Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – अब जाति ही पूछो साधु की…

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

0 सब काम सब करें, कथा हमी बाचेंगे

इटावा जिले के बकेवर थाना क्षेत्र के ग्राम दादरपुर में 21 जून को भागवत कथा वाचन करने वाले यादव जाति के कथावाचकों के साथ हुई मारपीट और अभद्र घटना हाल ही में सुर्खियों में आई, जब एक यादव कथावाचक पर कुछ लोगों ने हमला किया। हमलावरों का तर्क था कि कथा वाचन सिर्फ ब्राह्मणों का विशेषाधिकार है और गैर ब्राह्मण द्वारा यह कार्य करना उनके लिए अस्वीकार्य था। हमलावरों ने कथा वाचक का मुंडन किया। कथित तौर पर पेशाब से शुद्धिकरण का अपमानजनक कृत्य किया। इस घटना ने स्थानीय स्तर पर तनाव पैदा किया और जल्द ही राजनीतिक रंग ले लिया। जातिगत हिंसा और ब्राह्मणवादी सोच को फिर से चर्चा में ला दिया है। समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पीडि़त कथावाचकों को अपने पार्टी कार्यालय में बुलाकर कथा सुनी और उनका सम्मान किया। वहीं, दूसरी ओर हमलावर पक्ष इसे महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटना से जोड़कर अपनी कार्रवाई को जायज ठहराने की कोशिश कर रहा है। यह घटना न केवल जातिगत तनाव को दर्शाती है बल्कि कथा वाचन जैसे धार्मिक कार्यों पर ब्राह्मणों के पारंपरिक एकाधिकार और बदलते सामाजिक परिदृश्य पर भी सवाल उठाती है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिन्दू वोटों को एकजुट करने के लिए अक्सर सार्वजनिक मंचों से कहते हैं कि बंटेंगे तो कटेंगे। इस घटना के बाद ब्राम्हण और यादव जो यूपी में एक बड़ा वोट बैंक है उसे लेकर राजनीति गरमा गई है। लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि क्या कथावाचक का ब्राम्हण होना जरूरी है।
जाति व्यवस्था का आधार शुरू में पेशे पर था। लोहार लोहे का काम करता था, सोनार सोने का, बढ़ई लकड़ी का और ब्राह्मण पूजा-पाठ व शिक्षण का। यादव गौ-पालन से जुड़े थे, नीची जाति के लोग चमड़े के काम से और पनवाड़ी पान बेचने का। यह व्यवस्था सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए थी, लेकिन समय के साथ आर्थिक और सामाजिक बदलाव हुए। उच्च वर्ग की जाति के श्रेष्ठता बोध ने इसे जटिल बना दिया। भारत ही एक ऐसा देश है जहां समाज में एक साथ घोर रूढि़वादी और प्रगतिशील लोग एक साथ मिल जाते हैं। सद्भाव और सदाशयता नजर आने लगी थी तो जाति के श्रेष्ठता बोध ने हिंसा का रूप ले लिया है। जबकि आज लोग अपनी पारंपरिक जातिगत पेशा छोड़कर आर्थिक अवसरों का पीछा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए सफाई जैसे कार्य, जो पहले कुछ खास जातियों से जोड़े जाते थे, अब ब्राह्मण समुदाय के लोग भी कर रहे हैं।
इसी तरह, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी जातिगत सीमाएं टूट रही हैं। पंडित हरिप्रसाद चौरसिया (बांसुरी वादक), उस्ताद बिस्मिल्लाह खान (शहनाई वादक), पंडित कुमार गंधर्व (गायक) और बिरजू महाराज (नृत्य गुरु) जैसे लोग, जो ब्राह्मण समुदाय से नहीं थे, ने अपनी कला से विश्व स्तर पर पहचान बनाई। छत्तीसगढ़ की तीजन बाई, जो पंडवानी गायन करती हैं और स्वर्गीय सूरज बाई खांडे, जो भरथरी की कथा कहती थीं, शूद्र वर्ण से होने के बावजूद लोकप्रिय कथावाचक रहीं। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि कला, संगीत और कथा वाचन जैसे क्षेत्रों में प्रतिभा और ज्ञान ने जातिगत बंधनों को तोड़ा है।
पारंपरिक रूप से कथा वाचन जैसे धार्मिक कार्य ब्राह्मणों के विशेषाधिकार माने जाते थे। भागवत कथा, शिव महापुराण और रामायण जैसे आयोजनों में ब्राह्मण कथावाचकों को प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन, ग्रामीण भारत में नवधा रामायण जैसे उत्सव जो फसल कटाई के बाद 8-9 दिनों तक चलते हैं, सभी समुदायों को एक मंच पर लाते हैं। इनमें बहू-बेटियां और विभिन्न जातियों के लोग बारी-बारी से कथा पढ़ते हैं, बिना किसी जातिगत भेदभाव के। यह सामुदायिक सहभागिता सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है।
