Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – राजनीति में रेवड़ी कल्चर की फैलती महामारी

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

राजनीति में आकर अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक मुहावरे और शब्द पूरी तरह से बदल जाते हैं और दूसरा ही अर्थ देने लगते हैं। पहले भी ऐसे कईं वाक्य और शब्द थे। राजनीतिक घुसपैठ, राजनीतिक हत्या, महत्वाकांक्षी टोपी, नेता का पट्टा, नेता की दुम, कुर्सी का खेल जैसे शब्द राजनीति में खूब चले। आज भी चलते हैं। इधर, कुछ ऐसे अरसे से एक नया शब्द युग्म आया है-रेवड़ी कल्चर । राजनीति में बिजली का बिल माफ करने से लेकर मुफ्त राशन और पानी देने तक की सुविधाओं के वादे और योजनाओं को आम आदमी ने रेवड़ी कल्चर कहा है। दिलचस्प बात तो यह है कि लगभग सारे राजनीतिक दल और राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार तक इस रेवड़ी कल्चर में शामिल है। सभी दल रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देते हैं लेकिन हर राजनीतिक दल दूसरे दलों पर रेवड़ी कल्चर का आरोप लगाते हैं।
फ्रीबीज यानी रेवड़ी कल्चर की शुरुआत यूं तो हमारे देश में 1980 से 90 के दशक से मानी जाती है जब क्षेत्रीय दलों की राज्य की राजनीति में पकड़ बढ़ी। एमटी रामाराव, जयललिता जैसे सिनेमा जगत से आये नेताओं ने जनता के लिए मुफ्त अनाज, मुफ़्त बिजली, कंबल और बहुत सारी रोजमर्रा की चीजें मुफ्त देने की पहल की किन्तु रेवड़ी कल्चर की सबसे ज़्यादा चर्चा आम आदमी पार्टी के मैनिफेस्टो की वजह से हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर की खुली आलोचना की किन्तु कालांतर में सभी दलों की यह मजबूरी या कहें ज़रूरत बन गई। अब दिल्ली में विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट तेज हो गई है, एक बार फिर रेवाड़ी कल्चर की बात हो रही है। रूलिंग पार्टी आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने अब उसी मुद्दे को हथियार बनाने का फैसला किया है जिसे लेकर बीजेपी अक्सर विपक्षी दलों पर निशाना साती रही है वह मुद्दा है मुफ्त की योजनाओं यानी फ्रीबीज का। आम आदमी पार्टी का कहना है कि जिन योजनाओं को बीजेपी रेवड़ी कल्चर कहकर बदनाम करती आई है। चुनाव से ठीक पहले वह खुद भी ऐसा करने को मजबूर है।
केजरीवाल ने आरोप लगाया कि पिछले एक दशक से लागू मुफ्त बिजली और पानी जैसी योजनाओं को बीजेपी रेवड़ी कल्चर कहकर बदनाम किया जा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि जो बीजेपी काम की राजनीति का विरोध करती थी आज वही क्यों केजरीवाल के मॉडल को अपनाने की कोशिश कर रही है। अरविंद केजरीवाल ने वादा किया है कि अगर दिल्ली की जनता उन्हें एक बार फिर से मुख्यमंत्री बना ने का मौका देती है तो वह दिल्ली में पहले से चल रही योजनाएं लागू रखेंगे। इनके अलावा महिलाओं को सम्मान योजना के तहत हर महीने 2100 की राशि दी जाएगी। संजीवनी योजना के तहत बुजुर्गों को बिना किसी भेदभाव दिल्ली के अस्पतालों में मुफ्त इलाज मिलेगा। साथ ही अनुसूचित जनजाति के मेधावी छात्रों को अंबेडकर स्कॉलरशिप के तहत विदेश में पढ़ाई का खर्च मिलेगा। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने ऑटो रिक्षा चालकों के लिए पांच गारंटी पुजारियों और ग्रंथियों के लिए सम्मान योजना का ऐलान किया। ऐसी ही घोषणाएं भाजपा और कांग्रेस कर रही है।
