Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – जातिगत जड़ें बहुत गहरी है 

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र
-सुभाष मिश्र
हमारे देश में जातिगत अस्मिता की जड़ें बहुत गहरी हैं। हर जाति का अपना एक स्टेक्चर है। जातियों के भीतर भी बहुत सी उपजातियाँ समाहित है। सतही रूप से देखने पर बहुत लोगों को लग सकता है हिन्दू में ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण या जाति हैं, किन्तु जब आप इनकी आंतरिक संरचना में जाते हैं तो आपको इनके भीतर बहुत सारे विभेद दिखाई, सुनाई देते है। यही हाल मुसलमान, क्रिश्चियन, सिख, जैन, बौध्द आदि सभी धर्मों में दिखाई देते है। कई जातियों में आपस में भी रोटी-बेटी के संबंध नहीं है। यही वजह की बहुत सारी राजनीतिक पार्टियों ने जाति को धर्म की काट के रूप में जान समझकर जातिगत गणना की बात की है। विपक्षियों की इस माँग पर मोदी जी कहते हैं की देश में केवल चार जातियाँ है। ‘विकसित भारत’ का संकल्प नारी, युवा, किसान और गरीब के चार ‘अमृत स्तंभों’ पर टिका है और यही चार उनके लिए सबसे बड़ी जातियां हैं, जिनका उत्थान ही भारत को विकसित बनाएगा।
दरअसल अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय जेलों में जातीय भेदभाव को संविधान के खिलाफ बताते हुए जेल मैनुअल में सुधार के आदेश दिये हैं। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए चीफ़ जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़, जे बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने तीन महीने के भीतर जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ मैनुअल में ज़रूरी बदलाव के निर्देश दिये। ज्ञातव्य है की जेलों में बंद कैदियों को उनकी जाति के आधार पर काम दिये जाते है। पीठ ने जेल रजिस्टर में कैदियों की जाति का कॉलम हटाने के लिए भी कहा है। राजस्थान और यूपी के जेल मैनुअल के प्रावधानों पर सवाल उठाए, जिनमें विमुक्त जिनमें धुमन्तु और खानाबदोश को छोटी जाति मानकर साफ़-सफ़ाई कराई जा रही थी। पीठ ने कहा की कोई भी समूह मैला ढोने वाले वर्ग के रूप में पैदा नहीं होता। कोई छोटा काम करेगा या नहीं, कोई महिला खाना बन सकती है या नही, ये अस्पृश्यता के पहलू है। महिला पत्रकार सुकन्या शांता की जनहित याचिका से ये उजागर हुआ है की वर्तमान में देश के 13 राज्यों में जेलों में भेदभावपूर्ण प्रथाएं लागू हैं। इन प्रदेशों में मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, ओडि़सा जैसे प्रदेश शमिल हैं।
जैसा की हम सब जानते हैं की भारत में जाति प्रथा एक रूढ़ सामाजिक व्यवस्था है। इसमें विभिन्न जातिगत समूहों में विभक्त आबादी अपनी पृथक सामुदायिक पहचान के दुराग्रह के साथ जीवन जीती है। जाति व्यवस्था  धार्मिक और सांस्कृतिक मानदंडों पर आधारित होती है जिसका आधार वर्णव्यवस्था है। वर्णव्यवस्था समाज में रहनेवाले लोगों का पदानुक्रम निर्धारित करती है। इसके अनुसार लोग निम्न या उच्च वर्ण में बंटे हुए होते हैं, और उसके हिसाब से उन्हें सामाजिक सम्मान का हकदार बना दिया गया है। ज़ाहिर है, यह असमानता पर आधारित अमानवीय व्यवस्था है। जो व्यक्ति की मान-मर्यादा को जन्म के आधार पर तय करती है, योग्यता और गुण के आधार पर नहीं। उसके अनुरूप ही व्यक्ति के अलग-अलग अधिकार तय होते हैं।
यह मध्यकाल से चली आ रही सामंती प्रथा है। इससे उत्पन्न श्रेणीकरण का परिणाम सामाजिक भेदभाव, जातिगत अहंकार की तुष्टि और छुआछूत जैसी बुराइयाँ हैं। जातिप्रथा संविधान के विरुद्ध है, लेकिन तमाम कानूनों के बावजूद व्यवहार में आज भी समाज के भीतर विद्यमान है। जेल चूँकि समाज ही बनाता है, इसलिए उसे चलाने वाले लोग इसी समाज से आते हैं। जातिगत भेदभाव दरअसल आज इसलिए मौजूद है क्योंकि वह हमारे सामाजिक मनोविज्ञान के भीतर गहरे तक पैठ बनाये हुए है। ऐसा नहीं है की इस प्रथा को समाप्त करने लिए पहल ना हुई हो। बहुत से समाज सुधारक, संत-कवि, समाजवादी चिंतक सभी ने अपने अपने स्तर पर जाति व्यवस्था को लताड़ा। कबीर दास इनमें सबसे मुखर कवि के रूप में सामने आते है। उनके समकालीन कवियों, संतों और बाद के लोगों ने भी बहुत कुछ कहा, लिखा –
‘जो तूं ब्रह्मण , ब्राह्मणी का जाया !
