ें। वे छात्रों को अपढ़ और गँवार रखकर उनसे अपना काम कराना चाहती हैं, जैसे-भारतीय जनता पार्टी महँगाई के खिलाफ जुलूस निकालती है, जिसमें छात्रों को शामिल करती है। अब अगर छात्र यह समझ गए कि अधिकांश मुनाफाखोर व्यापारी भारतीय जनता पार्टी के ही हैं, तो छात्र उन व्यापारियों के खिलाफ प्रदर्शन करने लगेंगे। इसलिए भारतीय जनता चाहती है कि छात्र राजनीति तथा अर्थनीति नहीं जानें। मूढ़ बने रहें या आर.एस.एस. में आ जाएँ। कांग्रेस भी छात्रों से सिद्धान्तहीन राजनीति कराती है।
इस समय पूरे देश में हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की बात हो रही है और बहुत सारे लोग अब तो अखंड भारत की भी बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जम्बूद्वीप, भारत खंडे इसका मतलब है कि व्यक्ति जम्बूद्वीप नामक क्षेत्र में भारत खंड में स्थित है। यानि अबका पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भुटान, तिब्बत, नेपाल, म्यामार अखंड भारत के हिस्से होंगे और आने वाले समय में अखंड भारत में शामिल किया जाएगा। वहीं दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है मुसलमान बंटवारे में पाकिस्तान नहीं गए। उनकी कथित बढ़ती जनसंख्या से बहुत से लोग चिंतित हैं। उन्हें भविष्य भारत के इस्लामिक देश बनने का खतरा दिखता है। ऐसे में जब उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है यदि वाकई में अखंड भारत हो जाएगा तो मुस्लमानों की बढ़ी हुई आबादी को कौन सम्हालेंगे। बहुत लोगंों के मन में भारत-पाक विभाजन को लेकर सवाल उठते हैं। ऐसे समय में आज से बहुत पहले इस तरह के सवाल लोगों के मन में किसी ने परसाई से पूछा आज हमारे देश में साम्प्रदायिकता की जो भावना है क्या आप यह नहीं सोचते कि हम हिन्दुओं को आजादी के तुरन्त बाद हिन्दू राष्ट्र बना लेना था जैसा कि पाकिस्तान बना?
परसाई कहते हैं कि पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बना तो वहाँ मुसलमानों की जो दुर्गति हो रही है वह क्या आप नहीं जानते? भारतीय नेताओं ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान मान लिया था, पर भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं। हिन्दू राष्ट्र में क्या हिन्दू व्यापारी हिन्दू ग्राहक से मुनाफाखोरी नहीं करेगा। धर्म राष्ट्र का आधार नहीं होता हिन्दू राष्ट्र का नारा फासिस्टवाद का नारा है।
राष्ट्र का आधार है-समान निवास भूमि, समान संस्कृति, एक भाषा, एक जीवन पद्धति, एक इतिहास। इस परिभाषा में धर्म नहीं है। बंगलादेश के हिन्दू और मुसलमान की एक राष्ट्रीयता है। पर बंगाली मुसलमान और पंजाबी मुसलमान की एक राष्ट्रीयता नहीं है। भारत कई उपराष्ट्रीयताओं (नेशनेलिटीज) से बना राष्ट्र है। बंगाल, तमिलनाडु, आन्ध्र, पंजाब आदि नेशनेलिटीज हैं फिर उत्तरी भारत राष्ट्र बना है। भारत हिन्दू राष्ट्र कभी नहीं होगा, न उसे होना चाहिए। हिन्दू राष्ट्र का नारा सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है जिसकी ताकत लगातार घट रही है।
इसी से मिलता जुलता प्रश्न भी लोग परसाई से पूछते रहे हैं। किसी ने हरिशंकर परसाई जी से प्रश्न किया कुछ धर्मों के अनुयायी बर्बर क्यों होते हैं? क्या सभी धर्मों के अन्दर एक ही भावना नहीं है? क्या खान-पान का असर भी पड़ता है? तो परसाई ने उत्तर दिया हर धर्म का अनुयायी घृणा और उत्तेजना से बर्बर हो जाता है। यह एक स्थिति में भावात्मक प्रतिक्रिया है। आर्य अपने को बहुत सुसंस्कृत और धर्मपरायण मानते हैं। मगर सदियों से हम विधवा को जबरदस्ती पति की चिता में डालकर जलाते रहे हैं और नगाड़े पीटते रहे हैं। दंगों में