-सुभाष मिश्र
हमारे पारंपरिक उत्सवों का स्वरूप बदलता जा रहा है। मोहल्ले, चौक-चौराहे में होने वाले गणेश, दुर्गा पंडालों में अब बाज़ार द्वारा तय आयोजन ज़्यादा हो रहे हैं। पहले समाज, संस्कृति, नागरिक जागरूकता से संबंधित आयोजन जिनमें रामलीला, धार्मिक प्रवचन, नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता, गीत-संगीत, रंगोली, कबड्डी जैसी खेलकूद प्रतियोगिता खुले मंच से होती थी। अब उनकी जगह डीजे ने ले ली है। बाज़ार ही अब उत्सव का स्वरूप तय कर रहे हैं। ज्वेलर्स जगह-जगह इन पंडालों ईनाम बाँटकर हाऊजी खिलवा रहे हैं। बिल्डर, व्यवसायी, अस्पताल वाले और तरह-तरह से अपने प्रोडक्ट को प्रमोट करने वाले इन धार्मिक पंडालों, आयोजन को फ़ाइनेंस कर रहे हैं। कभी जनचेतना, लोकमिलन के स्थान रहे गणेशोत्सव, दुर्गा के आयोजन अब कट्टर धार्मिक या अपराधिक कि़स्म के लोगों या फिर किसी भी तरह से अपनी नेतागीरी चमकाने वालों के हाथों में है। बाल गंगाधर तिलक की कल्पना ऐसी तो नहीं थी। सार्वजनिक सामूहिक जि़म्मेदारी के संवाहक हुआ करते थे हमारे ये उत्सव। वैसे हमारा देश हमेशा से उत्सवधर्र्मी रहा है। फसल और ऋतुओं के साथ-साथ हमारे ईश्वर, धार्मिक तीज त्यौहार, महापुरुषों की जयंती पर हमारे यहाँ एक अलग कि़स्म के उत्सव का माहौल रहता है। पहले ऐसे आयोजन में श्रद्धां, भक्ति और सादगी दिखती थी, लेकिन अब दिखावा ज़्यादा है।
मुझे जान पड़ता है मेरे पैतृक कस्बेनुमा शहर वारासिवनी में गंज मंडी में आयोजित दुर्गोत्सव में क़व्वाली, कवि सम्मेलन का आयोजन होता था। जैन मोहल्ले के दुर्गोत्सव में रामलीला का आयोजन और रामचरितमानस पर बड़े प्रवचनकर्ताओं के प्रवचन। सभी जगह सब लोग जाते थे, जिनमें हमारे मुस्लिम दोस्तों और उनके परिवारजनों की भी अच्छी ख़ासी तादात रहती थी। यार खां बाबा की मज़ार पर लगने वाला उर्स पर क़व्वाली का मुक़ाबला हो या कवि सम्मेलन का कोई आयोजन, सार्वजनिक उत्सव का उस तरह से बँटवारा नहीं हुआ था, जैसा आज दिखाई देता है। सार्वजनिक चंदा जिसमें गाँव, देहात, मोहल्ले के सभी घर शामिल होते। पारदर्शिता के साथ रसीद काट कर लेकर चंदा माँगा जाता था और सब अपनी हैसियत से चंदा देते भी थे। मजाल है कि कोई इन पंडालों में शराब पीकर, नशा करके आये। अब तो आगमन से विसर्जन तक के जुलूस में ऐसे लोगों की भरमार है। पहले कहा जाता था कि अपराधियों की अंतिम शरण स्थली राजनीति है। अब यह धर्म की तरफ़ शिफ़्ट हो गई है। सभी धार्मिक संस्थाओं में चाहे वे किसी भी धर्म, संप्रदाय से संबंधित क्यों ना हो वहां चालू कि़स्म के लंपट लोगों का क़ब्ज़ा है।
मुझे याद पड़ता है कि जब भी हमारे बड़े त्यौहार ख़ास करके दीपावली, रक्षाबंधन या जन्मदिन, शादी ब्याह आदि पर नये कपड़े सिलवाने की परंपरा थी। किन्तु अब नई चीजों को खऱीद जारी करने के लिए किसी चीज़ त्यौहार की ज़रूरत नहीं है। लोगों की परचेंसिंग पॉवर बढ़ी है। सभी जगह रेडीमेड का चलन बढ़ा है। पहले के समय में त्यौहार अधिक समावेशी होते थे और सीमित साधनों वाले लोग भी इसमें शामिल होकर उत्सव का आनंद ले सकते थे। समय बीतने के साथ चीजें बदली वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते हमारी अर्थव्यवस्था में भी बदलाव आया है। हमारे त्यौहारों के अवसर पर आयोजित होने वाले उत्सवों पर भी असर डाला है। दिखावा पसंद संस्कृति और जो कुछ है आज है कल हो ना हो की सोच ने बहुतों को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। अब लोगों की सोच तत्काल की संतुष्टि के बारे में अधिक है। त्यौहारों, उत्सवों के पारंपरिक साधन आज धीरे-धीरे पीछे छूट रही हैं। वे बुनियादी चीजें जो हमें पहले त्योहार मनाने में खुशी देती थीं, अब हमें उत्साहित नहीं करती हैं। पहले संयुक्त परिवारों में त्यौहार की तैयारियाँ इतने पहले से शुरू हो जाती की घर के हर सदस्य को उसमें इन्वॉल होना ही पड़ता था। किन्तु अब एकल परिवार और अपने अकेले एकांत ने भी त्यौहारों को प्रभावित किया है। त्यौहारों का मतलब सिफऱ् छुट्टी का दिन रह गया है, जब हम पूरी रात वेबसीरीज़ देखते हैं और अगली सुबह जल्दी उठने का दबाव नहीं होता। त्यौहार बहुतों के लिए अपने धन-दौलत के प्रदर्शन का माध्यम बनकर एक-दूसरे को दिखाने और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का ज़रिया बन गया है।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे पारंपरिक त्यौहार विलुप्त से होते जा रहे थे। त्यौहारों को गेट-टू-गेदर का रुप देकर मिलने-जुलने का एक नया तरीका निकाल लिया है। किटी-पार्टियों की थीम त्यौहारों के अनुसार रखी जा रही है। इन त्यौहार थीम पार्टियों के कारण त्यौहार एक दिन में समाप्त ना होकर 15-15 दिन तक चलते रहते हैं। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि त्यौहार मनाने का पारंपरिक तरीका बदलने से हमारे तीज-त्यौहार फिर से जीवंत हो रहे हैं। ये अलग बात है कि तीज त्यौहार के नाम पर खूब फिज़़ूलख़र्ची हो रही है, दिखावा हो रहा है। धार्मिक और सामाजिक जुलूस अब भव्य और शोरगुल और शक्ति प्रदर्शन के माध्यम बन गये हैं।