Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – बहुत मजबूत हैं जातिगत जड़ें

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

हम लाख कहें कि जाति पाति पूछे ना कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। या
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान।।
हमारे बहुत सारे मंदिरों में दलितों, स्त्रियों का प्रवेश निषेध है। महात्मा गांधी जिन्होंने अस्पृश्यता और छुआछूत के खिलाफ अभियान चलाया तथा इस समुदाय से जुड़े लोगों को हरिजन नाम दिया। कालान्तर में यह नाम भी विलोपित करना पड़ा। जात-पात, छुआछूत को लेकर कड़े क़ानून बने, इस वर्ग के कल्याण के लिए अलग मंत्रालय बने, आयोग बने किन्तु समाज में व्याप्त जातिगत व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि तमाम क़ानूनों, आरक्षण की व्यवस्था, स्पेशल थानों के बावजूद अभी भी यह समस्या बहुत जगहों पर यथावत बनी हुई है। बहुत सारे राजनीतिक दल और उसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी जातिगत गणना की बात कर चुका है, वह जाति को लेकर राजनीतिक दलों के मंसूबों और वोट बैंक को सहेजने की ज्यादा बड़ी कवायद दिखती है, बजाय इस वर्ग को बराबर लाने के। ऐसे समय जब संसद में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन जो दलित समाज से आते हैं, द्वारा शंभाजी को लेकर की गई टिप्पणी को लेकर कर्णिसेना उग्र आंदोलन करके तलवार चमका रही हो, औरंगज़ेब को लेकर महाराष्ट्र की राजनीति गरमाई हुई हो तब अनुराग कश्यप जैसे लेखक, फि़ल्ममेकर को अपने गुस्से पर नियंत्रण रखकर ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी जो ब्राम्हाण समाज को बैठे-ठाले उत्तेजित करे।
जातिवादी व्यवस्था, जिसे अक्सर मनुवादी या ब्राह्मणवादी व्यवस्था कहा जाता है, भारतीय समाज में सदियों से शोषण और असमानता का प्रमुख कारण रही है। यह व्यवस्था मनुस्मृति जैसे ग्रंथों पर आधारित है जो वर्णाश्रम व्यवस्था को बढ़ावा देती है और सामाजिक पदानुक्रम में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान देती है, जबकि शूद्रों और दलितों को हाशिए पर रखती है। इस व्यवस्था के कारण दलित समुदायों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर भेदभाव, उत्पीडऩ और अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ा। छुआछूत, मंदिर प्रवेश पर रोक, शिक्षा से वंचित करना और श्रम का शोषण जैसी प्रथाएं इस व्यवस्था का हिस्सा थीं।
फि़ल्ममेकर अनुराग कश्यप अपनी फि़ल्म फूले की रिलीज़ पर हो रहे विलंब को लेकर जब खिझ भारी टिप्पणी करते हैं और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गरियाते हुए ब्राह्मणों के खिलाफ अश्लील टिप्पणी करते हैं तो पूरे देश में ब्राह्मण उनके खिलाफ लामबंद होकर उन्हें सबक सिखाने, फूले फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग करने लगते हैं।
सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले 19वीं सदी में सामाजिक सुधार के अग्रदूत थे, जिन्होंने जातिवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया। उनका मुख्य ध्यान दलितों, शूद्रों और महिलाओं के उत्थान पर था। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जो क्रांति की उसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलती। 