बर्बरता में सब सम्प्रदायों के कुछ लोग बराबर बर्बर हो जाते हैं। मगर यह जरूर है कि संस्कृति, इतिहास, धर्म आदि का प्रभाव मनुष्य के स्वभाव पर पड़ता है। शिक्षण का प्रभाव भी पड़ता है। भोजन उत्तेजक और शान्त करनेवाले प्रकार के होते हैं। धर्म कितनी ही अहिंसा सिखाए, अनुयायी स्वार्थ के लिए या स्थिति की प्रतिक्रिया में बर्बर हो जाता है। ईसाई धर्म जैसी दया, करुणा और प्रेम कहाँ है। कहा गया है-यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे तो उसके सामने दूसरा गाल कर दो। यानी ईसाई धर्म में तो अन्याय का प्रतिकार तक करने के तत्त्व नहीं हैं। मगर यूरोप के गोरे ईसाइयों ने कितनी बर्बरता की है और कर रहे हैं। अमेरिका के आदिवासियों च्की पूरी जाति नष्ट कर दी। अफ्रीकियों को जान से मारा और गुलाम बनाया। उपनिवेशों में कितने अत्याचार किए, भारत में अंग्रेज हमारी जाति को मिटा नहीं सके। इसका एक कारण तो यह क्रि हम उनसे ज्यादा सभ्य थे। हम उत्पादन उनसे अच्छा करते थे। हमारे पास हथियार भी थे। बारूद हमारे पास थी। हममें लड़ाकू जातियाँ थीं। बुद्धिबल में हम उनसे आगे थे। संस्कृति हमारी उनसे प्राचीन और ऊँची थी। हमारे यहाँ इतने बड़े-बड़े सेठ थे कि एक सेठ दस ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ खरीद सकता था। इसलिए अंग्रेज हमारे साथ वैसा व्यवहार नहीं कर पाए जैसा उन्होंने अफ्रीकियों और अमेरिकी आदिवासियों के साथ किया। हमारी आपसी फूट, लड़ाई और सामन्तों के देशद्रोह के कारण भारत में अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित हुआ। बहरहाल, अब तो ईसा के भक्त सारी मनुष्य जाति को नष्ट करने की तैयारी कर रहे हैं।
परसाई माक्र्सवादी थे और अपने आपको कम्युनिस्ट कहने से नहीं डरते थे। बहुत लोगों के मन में कम्यूनिजम को लेकर बहुत सारे सवाल होते हैं ऐसा ही एक सवाल किसी ने परसाई से पूछा- कम्युनिस्ट धर्म विरोधी होते हैं फिर भी पं. बंगाल में मार्क्सवादी सरकार दुर्गा पूजा इतने उत्साह से क्यों मनाती है?

परसाई ने उत्तर में कहा-मुश्किल यह है कि मार्क्सवाद में धर्म के बारे में जितनी तरह से जितने चिन्तकों ने सोचा और लिखा है, वह सब शायद ही किसी ने पढ़ा हो। सब कार्ल मार्क्स का एक ही वाक्य उड़ाते फिरते हैं-‘धर्म जनता के लिए अफीम है।Ó मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन ने कई जगह धर्म के बारे में बहुत कुछ लिखा है। इसको कौन पढ़ता है? क्रान्ति के बाद लेनिन ने धर्म सम्बन्धी क्या नीति अपनाई, यह भी बहुत कम लोग जानते हैं। क्रान्ति के नए उन्माद में जब कुछ भस्जिदों में तोडफ़ोड़ की गई तब लेनिन ने आदेश दिया कि तुरन्त उनकी मरम्मत कराई जाए। जिन्हें मस्जिद या गिरजाघर जाना है जाएँ। जिन्हें निरीश्वरवादी रहना है रहें। मगर धर्म के नाम सम्प्रदाय न बनाए जाएँ और उनके द्वारा फूट और झगड़े पैदा न किए जाएँ। हमारे देश में धार्मिक उन्माद क्या कहर ढाता है यह हम लोग देख ही रहे हैं। कभी दंगे, घृणा, द्वेष अविश्वास, दुश्मनी। खालिस्तानी आतंकवादियों ने हिन्दुओं पर जुल्म ढाए, तो 1947 के पहले मुस्लिम लीग कत्लेआम कराती थी। बदले में धर्म के ही नाम पर हिन्दू मुसलमानों का कत्लेआम करते ये। भारत के विभाजन के समय दस लाख हिन्दू-मुसलमानों की हत्या हुई थी। यह ‘धर्मÓ के नाम पर संगठित साम्प्रदायिकता और धर्म के नाम पर राजनीतिक तथा आर्थिक लाभ के लिए हुआ। अगर ‘धर्मÓ से यह सब कराया जाता है तो वह अफीम हुआ या नहीं, आप ही सोचिए। धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत विश्वास है। इसके अनुसार व्यक्ति पूजा-पाठ, ध्यान, प्रार्थना करें। किसी को क्या एतराज है?