मध्य प्रदेश में लाड़ली बहन योजना और मुफ्त राशन के लुभावने नारों और वादों ने भाजपा को सफलता दिलाई और इसके बाद हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल तक ने इस कल्चर के सहारे सफलता हासिल की और इसके बाद तो जैसे पूरे देश में रेवड़ी कल्चर सफलता की गारंटी माना जाने लगा है। सरकार से लेकर वित्तीय योजनाओं के जानकार, वित्त मंत्री से लेकर आम आदमी तक जानते हैं कि इस तरह की मुफ्त योजनाओं से यानी रेवड़ी कल्चर से सरकारी कोष पर भारी दबाव पड़ता है और राज्य को आर्थिक नुकसान और कर्ज का बोझ सहना पड़ता है। इससे आम आदमी के हित के लिए दूसरी विकास योजनाओं पर असर पड़ता है और विकास रुक जाता है। इस रेवड़ी कल्चर से देश और समाज हित की बड़ी योजनाएं जिसमें स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र हैं, वे सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं। बल्कि काफी हद तक प्रभावित हो रहे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र जिस तरह से महंगे होते जा रहे हैं और आम आदमी की पहुंच से दूर हो रहे हैं, यह एक दूसरी चिंता का विषय है। आज लगभग सभी राज्य सरकारें और यहां तक की केंद्र सरकार भी कर्ज के बोझ तले दबी हुई है। फिर भी कोई भी राजनीतिक दल इस तरफ सोचना नहीं चाहता है बल्कि विपक्ष भी रेवड़ी कल्चर के सहारे ही सत्ता हासिल करना उचित समझते हैं। कर्ज का यह बोझ हर साल लगातार बढ़ रहा है जो देश और राज्य सरकारों की अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक संकेत हैं। देश के अन्य स्रोत से आय का एक बड़ा हिस्सा कर्ज के ब्याज के रूप में जा रहा है। इस रेवड़ी कल्चर से केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक आय बढ़ाने के लिए नए-नए कर खोजने लगी है और इस तरह के टैक्स से आम आदमी की कमर टूट रही है। खासकर मध्य वर्ग सबसे ज्यादा आर्थिक रूप से प्रभावित हो रहा है। मध्यवर्ग और कुछ हद तक निम्न मध्य वर्ग भी टैक्स अदा करता है। नए-नए टैक्स बढऩे से उसके आय घटती जा रही है और महंगाई की दर बढ़ती जा रही है। सरकारें कोई ऐसा क्षेत्र नहीं छोड़ रही जहां खरीदने से लेकर बेचने तक अब व्यक्ति को टैक्स नहीं देना है। रेल और सड़क जैसी सुविधाएं आम आदमी के उपयोग के लिए मानी जाती हैं। जिस तेजी से सड़के बढ़ रही है, इस तेजी से टोल टैक्स की दरें भी बढ़ रही है। एक ही सड़क पर अनेक जगह पर टोल नाके खड़े किए जा रहे हैं और निर्धारित समय से ज्यादा यानी नियत वर्षों से ज्यादा होने पर भी टोल टैक्स लगातार वसूला जा रहा है। रेल में अब किराए को लेकर भी नई नीति लागू किये जाने की चर्चा है। जहां हवाई यात्रा की तरह किराया समय और अवसर के साथ ज्यादा लिया जा सकेगा। रेल विभाग जहां प्रमुखता से लिखा होता है- रेल सेवा। रेल विभाग आय का साधन नहीं है। यह आम जनता की सेवा के लिए है, उनकी सुविधा के लिए है। वहां से भी आय के साधन खोजे जाने लगे हैं बल्कि उसे प्राइवेट हाथों में देने की योजनाएं बन रही हैं।