1848 में सावित्रीबाई और ज्योतिबा ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला, जो उस समय की रूढि़वादी सोच के खिलाफ एक बड़ा कदम था। सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं उन्होंने दलित और शूद्र बच्चों के लिए स्कूल शुरू किए, क्योंकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में इन समुदायों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। फूले दंपति ने जाति और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए ज्योतिबा ने गुलामगिरी (1873) जैसी किताब लिखकर जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचना की। उन्होंने मनुस्मृति के अन्यायपूर्ण नियमों को चुनौती दी। सावित्रीबाई ने विधवाओं और बलात्कार पीडि़त महिलाओं के लिए आश्रय स्थल खोले और सामाजिक सुधार के लिए कविताओं और लेखों के माध्यम से जागरूकता फैलाई। ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों, शूद्रों और अन्य उत्पीडि़त समुदायों को सामाजिक और धार्मिक शोषण से मुक्त करना था। इस संगठन ने बिना ब्राह्मण पुजारी के विवाह जैसे सुधारों को बढ़ावा दिया।सावित्रीबाई और ज्योतिबा को अपने सुधार कार्यों के लिए ब्राह्मणवादी समाज से भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें सामाजिक बहिष्कार, अपमान और धमकियों का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए लड़ाई जारी रखी।
मनुवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों के उत्पीडऩ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले जैसे सुधारकों के प्रयासों ने दलितों और अन्य उत्पीडि़त समुदायों में जागरूकता पैदा की और सामाजिक सुधार की नींव रखी। उनके कार्यों ने बाद में डॉ. बी.आर. आंबेडकर जैसे नेताओं को प्रेरित किया, जिन्होंने दलित मुक्ति आंदोलन को और आगे बढ़ाया। जातिवादी व्यवस्था, विशेष रूप से मनुवादी और ब्राह्मणवादी विचारधारा, दलित उत्पीडऩ का मूल कारण रही है। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने शिक्षा, सामाजिक समानता और मानवाधिकारों के लिए अपने संघर्ष से इस व्यवस्था को चुनौती दी और समाज में बदलाव की शुरुआत की। उनका योगदान आज भी प्रासंगिक है क्योंकि जातिगत भेदभाव और शोषण के खिलाफ लड़ाई अभी भी जारी है।
यही वजह है कि नाटककारों, फिल्म मेकर और समाजसेवियों को ऐसे लोग आकर्षित करते हैं। फूले फिल्म बनाने वाले अनुराग कश्यप कहते हैं कि उनकी जिंदगी का पहला नाटक ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले पर था। डायरेक्टर अनुराग कश्यप की अपकमिंग फिल्म ‘फुलेÓ में एक्टर प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने लीड रोल प्ले किया है। ये फिल्म समाज सुधारक की जोड़ी ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले की जिंदगी पर आधारित है। इस फिल्म पर विवाद तब शुरू हुआ जब इस पर जातिवाद फैलाने का इल्जाम लगा। सीबीएफसी की ओर से इसकी रिलीज पर रोक लगाने को लेकर डायरेक्टर ने एक पोस्ट शेयर की, जिसमें जातिगत टिप्पणी की। उन्होंने सर्टिफिकेशन बोर्ड पर गुस्सा जाहिर तो किया। साथ ही ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ विवादित बयान दे दिया। बढ़ते विवादों को देखते हुए अनुराग ने इस पर माफी मांगी। उनके खिलाफ शिकायत भी दर्ज करा दी गई है। अनुराग कश्यप ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट शेयर की है। इसे शेयर करने के साथ ही उन्होंने माफी मांगी और लिखा, ‘मैं माफी मांगता हूं लेकिन, अपनी पोस्ट के लिए नहीं बल्कि एक लाइन के लिए, जिसे गलत कंटेस्ट में लिया गया और नफरत फैलाई गई। परिवार, दोस्त, बेटी और कुलीग के आगे कोई एक्शन, भाषण मायने नहीं रखता है, जब उन्हें रेप और जान से मारने की धमकियां मिल रही हों। जो खुद को संस्कारी कहते हैं, वही ये सब कर रहे हैं। कही हुई बात वापिस नहीं ली जा सकती और ना मैं लूंगा लेकिन मुझे जो गाली देना है दो।
मेरे परिवार ने ना कुछ कहा है ना कहते हैं। इसलिए अगर मुझसे माफी ही चाहिए तो ये मेरी माफी है। ब्राह्मण लोग औरतों को बख्श दो। इतना संस्कार तो शास्त्रों में भी है, सिर्फ मनुवाद में नहीं है। आप कौन से ब्राह्मण हो तय कर लो बाकी मेरी तरफ से माफी।