हालांकि, आधुनिक समय में भागवत कथा और शिव महापुराण जैसे आयोजन बड़े पैमाने पर हो रहे हैं, जिनमें बाहर से चर्चित ब्राह्मण कथावाचकों को बुलाया जाता है। ये आयोजन अक्सर किसी समृद्ध व्यक्ति या समुदाय विशेष द्वारा प्रायोजित होते हैं और आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। ऐसे आयोजनों में ब्राह्मण कथावाचकों का प्रभुत्व बना हुआ है, जो इटावा जिले के बकेवर थाना क्षेत्र के ग्राम दादरपुर जैसी घटनाओं के पीछे एक कारण हो सकता है।
भारत में प्रस्तावित जातिगत गणना एक महत्वपूर्ण कदम है, जो सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों को बदल सकता है। जिन जातियों की संख्या अधिक होगी, उनका प्रभाव क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ेगा। ऐसे में इटावा जैसी ब्राह्मणवादी सोच, जो कथा वाचन जैसे कार्यों पर एकाधिकार बनाए रखना चाहती है, को चुनौती मिल सकती है। जातिगत गणना से पिछड़े और दलित समुदायों को अधिक प्रतिनिधित्व और संसाधन मिलने की संभावना है, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलेगा।
हालांकि, यह प्रक्रिया अपने आप में जटिल है। ब्राह्मणवादी सोच, जो सदियों से सामाजिक संरचना में गहरे पैठी हुई है, को बदलने में समय लगेगा। कबीर का कथन, जात ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, इस संदर्भ में प्रासंगिक है। ज्ञान और प्रतिभा को जाति से ऊपर रखने की जरूरत है, जैसा कि तीजन बाई, सूरज बाई खांडे और अन्य गैर-ब्राह्मण कथावाचकों ने साबित किया है।
इटावा जिले के बकेवर थाना क्षेत्र के ग्राम दादरपुर की घटना एक दुखद उदाहरण है कि कैसे जातिगत पूर्वाग्रह आज भी समाज को विभाजित करते हैं। कथा वाचन जैसे धार्मिक कार्य, जो समुदाय को जोडऩे का माध्यम होने चाहिए। ब्राह्मणवादी सोच के कारण विवाद और जाति विभाजन का कारण बन रहे हैं। हालांकि, सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। नवधा रामायण जैसे सामुदायिक आयोजन, गैर-ब्राह्मण कथावाचकों की लोकप्रियता और जातिगत गणना जैसे कदम इस दिशा में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। समाज को कबीर के संदेश को अपनाने की जरूरत है। ज्ञान और मानवता को जाति से ऊपर रखकर ही हम एक समावेशी और समरस समाज की ओर बढ़ सकते हैं। हालांकि सरकार और समाज से भी संगठन ऐसे जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है।
केरल में मंदिरों में पुजारी के रूप में केवल ब्राह्मणों की नियुक्ति की परंपरा रही है। हालांकि, सामाजिक सुधार आंदोलनों और प्रगतिशील नीतियों के कारण इस परंपरा को चुनौती दी गई। 2017 में त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड ने गैर-ब्राह्मणों को पुजारी के रूप में नियुक्त करने के निर्णय से 36 गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की गई। उल्लेखनीय है कि पुजारियों की नियुक्ति लोक सेवा आयोग की तर्ज पर लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के आधार पर की जाती है, जिसमें सभी जातियों के उम्मीदवार भाग ले सकते हैं। बोर्ड के अधीन 1,248 मंदिरों में यह प्रक्रिया लागू की गई।
इस कदम ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया, विशेषकर एझावा और अन्य पिछड़े समुदायों को मंदिरों में पूजा-अर्चना का अवसर मिला। इसी तरह सबरीमाला मंदिर में एझावा समुदाय के पुजारी की नियुक्ति चर्चा में रही। तमिलनाडु सरकार ने 2006 में एक अध्यादेश जारी कर सभी जातियों के लोगों को मंदिरों में पुजारी बनने की अनुमति दी। इसके तहत गैर-ब्राह्मणों को प्रशिक्षण देकर पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया। हाल के वर्षों में कुछ मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों को गर्भगृह में प्रवेश से रोका गया। फरवरी 2025 में तमिलनाडु के एक मंदिर में दो गैर-ब्राह्मण पुजारियों ने वंशानुगत ब्राह्मण पुजारियों पर भेदभाव का आरोप लगाया और सरकार से हस्तक्षेप की मांग की।