आन बाट काहे नहीं आया !! ’
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार !!
-कबीर
पाथर पूजे हरी मिले,
तो मै पूजू पहाड़ !
घर की चक्की कोई न पूजे,
जाको पीस खाए संसार !!
-कबीर
मुंड मुडय़ा हरि मिलें ,सब कोई लेई मुड़ाय।
बार -बार के मुड़ते ,भेंड़ा न बैकुण्ठ जाय।।
-कबीर
माटी का एक नाग बनाके,
पुजे लोग लुगाया!
जिंदा नाग जब घर मे निकले,
ले लाठी धमकाया!!
– कबीर
जिंदा बाप कोई न पुजे, मरे बाद पुजवाये !
मुठ्ठी भर चावल लेके, कौवे को बाप बनाय !!
-कबीर
हमने देखा एक अजूबा ,मुर्दा रोटी खाए ,
समझाने से समझत नहीं ,लात पड़े चिल्लाये !!
-कबीर
मुसलमानों पर
कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चुनाय ।
ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
-कबीर
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
जाति ना पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान!
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान!!
कबीरकाहे को कीजै पांडे छूत विचार।
छूत ही ते उपजा सब संसार।।
हमरे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
तुम कैसे बाह्मन पांडे, हम कैसे सूद।।
-कबीर
कबीरा कुंआ एक हैं,पानी भरैं अनेक।
बर्तन में ही भेद है,पानी सबमें एक॥
-कबीर
एक बूँद ,एकै मल मुतर,एक चाम ,एक गुदा।
एक जोती से सब उतपना,कौन बामन कौन शूद।।
-कबीर
जैसे तिल में तेल है,ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझमें है ,तू जाग सके तो जाग।।
कबीर
मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास में।
ना मैं तीरथ में, ना मैं मुरत में,ना एकांत निवास में।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे, ना कैलाश में।।
ना मैं जप में, ना मैं तप में,
ना बरत ना उपवास में ।।
ना मैं क्रिया करम में,ना मैं जोग सन्यास में।
खोजी हो तो तुरंत मिल जाऊ,इक पल की तलाश में ।।
कहत कबीर सुनो भई साधू,
मैं तो तेरे पास में बन्दे, मैं तो तेरे पास में।।
रामधारी सिंह दिनकर रश्मि रथी
‘क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा
अर्जुन से लडऩा हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन’
‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति  जाति हैं ये मेरे भुजदंड।’
‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन’।
मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।
बच्चा लाल उन्मेष
कौन जात हो भाई?
दलित हैं साब!
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गंदी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिंदू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या खाते हो भाई?
जो एक दलित खाता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कज़ऱ् का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुगऱ्ा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या पीते हो भाई?
जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का ग़म
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या मिला है भाई
जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
जि़ल्लत भरी जि़ंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या किया है भाई?
जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार!
