-सुभाष मिश्र
सरकार ने पांच साल पहले संसद से पारित चार नई श्रम संहिताओं—मजदूरी संहिता, औद्योगिक संबंध संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य दशा संहिता—को देशभर में लागू कर दिया है। ब्रिटिश काल से चली आ रहीं 29 पुरानी श्रम व्यवस्थाओं को समाहित करने वाली ये संहिताएँ एक ओर सरकार की नज़र में “सरलीकरण और आधुनिकीकरण” का प्रयास हैं, तो दूसरी ओर श्रमिक संगठनों के लिए यह “अधिकारों का संकुचन” और “धोखाधड़ी” है। इसी टकराव के चलते दस प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों—INTUC, AITUC, HMS, CITU, AIUTUC, TUCC, SEWA, AICCTU, LPF और UTUC—ने 26 नवंबर को देशव्यापी विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है।
सरकार का प्रचार इसे श्रमिक हितैषी सुधार के रूप में दिखाता है, लेकिन मज़दूर संगठन इसे ‘कंपनियों को खुली छूट’ और ‘श्रमिकों के विरुद्ध कठोर प्रावधान’ बताते हुए विरोध कर रहे हैं। पाँच वर्षों की देरी के बाद अचानक इन संहिताओं के लागू होने से असहजता और अविश्वास दोनों बढ़े हैं। ऐसे में आवश्यक है कि पूरे विवाद को संतुलित दृष्टि से देखा जाए—सिर्फ़ नारों या आरोपों के बजाय उन बिंदुओं पर जिनसे यह टकराव उपजा है।
ट्रेड यूनियनों का तर्क है कि नई संहिताएँ श्रमिकों के सुरक्षा कवच को कमजोर कर देती हैं। उदाहरण के तौर पर 100 से बढ़ाकर 300 कर्मचारियों वाली इकाइयों को बिना सरकारी अनुमति छँटनी की छूट मिल जाना ‘हायर एंड फायर’ को संस्थागत रूप देता है। उनका मानना है कि इससे स्थायी रोजगार का ढाँचा टूटेगा, ठेका और दिहाड़ी श्रमिकों की संख्या बढ़ेगी और संगठित क्षेत्र का मज़दूर अधिक असुरक्षित हो जाएगा। 12-12 घंटे की शिफ्ट, रात की पाली में महिलाओं से काम लेने जैसे प्रावधान भी स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ी गंभीर चिंताएँ पैदा करते हैं। यूनियनों का यह भी आरोप है कि श्रमिकों की भागीदारी, सलाह-मशविरा और संवाद की जगह कानून थोपने जैसा माहौल बना दिया गया है—पांच वर्षों में हुए राष्ट्रीय विरोधों के बावजूद उनकी कोई माँग नहीं सुनी गई।
दूसरी ओर सरकार का कहना है कि भारत की उत्पादन क्षमता और वैश्विक प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए यह सुधार अनिवार्य थे। सरकार का दावा है कि उलझे हुए पुराने श्रम कानून निवेश को रोकते थे, छोटे उद्योगों को अनुपालन के बोझ तले दबा देते थे और रोजगार सृजन की राह में बाधा थे। नए प्रावधानों से उद्योगों को आवश्यक लचीलापन मिलेगा, तेजी से निवेश आएगा और परिणामस्वरूप रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। सरकार यह भी कहती है कि इस प्रक्रिया के साथ श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाकर व्यापक संरक्षण दिया गया है—ईएसआई, पीएफ और अन्य कल्याणकारी प्रावधानों को अधिक संगठित रूप में लागू किया जा सकेगा।
लेकिन विवाद यहीं तक सीमित नहीं है। हड़ताल और यूनियन अधिकारों पर नए नियमों ने तनाव और बढ़ा दिया है। हड़ताल से 14 दिन पहले नोटिस अनिवार्य करना, यूनियन की मान्यता के लिए 51 प्रतिशत सदस्यता जैसी शर्तें मज़दूर संगठनों के मुताबिक सामूहिक सौदेबाजी को कमजोर करती हैं। उनका कहना है कि इससे यूनियनें प्रभावहीन हो जाएंगी और प्रबंधन को मनचाहे फैसले लागू करने की सुविधा मिलेगी। सरकार इन प्रावधानों को औद्योगिक शांति बनाए रखने की दिशा में उठाया गया कदम बताती है और कहती है कि इंस्पेक्टर-कम-फैसिलिटेटर मॉडल दंडात्मक कार्रवाई के बजाय सुधार और मार्गदर्शन को प्राथमिकता देगा।
दिलचस्प बात यह है कि इस बार सिर्फ़ श्रमिक ही नहीं, छोटे और मध्यम उद्यमी भी चिंतित हैं। एसोसिएशन ऑफ इंडियन एंटरप्रेन्योर्स का कहना है कि कई नए प्रावधान उनकी परिचालन लागत बढ़ा देंगे और कई क्षेत्रों में रोज़मर्रा का व्यवसाय ही प्रभावित होगा। यह संकेत देता है कि सुधारों का मकसद भले ही सरलता हो, लेकिन संक्रमणकाल और अनुपालन की अस्पष्टता ने उद्योग जगत के एक हिस्से को भी आशंकित किया है।
विवाद का मूल यही है—श्रमिकों और उद्योगों की जरूरतों के बीच संतुलन कहाँ साधा जाए। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण श्रम बाजार में न तो पूर्ण सरकारी नियंत्रण समाधान है और न ही पूरी तरह बाज़ार आधारित लचीलापन। मजदूरों का तर्क है कि अधिकारों की सुरक्षा किसी भी सुधार की आधारशिला होनी चाहिए, जबकि सरकार का दावा है कि लचीले श्रम बाजार के बिना विकास संभव नहीं। इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच संवाद की कमी ही आज सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है।
तथ्य यही है कि नई श्रम संहिताएँ भारत की अर्थव्यवस्था और श्रमिक बाजार दोनों को गहराई से प्रभावित करने जा रही हैं। पर वास्तविक प्रश्न यह है कि क्या यह सुधार श्रम संरक्षण और औद्योगिक विकास दोनों को साथ लेकर चल पाएंगे, या फिर टकराव और बढ़ेगा। 26 नवंबर को होने वाले विरोध प्रदर्शन इस बहस को और तीखा करेंगे, लेकिन समाधान सिर्फ़ व्यापक संवाद, पारदर्शिता और उन वास्तविक चिंताओं को समझकर ही निकल सकता है जिन्हें मजदूर और उद्यमी दोनों महसूस कर रहे हैं। किसी भी संहिता की सफलता अंततः उसी पर निर्भर करेगी कि वह सिर्फ़ कागज़ों पर नहीं, बल्कि कार्यस्थलों पर भरोसा और सुरक्षा का वातावरण पैदा कर सके।