तमिलनाडु में पुजारी प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं, जहां सभी जातियों के लोग वैदिक और आगम शास्त्रों का प्रशिक्षण ले सकते हैं। कर्नाटक सरकार ने भी कुछ मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति को प्रोत्साहित किया है, विशेषकर सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों में।
उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में, गैर-ब्राह्मण पुजारी छोटे मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं। उदाहरण के लिए, एक एक्स पोस्ट में उल्लेख किया गया कि अवध में एक मंदिर में ओबीसी समुदाय का पुजारी कार्यरत है।
मंदिरों में ब्राह्मणों और पुरुषों का वर्चस्व ऐतिहासिक, सामाजिक, और धार्मिक कारणों से बना हुआ है। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में 2025 में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें सवाल उठाया गया कि सरकारी मंदिरों में केवल ब्राह्मणों को ही पुजारी क्यों नियुक्त किया जाता है। कोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा। गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति का विरोध अक्सर परंपरावादी समूहों द्वारा किया जाता है, जैसा कि तमिलनाडु के मामले में देखा गया।
कई मंदिरों में महिलाओं और शूद्रों (वर्ण व्यवस्था के अनुसार निम्न जातियों) के प्रवेश पर ऐतिहासिक रूप से प्रतिबंध रहा है। हालांकि, सामाजिक आंदोलनों और कानूनी हस्तक्षेप ने इनमें से कई प्रतिबंधों को हटाया है। सबरीमाला मंदिर (केरल) में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने 10-50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया, लेकिन स्थानीय परंपरावादियों ने इसका कड़ा विरोध किया। शनि शिंगणापुर मंदिर (महाराष्ट्र) में 2016 में बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति मिली। कई मंदिरों में अब महिलाएं पूजा-अर्चना कर सकती हैं और कुछ स्थानों पर महिला पुजारी भी नियुक्त की गई है।
इटावा जिले के बकेवर थाना क्षेत्र के ग्राम दादरपुर की घटना, जिसमें एक यादव कथावाचक पर ब्राह्मणवादी सोच के कारण हमला किया गया, मंदिरों में ब्राह्मण वर्चस्व से जुड़ी है। यह घटना दर्शाती है कि धार्मिक कार्यों पर ब्राह्मणों का एकाधिकार बनाए रखने की मानसिकता अभी भी समाज के कुछ हिस्सों में मौजूद है। हालांकि, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति इस मानसिकता को चुनौती दे रही है।
केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति और महिलाओं/शूद्रों के मंदिर प्रवेश की अनुमति सामाजिक समावेशिता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। ये बदलाव संविधान के समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 और 15) और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूत करते हैं। सरकारों को पुजारी प्रशिक्षण केंद्रों का विस्तार करना चाहिए और मंदिरों में सभी जातियों और लिंगों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए नीतियां लागू करनी चाहिए। साथ ही सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर परंपरावादी मानसिकता को बदला जा सकता है।
कबीर का कथन, जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, इस संदर्भ में प्रासंगिक है। मंदिरों में पूजा-अर्चना का अधिकार ज्ञान और श्रद्धा पर आधारित होना चाहिए, न कि जाति या लिंग पर। यह अफसोस की बात है कि लोग तेजी से शिक्षित होते जा रहे हैं लेकिन उनके भीतर रूढिय़ां भी उतनी तेजी से पनप रही हैं।