धर्म के बारे में मार्क्सवाद में जो विचार हैं, वे काफी जटिल हैं। वे परिस्थिति के अनुसार लागू किए जाते हैं।
अंग्रेजी में दो शब्द हैं-(1) एथीस्ट एग्नास्टिक। ‘एयीस्टÓ वह है जिसे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर नहीं है। परलोक नहीं है। स्वर्ग नहीं है। पुनर्जन्म नहीं है। ‘एग्नास्टिकÓ वह है जो मानता है कि यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि ईश्वर है मगर यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि ईश्वर नहीं है। इसी तरह पुनर्जन्म, स्वर्ग-नर्क को न सिद्ध कर सकते, न उनका नहीं होना सिद्ध कर सकते। अधिकतर लोग ‘एग्नास्टिकÓ होते हैं, ‘नास्तिक नहींÓ। पर वे नास्तिक माने जाते हैं।
जहाँ तक बंगाल के मार्क्सवादी मंत्रियों का दुर्गोत्सव अब सांस्कृतिक और सामाजिक उत्सव है, धार्मिक नहीं। दुर्गोत्सव संस्कृति का अंग है। हमारे इधर भी गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव, होली भी सांस्कृतिक और सामाजिक उत्सव हैं। इनमें सब हिस्सा लेते हैं। कोई मार्क्सवादी अगर वह सच्चा है अपनी संस्कृति से अपने को जोड़ता है, उससे डकरता नहीं है।
अक्सर बहुत सारे आंदोलनों और जुलूसो में इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगता है इस बारे में जब किसी ने यह पूछा ये नारा किसने दिया था, इसका क्या मतलब है?
तो परसाई कहते हैं इंकलाब का अर्थ क्रान्ति होता है। जिन्दाबाद आप समझते ही हैं। यह नारा स्वाधीनता संग्राम के समय उठा था। इस बारे में निश्चित नहीं है कि यह नारा सबसे पहले किसने उठाया, कुछ लोग इसे भगतसिंह का नारा मानते हैं, कुछ रामप्रसाद ‘बिस्मिलÓ का। पर काफी लोगों का विश्वास है कि यह नारा मौलाना हसरत मोहानी का दिया हुआ है। मौलाना बहुत बड़े शायर थे और स्वाधीनता संग्राम के एक वीर भी। वे कांग्रेस में थे और सबसे पहले ‘मुकम्मिल आजादीÓ (पूर्ण स्वराज्य) की माँग मौलाना ने ही की थी। वे कुछ दिन जिन्ना के साथ भी रहे। पर अन्त में 1925 में कानपुर में वे उन लोगों में थे जिन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। इंकलाब जिन्दाबाद इन्हीं मौलाना हसरत मोहानी का दिया नारा था। लेकिन निश्चित रूप से मैं भी नहीं कह सकता।
पूरी दुनिया में भगवान राम को रामचरित्र मानस के जरिए जन जन तक पहुंचाने वाले तुलसीदास को लेकर भी बहुत सारी भ्रांति लोगों में है जब तुलसी दास जीवित थे तो दबंग लोगों ने उनकी घेराबंदी की थी अभी भी उनकी बहुत सारी चौपाईयों को लेकर बहुत सारी बातें होती है। तुलसी दास परसाई को बहुत पसंद थे और उनने अपने लेखन में तुलसी को बहुत ही उद्रत किया है। जब उनसे पूछा गया तुलसीदास जातिवादी, ब्राह्मणवादी, भाग्यवादी, नारी-विरोधी, शूद्र-विरोधी थे। फिर आप उन्हें जीवन-विवेक का महान चिन्तक कवि क्यों मानते हैं?