गांधीजी ने अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान चलाया और दलितों को हरिजन नाम से संबोधित किया। किन्तु कालांतर में इस नाम को भी प्रतिबंधित करना पड़ा। दलितों के लिए ‘हरिजन’ शब्द का इस्तेमाल करना हिंदू एकीकरण की एक पहल थी। इस शब्द का इस्तेमाल करके गांधी ने अछूतों को हिंदू धर्म में शामिल किया। इस धारणा को इस तथ्य से और बल मिला कि गांधी के हरिजन सेवक संघ का संचालन विशेषाधिकार प्राप्त हिंदुओं द्वारा किया जाता था, और अंबेडकर ने इसे कांग्रेस की ‘दयालुता से अछूतों को मारने’ की योजना के रूप में देखा।
शिक्षा के विस्तार और ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया जैसे बहुत से लोगों की वजह से जातिगत भेदभाव बहुत हद तक कम तो हुआ किन्तु ख़त्म नहीं हुआ। आर्थिक विवशताओं ने जातिगत व्यवसाय की सीमाओं का अतिक्रमण करके उन जातियों के लोगों को भी ऐसे धंधे से जोड़ा जो परंपरागत रूप से कथित दलित, कमजोर, शूद्र लोगों के हिस्से में था। हरिशंकर परसाई कहते हैं की – जब अर्थ की लात पड़ती है तो पूजा कराने वाले पंडित जी भी जूतों की दुकान खोल लेते है।
लड़कियों की शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता और स्त्री पुरूष के साथ-साथ काम करने से बहुत हद तक जाति व्यवस्था की दीवार दर्की है। किन्तु इसके अवशेष अभी भी भारतीय समाज में बहुत गहरे तक समाहित हैं। इधर के सालो में जातिगत पहचान और जातिगत प्रदर्शनों की होड़ सी मची है जो अपने लाभ और वोटों की राजनीति से ज़्यादा प्रेरित है।
आधुनिक शिक्षा को समाज सुधार की रामबाण दवा माना गया है, जो ग़लत नहीं है। लेकिन शिक्षित नागरिकों के मनोजगत में बैठा हुआ सामंती पुरुष भी जाति की चेतना से ग्रस्त है। दुर्भाग्य है कि शिक्षा, लोकतन्त्र, तकनीक और बाज़ार के द्वारा रचे गए आधुनिकता के समूचे तंत्र का संचालन सूत्र सामंती पितृसत्ता के इसी मनोविज्ञान के हाथों में है। उसे बदले बिना समानता लेन का स्वप्न अधूरा ही रहेगा।
पवन करण
तुम जिसे प्रेम कर रही हो इन दिनों
तुम्हें पता है, इन दिनों तुम जिसे प्रेम कर रही हो
उसकी जाति क्या है।
जिसे तुम अपना सब कुछ सौंपती जा रही हो लगातार
क्या तुम उसकी इस बात का मर्म समझती हो।
जो वह तुमसे कहता है हर बार
एक बात जो मैं तुम्हें अपने बारे में बता नहीं रहा हूँ।
मैं उसे तुमसे छिपा नहीं रहा
वह बात उसकी जाति को लेकर है ।
तुम्हारा प्रेम है कि उसने तुम्हें इस बात पर कभी
ध्यान नहीं देने दिया कि क्यों ऐसा होता है जब भी।
जाति को लेकर सबके बीच कोई-कोई बात चलती है
वह चुप बना रहता है ।
अपनी जाति को लेकर नहीं करता कोई बात
और वह यह भी चाहता है जितनी जल्दी हो
बदले उसके लिए कष्टप्रद यह विषय ।
जब तुम छोटी जातियों को लेकर घृणा उगलती हो
वह तुमसे अपनी आँखें चुराने लगता है
क्यों वह अपनी जाति को लेकर तुम्हें
तपाक से कोई उत्तर नहीं देता
तुम्हारे आगे क्यों टाल जाता है वह
अपनी पहचान का उल्लेख ।
यह बात जिसे इस भय से कि वह
किस जाति का है जानकर छोड़ न दो तुम उसे
बताना चाहते हुए भी नहीं बता पा रहा है तुम्हें
बताना चाहता हूँ मैं ।
तुम जो उसे छोडऩे को तैयार नहीं क़तई
तुम जो उसके साथ बिताना चाहती हो जीवन
तुम जो उसे अपने प्रति मानती हो सबसे संवेदनशील
मुझे नहीं लगता उसकी असलियत जानकर
उसकी ओर वह बहाव रह पाएगा तुम्हारा
जो अभी है तुम्हारे भीतर अपार।
उसकी जाति उसकी जाति उसकी जाति
यह शोर कान पका डालेगा तुम्हारे
उसकी जाति की तरफ़ हमेशा तनी रहने वाली उँगली
अपनी आँखें बंद कर लेने के लिए कर देगी तुम्हें विवश
और यह सब तुम्हारे द्वारा उनकी पसंद के पुरुष के
न चुन पाने की वजह से नहीं ।
उसकी छोटी जाति का होने की वजह से होगा
पता नहीं ये बातें सुन-सुनकर
तुम कितना अडिग रह पाओगी।।

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