-सुभाष मिश्र
भारत जैसे विविध धार्मिक परंपराओं वाले देश में तीर्थयात्राएं सिर्फ आस्था के ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक जीवन के भी महत्वपूर्ण आयाम हैं। अमरनाथ यात्रा, कांवड़ यात्रा, बाबा धाम की श्रावणी यात्रा और अन्य धार्मिक आयोजन सदियों से करोड़ों लोगों की श्रद्धा और भक्ति का केंद्र रहे हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य आत्मिक शुद्धि, सामुदायिक एकता और परमात्मा से एकत्व की अनुभूति रहा है परंतु बीते कुछ वर्षों में जिस तरह इन धार्मिक आयोजनों को राजनीति, ध्रुवीकरण और शक्ति प्रदर्शन से जोड़ा जा रहा है, उसने इनकी मूल भावना को ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है।
अमरनाथ यात्रा हो या कांवड़ यात्र इन आयोजनों के शुरू होने से पहले ही सुरक्षा बैठकों, धारा 144 के आदेश, रूट डायवर्जन और सोशल मीडिया पर बयानबाजी का जो सिलसिला शुरू होता है, वह बताता है कि धार्मिक भावनाओं से अधिक प्रशासनिक दबाव और राजनीतिक नफा-नुकसान का गणित अब इन यात्राओं पर हावी हो गया है। कांवड़ यात्रा में जिस तरह लाउडस्पीकरों पर अश्लील गानों, हथियारनुमा झांकियों और कभी-कभी नशे में धुत युवकों की टोलियों का बोलबाला देखा जाता है, वह भक्ति से अधिक उग्र प्रदर्शन की छवि बनाता है। इसी तरह अमरनाथ यात्रा, जो शिव भक्ति और आत्मिक साधना का प्रतीक है, अब आतंकवाद, कश्मीर की संवेदनशीलता और सुरक्षा एजेंसियों की चुनौती बनती जा रही है। इससे भी चिंताजनक है कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा इन यात्राओं को ‘ध्रुवीकरण का माध्यम कहकर उन्हें समुदाय विशेष से जोड़ देने की प्रवृत्ति।
अमरनाथ गुफा की धार्मिक मान्यता हजारों वर्षों पुरानी है। पुराणों में वर्णित इस स्थल पर भगवान शिव ने माता पार्वती को अमर कथा सुनाई थी। यह वही स्थान है जहां प्राकृतिक हिमलिंग बनता है जो चंद्रमा की कलाओं के साथ घटता-बढ़ता है। आस्था और प्रकृति का अद्भुत संगम है। अनंतनाग, चंदनवाड़ी, शेषनाग जैसे पड़ावों पर श्रद्धालुओं का ध्यान आध्यात्मिक अनुभवों की ओर केंद्रित होता है। इस वर्ष भी 3 जुलाई से 9 अगस्त तक चलने वाली यात्रा के लिए प्रशासनिक तैयारी, हेलीकॉप्टर सेवाएं, आरएफआईडी टैगिंग जैसी व्यवस्थाएँ की गई हैं। वहीं दूसरी ओर सुरक्षा अलर्ट, अलगाववादी तत्वों की आशंकाएँ और संचार व्यवस्था पर पाबंदियां यात्रा के आध्यात्मिक पक्ष को प्रभावित करती हैं।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत गंगा जल लाकर शिवलिंग पर अर्पित करने की परंपरा से हुई थी, जिसका पौराणिक आधार समुद्र मंथन और शिव के विषपान से जुड़ा है। भगवान परशुराम को इसका प्रथम कांवडिय़ा माना जाता है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में यह यात्रा जैसे-जैसे विशाल होती गई, इसमें धार्मिक एकाग्रता की जगह प्रदर्शनकारी प्रवृत्तियाँ बढ़ती गईं। आज कुछ स्थानों पर इस यात्रा को लेकर इतने आदेश और प्रतिबंध लागू होते हैं कि यह मूल उद्देश्य से भटक कर एक व्यवस्थागत तनाव में बदल जाती है। एक ओर श्रद्धालु जनजीवन से कटकर गंगा जल लाने की कठिन तपस्या में लीन रहते हैं तो दूसरी ओर डीजे साउंड, बाइक स्टंट और सड़क पर कब्जा कर लेने वाली भीड़ शांति भंग करने का कारण बन जाती है।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि इन धार्मिक आयोजनों को अब राजनीतिक दलों द्वारा ‘अपना एजेंडा साधने के उपकरण के रूप में देखा जाने लगा है। कोई नेता कांवड़ यात्रा को नफरत फैलाने वाला जुलूस बताता है तो कोई उसे हिंदुत्व का महान प्रतीक बताकर समर्थन जुटाने में लग जाता है। अमरनाथ यात्रा को लेकर भी कुछ बयान ऐसे दिए जाते हैं जो उसे केवल एक सुरक्षा समस्या या अलगाववाद के नजरिए से ही देखने की कोशिश करते हैं।
इससे धर्म और राजनीति के बीच जो खाई पहले भी मौजूद थी, वह और गहरी होती जा रही है। धार्मिक आयोजनों को सच्ची श्रद्धा और आध्यात्मिक शांति से जोडऩे के बजाय अगर उसे वोटबैंक, समुदाय विरोध या शक्ति प्रदर्शन का मंच बनाया जाएगा, तो वह यात्रा नहीं, सामाजिक संकट बन जाएगी।
आज की आवश्यकता यह है कि धार्मिक यात्राओं को उनके मूल स्वरूप में लौटाया जाए। इसके लिए प्रशासन, समुदाय और नेताओं तीनों की जि़म्मेदारी स्पष्ट होनी चाहिए। हर यात्रा से पहले केवल सुरक्षा बैठकें न हों, बल्कि सामुदायिक संवाद आयोजित हों, जिसमें सभी धर्मों, समुदायों के प्रतिनिधि भाग लें। कांवड़ यात्रा में भाग लेने वाले युवा अनुशासन, शांति और नियमों का पालन करें। संगीत और जुलूस धार्मिक मर्यादाओं के अनुरूप हों। यात्राओं के मार्ग को ट्रैफिक से मुक्त करने के साथ-साथ आम नागरिकों की सुविधा का भी ख्याल रखा जाए। बल प्रयोग के बजाय संवाद आधारित समाधान लागू हों। नेता और पार्टियां धार्मिक आयोजनों को ‘राजनीतिक शस्त्र की तरह इस्तेमाल करने से बचें। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बयान धर्मों के बीच वैमनस्य नहीं बढ़ाएं।
अमरनाथ यात्रा और कांवड़ यात्रा जैसी धार्मिक परंपराएं भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। इन्हें समाज के जोडऩे वाले सूत्र के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि बाँटने वाले औज़ार के रूप में। यदि इन यात्राओं की पवित्रता को सुरक्षित रखना है तो राजनीति, मीडिया और समाज तीनों को संयम और जागरूकता का परिचय देना होगा। वरना यह तीर्थ यात्राएं अपने ही अर्थ खो बैठेंगी और भक्ति के नाम पर सिर्फ विवाद ही बचेगा।