Demand for pay scale : बाज़ार की बन आई

वेतनमान की दुहाई, बाज़ार की बन आई

‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को खुश रखने के लिए ग़ालिब खय़ाल अच्छा है।’

यह पंक्ति आज के सरकारी कर्मचारी की मन:स्थिति का सबसे सटीक रूपक है। उम्मीद के बिना कर्मचारी जी नहीं सकता, और उसी उम्मीद पर उसका घर, बच्चों की पढ़ाई, ईएमआई और नौकरी की ईमानदारी टिकी रहती है। यही वजह है कि आठवें वेतन आयोग की चर्चा केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि करोड़ों कर्मचारियों की रोज़मर्रा की मानसिक ज़रूरत बन चुकी है। रकार एक बार फिर आश्वासन दे रही है कि बीते कल को भूलिए, आगे की सुध लीजिए। आठवां वेतन आयोग आएगा, वेतन बढ़ेगा, ढांचा बदलेगा। लेकिन कर्मचारी के मन में सवाल वही पुराना है, जब पिछला पूरा नहीं मिला, तो नए पर भरोसा कैसे किया जाए? जैसे ही आठवें वेतन आयोग का नाम सार्वजनिक विमर्श में आता है, बाज़ार हरकत में आ जाता है। कैलकुलेटर चलने लगते हैं, टीवी चैनलों पर हेडलाइन चमक उठती हैं और प्रॉपर्टी डीलर, स्कूल प्रबंधन, निजी अस्पताल और कोचिंग संस्थान अपनी दरें ‘समायोजित’ करने लगते हैं। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि एक स्थापित पैटर्न है, वेतन आयोग की चर्चा होते ही महंगाई का पहिया पहले घूमने लगता है।

सरकार दावा करती है कि उसने जीएसटी घटाया है, टैक्स सुधार किए हैं, लेकिन बाज़ार का जवाब सीधा होता है, कीमतें बढ़ा दी गई हैं। नतीजा यह कि कर्मचारी की आमदनी अठन्नी की रफ्तार से बढ़ती है और खर्चा रुपया बनकर दौड़ता है। वेतन आयोग लागू हो या न हो, उसके आने की खबर भर से रसोई, किराया और पढ़ाई महंगी हो जाती है।
आठवें वेतन आयोग को 1 जनवरी 2026 से प्रभावी माना जा रहा है। लेकिन सरकारी कर्मचारियों का अनुभव बताता है कि वेतन आयोग पहले कागज़़ों में उतरता है, फिर जेब तक पहुंचता है। सातवें वेतन आयोग की मिसाल सामने है: गठन 2014 में, रिपोर्ट 2015 में, मंज़ूरी 2016 में और भुगतान उसके बाद। यही क्रम इस बार भी दोहराए जाने की आशंका है। विशेषज्ञ मानते हैं कि आठवें वेतन आयोग की रिपोर्ट 2027 तक आएगी और वास्तविक भुगतान 2028 के आसपास शुरू होगा, वह भी एरियर के भरोसे।

कागज़़ी गणनाएं आकर्षक हैं। 20 से 35 प्रतिशत तक वेतन बढ़ोतरी, फिटमेंट फैक्टर 1.8 से 2.46 या उससे अधिक, न्यूनतम बेसिक वेतन 18 हजार से बढक़र 40-44 हजार तक जाने की संभावनाएं। लेकिन असली सवाल यह नहीं कि आंकड़े क्या कहते हैं, बल्कि यह है कि कर्मचारी के हाथ में वास्तविक रूप से क्या आएगा।
यहीं पर सबसे बड़ा झटका छिपा है, महंगाई भत्ता यानी डीए। आज जो डीए लगभग 58 प्रतिशत है, वह नई वेतन संरचना में शून्य से शुरू होगा। सरकार इसे तकनीकी सुधार बताएगी, लेकिन कर्मचारी इसे सीधे अपनी जेब में महसूस करेगा। बेसिक वेतन बढ़ेगा, लेकिन कुल वेतन में जो सहारा था, वह अचानक गायब हो जाएगा। और जब नई बेसिक पर डीए धीरे-धीरे जुड़ेगा, तब तक बाज़ार कई चक्कर आगे निकल चुका होगा।

केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए आठवां वेतन आयोग फिर भी एक ठोस उम्मीद की तरह दिखाई देता है। लेकिन असली संकट राज्यों में है। ज़्यादातर राज्य आज भी छठे वेतन आयोग की बकाया किस्तों का बोझ ढो रहे हैं। सातवां वेतन आयोग कई राज्यों में अधूरा लागू है और डीए एरियर वर्षों से लंबित है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, राजस्थान जैसे राज्यों में कर्मचारी अब आश्वासनों की भाषा नहीं समझते; वे आंदोलन और कलम बंद हड़ताल की भाषा में अपनी बात रख रहे हैं।
राज्यों की वित्तीय हालत और कठिन तब हो जाती है जब केंद्र मनरेगा जैसी योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने की बात करता है। खर्च का बोझ राज्यों पर डाल दिया जाता है, लेकिन संसाधन वही पुराने रहते हैं। ऐसे में राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों को क्या जवाब दें? यही वजह है कि राज्य कर्मचारियों के लिए आठवां वेतन आयोग उम्मीद से ज़्यादा चिंता का विषय बनता जा रहा है।

पेंशनर्स के लिए सरकार यूनिफाइड पेंशन स्कीम को बड़ी राहत के रूप में पेश कर रही है। लेकिन इसकी शर्तें बताती हैं कि 25 साल की सेवा के बाद ही 50 प्रतिशत पेंशन का पूरा लाभ मिलेगा। यानी यह भविष्य का भरोसा है, वर्तमान की राहत नहीं। मौजूदा पेंशनर्स के लिए आठवां वेतन आयोग सीमित राहत लेकर आएगा, वह भी बढ़ती महंगाई की शर्तों के साथ।
यह पूरा परिदृश्य एक विचित्र विडंबना रचता है—एक भारत, जहां केंद्र के कर्मचारी वेतन कैलकुलेटर में अपना भविष्य देख रहे हैं; और दूसरा भारत, जहां राज्य कर्मचारी एरियर, डीए और अधूरे वेतनमान के लिए सडक़ों पर संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया में ‘कर्मचारियों की बल्ले-बल्ले’ की सुर्खियां चलती हैं, लेकिन यह बल्ले-बल्ले कुछ लाख लोगों तक सीमित है, करोड़ों राज्य कर्मचारियों और पेंशनर्स तक नहीं।

इसलिए सवाल सिर्फ यह नहीं है कि वेतन बढ़ेगा या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या वह बढ़ोतरी महंगाई से पहले मिलेगी? क्या बाज़ार पर कोई प्रभावी नियंत्रण होगा? क्या राज्यों को इतना वित्तीय संबल मिलेगा कि वे अपने कर्मचारियों से झूठे वादे करने के बजाय समय पर भुगतान कर सकें? आठवां वेतन आयोग अपने आप में कोई जादुई समाधान नहीं है। यह सिर्फ एक संकेत है कि मौजूदा वेतन संरचना महंगाई के दबाव में टूट चुकी है और कर्मचारियों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है। लेकिन अगर इसके साथ बाज़ार नियंत्रण, राज्यों को राहत और समयबद्ध भुगतान की गारंटी नहीं दी गई, तो यह आयोग भी पिछले आयोगों की तरह उम्मीद ज़्यादा और राहत कम बनकर रह जाएगा।
उम्मीद रखना ग़लत नहीं है, लेकिन भ्रम में जीना खतरनाक है। जब तक बाज़ार पर लगाम नहीं लगेगी, राज्यों की वित्तीय घुटन कम नहीं होगी और भुगतान समय पर नहीं होगा, तब तक हर नया वेतन आयोग यही दोहराएगा—

दिल को बहलाने को खय़ाल अच्छा है,
लेकिन महंगाई उससे नहीं रुकती।
और तब भी सच यही रहेगा—
वेतनमान की दुहाई,
बाज़ार की बन आई।

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