इस तरह के रेवड़ी कल्चर बढऩे से आम लोगों में आत्मनिर्भर होने की भावना खत्म हो रही है। लोग श्रम से जी चुराने लगे हैं जिससे उत्पादकता और उद्यमशीलता में कमी आ रही है। लोगों को मुफ्त राशन पानी बिजली और नगद राशि मिलने से उनका श्रम से विमुख हो जाना स्वाभाविक है। वे काम करना नहीं चाहते हैं। इसके कारण छोटे उद्योगों और खासकर कृषि उद्योगों में किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं। मजदूर यदि काम करने के लिए तैयार भी होते हैं तो मनमानी शर्तें रखते हैं और इतनी ज्यादा मजदूरी की मांग करते हैं कि किसानों को या तो घाटा उठाकर फसल की बुवाई से लेकर कटाई तक का काम उनसे कराना पड़ता है या फिर कई बार उपज खेत में ही छोड़ कर आनी पड़ती है। इसकी वजह से उद्योग से जुड़े लोग और किसानों में मजदूरों के प्रति शत्रु भाव पैदा हो रहा है।

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गऱीबों को दी जाने वाली बुनियादी सुविधाओं और ज़रूरत की चीज़ों को रेवड़ी कहने वालों के आलोचक भी कम नहीं है। हमारे देश में गरीबों को दी जाने वाली राहत को ‘रेवड़ीÓ कहने वाले बड़े बिजनेसमैन, औद्योगिक घरानों के अरबों के कजऱ् माफ किए जाने की उतनी मुखर आलोचना नहीं करते जितनी गरीबों को दी जाने वाली राहत की। हाल के वर्षों में कई हाईप्रोफाइल बिजनेसमैन और उनकी कंपनियों के बड़े कजऱ् बट्टे खाते में डाले गए हैं, जिससे बैंकों को भारी नुकसान हुआ है।

सबसे बड़ा उदाहरण मेहुल चौकसी की गीतांजलि जेम्स लिमिटेड का है, जिसका 5492 करोड़ का कजऱ् माफ किया गया। मेहुल चौकसी पहले से कई बैंक घोटालों के लिए कुख्यात हैं। आरईआई एग्रो लिमिटेड का 4314 करोड़ का कजऱ् माफ हुआ है, जो आर्थिक संकट में फंसी थी। इसी तरह, विंसम डायमंड्स एंड ज्वेलरी लिमिटेड का 4076 करोड़ और विक्रम कोठारी की रोटोमैक ग्लोबल प्राइवेट लिमिटेड का 2850 करोड़ का कजऱ् माफ किया गया है।
बाबा रामदेव की रुचि सोया इंडस्ट्रीज लिमिटेड का भी 2212 करोड़ का कजऱ् बट्टे खाते में डाला गया। यह कजऱ् पतंजलि आयुर्वेद के अधिग्रहण के दौरान वित्तीय संकट के चलते माफ किया गया था। विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस का 1943 करोड़ का लोन भी बट्टे खाते में चला गया है। इस तरह के बड़े फैसलों पर जनता सवाल उठाती है कि जब किसानों और गरीबों के लिए कजऱ् माफी होती है, तो उसे ‘फ्रीबीज या रेवड़ीÓ कहकर आलोचना की जाती है, जबकि अरबों के बिजनेस लोन चुपचाप माफ कर दिए जाते हैं। बैंक इसे एक रूटीन प्रक्रिया बताते हैं। जो बैंक गऱीबों के मामूली कज़ऱ् वसूली के लिए उनके खेत खलिहान-घरबार नीलाम करने में क़तई गुरेज़ नहीं करता वह अमीरों के मामले में बहुत नरम रूख अपनाता है।
ऐसा नहीं है कि गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए लेकिन जरूरतमंद की मदद की जानी चाहिए और खासकर तब तब जब वे बिल्कुल लाचार और बेसहारा हों। इस तरह की सरकारी मदद से एक बड़े वर्ग को निकम्मा और नाकारा बना रहे हैं और उन सामाजिक संगठनों को भी हताश कर रहे हैं जो उन्हें आत्मनिर्भर और उद्यमी बनना चाहते हैं। सरकारों की कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं और इसके लिए लंबी और बड़ी योजनाओं की जरूरत है। इस तरह के रेवड़ी कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट तक ने चिंता जताई है।

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