तो परसाई ने उत्तर दिया मैं अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। राम और कृष्ण को ईश्वर का अवतार नहीं मानता। ये कथानायक हैं। मैं व्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास को महान कवि मानता हूँ। इनके काव्य में कुछ इतिहास, काफी कल्पना और गम्भीर चिन्तन है।
यह सही है कि तुलसीदास ने विप्र का पक्ष लिया। वे वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करते थे, नारी पर भी उनके आक्षेप हैं, उनमें भाग्यवाद भी है। इन सबके लिए तुलसीदास की आलोचना होनी चाहिए। आप ठीक कहते हैं। पर काव्य रचना के बारे में एक जरूरी बात समझना चाहिए। हर कवि अपने युग के सन्दर्भ में लिखता है। अपने समय पर खड़ा होकर यथासम्भव भविष्य देखता है। कोई कवि अपने समय की व्यवस्था से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता। तुलसीदास के चिन्तन पर अपने समय की सामाजिक, धार्मिक-नैतिक व्यवस्था के बन्धन हैं। तुलसीदास का व्यक्तित्व कबीरदास सरीखा नहीं था, जो सब कुछ को तोड़ता था। इस कारण तुलसीदास के इन विचारों से न मैं सहमत हूँ न आप। पर तुलसीदास में भी अन्तर्विरोध हैं। दो उदाहरण देता हूँ हुइहें वही जो राम रचि राखा को करि तरक बढ़ावहिं साखा (भाग्यवाद) और- जो जस करहिं सो तस फल चाखा (कर्मवाद) कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
फिर देखिए- ढोल गँवार सूद्र पसु नारी ये सब ताडऩ के अधिकारी (नारी विरोधी) मगर- कस विध नारि रचेउ जग माहीं पराधीन सपनेहु सुख नाहीं (नारी के प्रति सहानुभूति) सन्तुलित दृष्टि से किसी काव्य को पढऩा चाहिए, पूर्वाग्रह या दुराग्रह से नहीं।
आज जब पूरे देश में जातिगत जनगणना को लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई है तो बहुत सारे लोग यह जानना चाहते हैं कि पहले जनगणना कैसे होती थी किसी ने परसाई से पूछे कि सुना है कि हिन्दू देवी-देवता कुल 33 करोड़ हैं। यह जनगणना किस तरह की गई थी?
परसाई ने उत्तर दिया यह देव गणना किसी ने नहीं की। यह कोरी कल्पना मात्र है। हिन्दू धर्म कोई नहीं है। धर्म हैं-वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म। फिर अनेक पन्य हैं-वैष्णव, शैव आदि। बेदों-उपनिषदों में एक ब्रह्म की स्थापना है। मगर पन्थों में ‘बहुदेववादÓ है। इसी के अनुसार कल्पना कर ली गई कि तैंतीस करोड़ देवता हैं। जब यह कल्पना की गई थी तब भारत की आबादी पाँच करोड़ भी नहीं होगी। मगर देवता बना दिए, तैंतीस करोड़।
हम हरिशंकर परसाई के जब समूचे लेखन को देखते हैं तो हमें उनमें लोकशिक्षण दिखाई देता है वे लगातार अपनी रचनाओं कालम के माध्यम से अपने समय की सच्चाई को उजागर करते हैं और बहुत ही छोटे छोटे सरल वाक्यों के जरिए जिनमें गहरे अर्थ छुपे होते हैं उन्हें मुहावरों, पौराणिक कथाओं, संदर्भों और घटनाओं के साथ जोड़कर बहुत बार फेंटेसी के जरिए उजागर करते हैं। उनकी बहुत सारी व्यग्योंक्तियां है पर कुछ व्यग्योक्तियों को पढ़कर सुनकर आप अपने समय की बहुत सारी सच्चाईयों से रूबरू होते हैं।
- घूरने से शरीर बढ़ता है।
- आंखें बड़ी ताकतवर होती हैं। मन के दीवानजी होते हैं नयन।
- रहीम ने कहा है – रहिमन मन महाराज के, दृग सों नही दिवान।
- चक्कर लगाता प्रेमी बैठे प्रेमी से सवाया पड़ता है, क्योंकि वह मेहनत करता है।
- इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थ नीति समझता, न योजना, न विज्ञान, न तकनीक, न विदेश नीति।
वह समझता है गौमाता, गोहत्या, चर्बी, यज्ञ। - फोटो खिंचवाने के लिए तो लोग बहुत से लोग दिन में तीन तीन चार चार पोशाक बदलते हैं।
एक आदमी को जानता हूँ, जिसे फूल सूँघने की तमीज नहीं है। पर उसके बगीचे में तरह-तरह के फूल खिले हैं। फूल भी कभी बड़ी बेशर्मी लाद लेते हैं और अच्छी खाद पर बिक जाते हैं।
अच्छा भोजन करने के बाद मैं अक्सर मानवतावादी हो जाता हूँ।
मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी आदमी में रख देते हैं।
लेखकों को मेरी सलाह है कि ऐसा सोचकर कभी मत लिखो कि मैं शाश्वत लिख रहा हूँ। शाश्वत लिखने वाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज़ मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं।
लडक़ों को, अपना ईमानदार बाप निकम्मा लगता है….