अनुराग कश्यप सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहते हैं की जब फिल्म उनके पास , पास होने जाती है तो वहां पर केवल 4 सदस्य होते हैं मगर ग्रुप्स और विंग्स को कैसे फिल्में पहले देखने के लिए मिल रही हैं? अनुराग कश्यप ने अपनी पोस्ट में उन फिल्मों का जिक्र भी किया है जो जातिवाद, क्षेत्रवाद, नस्लभेद पर चोट करती हैं। इसमें ‘पंजाब 95Ó, ‘तीसÓ, ‘धड़क 2Ó जैसी फिल्मों के नाम लिखे और बताया कि कई फिल्में रही हैं, जिन्हें ब्लॉक किया गया। उन्होंने यह भी लिखा है कि धड़क 2 की स्क्रीनिंग में सेंसर बोर्ड ने बोला, मोदी जी ने इंडिया में कास्ट सिस्टम खत्म कर दिया है। उसी आधार पर संतोष भी इंडिया में रिलीज नहीं हुई। अब ब्राह्मण को समस्या है फुले से। भइया, जब कास्ट सिस्टम ही नहीं है तो काहे का ब्राह्मण। कौन हो आप? आपकी क्यों सुलग रही है। जब कास्ट सिस्टम था नहीं तो ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई क्यों थे? या तो आपका ब्राह्मणवाद एक्जिस्ट ही नहीं करता क्योंकि मोदी जी के हिसाब से इंडिया में कास्ट सिस्टम नहीं है? ये सब लोग मिलकर सबको बेवकूफ बना रहे हैं। भाई मिलकर डिसाइड कर लो इंडिया में जातिवाद है या नहीं। लोग बेवकूफ नहीं हैं। आप ब्राह्मण लोग हो या फिर आप के बाप हैं, जो ऊपर बैठे हैं। डिसाइड कर लो।
अनुराग कश्यप की पोस्ट को लेकर देश के अलग-अलग क्षेत्र में एफआईआर दर्ज हुई है। डायरेक्टर अनुराग कश्यप के इस विवादित बयान पर एफआईआर भी दर्ज कराई गई है। देश के बहुत ही प्रतिभाशाली डायरेक्टर में गिने जाने वाले और नये प्रतिभाशाली कलाकारों को आगे लाने वाले अनुराग कश्यप वर्ण और जातिगत व्यवस्था में अपर कास्ट समझे जाने वाले क्षत्रिय समाज से आते हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में 10 सितंबर 1972 को अनुराग कश्यप का जन्म हुआ था। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई देहरादून के ग्रीन स्कूल से की। फिर वे आठ साल की उम्र में ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में पढऩे चले गए। उनकी चर्चित फिल्मों में गैंग्स ऑफ वासेपुर, गुलाल, उड़ान, लंच बाक्स, ब्लैक फ्राइडे , शाहिद, लुटेरा, क्विन, बाम्बे वेलवेट, अग्ली, हंटर, एम एच 10 बनाई है। उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी और पटकथा के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला।
अनुराग कश्यप फिल्म फुले 11 अप्रैल, 2025 को रिलीज होने वाली थी, लेकिन सेंसर बोर्ड द्वारा रोक लगाए जाने के कारण यह रिलीज नहीं हो सकी। कुछ ब्राह्मण संगठनों ने फिल्म में जातिवाद से जुड़े मुद्दों को लेकर आपत्ति जताई, जिसके बाद सेंसर बोर्ड ने इसे मंजूरी नहीं दी। फिल्म को लेकर समर्थन और विरोध का लेकर सोशल मीडिया पर मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आ रही हैं । कुछ लोगों ने कश्यप और फिल्म फुले का समर्थन किया, उनका तर्क था कि यह फिल्म सामाजिक सुधारकों के योगदान को उजागर करती है और इसे बिना कट के रिलीज करना चाहिए। वहीं, कुछ ने इसे ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ प्रचार बताया।
इस समय फिल्में देखने के लिए कम विवाद और प्रचार के लिए या फिर किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के काम आ रही है। सोशल मीडिया के ज़रिए विवाद खड़ा करके कुछ लोग, संगठन बिना फिल्म देखे विवाद में कूद जाते हैं। कई बार खुद फिल्म से जुड़े लोग प्रचार की दृष्टि से भी विवादों को जन्म देते हैं। बहरहाल, फूले फिल्म के ज़रिए एक बार ज्योतिबा और सावित्रीबाई फूले के कामों को याद किया जा रहा है।

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