‘दिवसÓ कमजोर का ही मनाया जाता है, जैसे कि ‘हिंदी दिवसÓ, ‘महिला दिवसÓ, ‘अध्यापक दिवसÓ, ‘मजदूर दिवसÓ, कभी ‘थानेदार दिवसÓ नहीं मनाया जाता…
व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है….
जिनकी हैसियत है वे एक से भी ज्यादा बाप रखते हैं । एक घर में, एक दफ्तर में, एक-दो बाजार में, एक-एक हर राजनीतिक दल में….
आत्मविश्वास कई प्रकार का होता है, धन का, बल का, ज्ञान का, लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है….
हमारे लोकतंत्र की यह ट्रेजेडी और कॉमेडी है कि कई लोग जिन्हें आजन्म जेलखाने में रहना चाहिए वे जिन्दगी भर संसद या विधानसभा में बैठते हैं…
धन उधार देकर समाज का शोषण करने वाले धनपति को जिस दिन ‘महा-जनÓ कहा गया होगा, उस दिन ही मनुष्यता की हार हो गई….
हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं । संस्कारों से सामन्तवादी हैं, जीवन मूल्य अर्द्ध-पूंजीवादी हैं और बातें समाजवाद की करते हैं…
बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है…
नारी-मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि ‘एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता।Ó
व्यभिचार से जाति नहीं जाती है; शादी से जाती है।
इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.
जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये, वह अपने दिन कैसे बदलेगी!
अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये. ज़रूरत पड़ी तब फैलाकर बैठ गये, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया.
अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में. कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढऩे लगता है.
जब शर्म की बात गर्व की बात बन जाए, तब समझो कि जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।
आत्मविश्वास कई प्रकार का होता है, धन का, बल का, ज्ञान का। लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है।
इस कौम की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है.
नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं. दो नशे खास हैं- हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं.
बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.
दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।
निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निन्दा खून साफ करती है, पाचन क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होतीु हैं. निन्दा पायरिया का तो सफल इलाज है. सन्तों को परनिन्दा की मनाही है, इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.
चाहे कोई दार्शनिक बने. साधु बने या मौलाना बने. अगर वो लोगों को अंधेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर वो अपनी कंपनी का टॉर्च बेचना चाहता है।
जिसकी बात के एक से अधिक अर्थ निकलें, वह संत नहीं होता, लुच्चा आदमी होता है। संत की बात सीधी और स्पष्ट होती है और उसका एक ही अर्थ निकलता है।
अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लडऩी। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूं और अचरज करता हूं कि ये सुखी कैसे हैं। न उनके मन में सवाल उठते न शंका उठती है।
गरीब आदमी न तो ऐलोपैथी से अच्छा होता है, न होमियोपैथी से, उसे तो ”सिम्पैथीज्ज् (सहानुभूति) चाहिए ।
नेता हो जाना बड़ा अच्छा धन्धा है।
घूस से पारिवारिक जीवन सुखी होता है।
जिस दिन घूसखारों की आस्था भगवान पर से उठ जायेगी, उस दिन भगवान को पूछने वाला कोई नहीं रहेगा।
पैसे में बड़ी मर्दानिगी होती है। आदमी मर्द नहीं होता है, पैसा मर्द होता है।
धर्म का उपयोग तो अब दंगा कराने के लिए ही रह गया है।
अच्छे शासन कुछ शब्दों और आंकड़ों के बल पर चलते हैं।
लड़के शादी के बाजार में मवेशी की तरह बिकते हैं।
नियम है कि जो माँ बेटे को जितना प्यार करेंगे वो बहू को उतनी तकलीफ देगी।
परसाई जी की जयंती पर उन्हें याद करने के बहुत से तरीके हो सकते हैं किंतु मैं उनके ही तरीके से याद करते हुए फैज अहमद फैज का शेर ही कहना चाहूंगा-
हम इक उम्र से वाकिफ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ क्या है मेरे मेहरबां सितम क्या है