-सुभाष मिश्र
अब पड़ोस का कन्सेप्ट बदल गया है। हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा कोई व्यक्ति आपका पड़ोसी हो गया है और घर के पड़ोस में रहने वाले से आपकी कोई दुआ-सलाम तक नहीं। रियल और वर्चुअल के बीच इस दुनिया में सोशल मीडिया के ज़रिए आपने ऐसे दोस्त बना लिए हैं जिनसे आप कभी रूबरू नहीं हुए। इसके ठीक उलट जिनके साथ आप पढ़े-लिखे, खेले-कूदे वे कहीं ओझल से होते जा रहे हैं। यही वजह है कि आपके फ़ेसबुक की फे्रंड लिस्ट में हज़ारों दोस्त मौजूद हैं, जिन्हें आपके स्टेट्स के ज़रिए आपके पल-पल की खबर है, किन्तु आस-पड़ोस में आपका कोई दोस्त नहीं। यदि आप किसी कैम्पस कालोनी में रहते हैं और वहां की कालोनी व्हाट्यअप ग्रुप से जुड़ी है तो बहुत बार उनके द्वारा पोस्ट किये जा रहे व्हाट्सअप मैसेज को जो कि अधिकांश फारवर्ड मैसेज होते हैं, पढक़र समझ जाते हैं कि आपका पड़ोसी कैसा है। कई बार आपके आसपास की दुनिया से अलग के लोग आपके पड़ोस, शहर के बारे में आपको बताते हैं। दरअसल वर्चुअल दुनिया के ज़रिए आपके आसपास की दुनिया का भी नैरेटिव सेट करने का काम आजकल ज़ोर-शोर से चल रहा है। छलावा ऐसा है कि आप निजी अनुभवों को ख़ारिज करके उस बात को सच मानने लगते हैं जो कि गढंत है। अधिकांश लोगों ने अपने आस-पास ऐसी दुनिया गढ़ ली है जो उन्हें रास आती है। इस दुनिया का सबसे बड़ा भय है अकेलापन। व्हाट्सअप, फेसबुक के सहारे जिंदगी नहीं कटना। ये बात आजकल अक्सर सुनने को मिलती है कि जीना है तो घर से निकलना होगा, रिश्ते बनाने होंगे। दोस्ती गांठनी होगी। पड़ोसियों से बातचीत करनी होगी। आज के फ्लैट कल्चर वाले महानगरीय जीवन में सबसे बड़ी चुनौती तो ये है कि खुदा न खास्ता आपकी मौत हो गई तो क्या कंधा देने वाले चार लोगों का इंतजाम आपने कर रखा है..? जिन पड़ोसियों के लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा रखा था, जिन्हें कभी आपने घर नहीं बुलाया, वो भला आपको घाट तक पहुंचाने क्यों जाएंगे..? हमने कोरोना कॉल में इस सच्चाई को बहुत नज़दीक से देखा है। पहले कहा जाता था कि किसी के सुख में जाओ या मत जाओ पर दुख में जरूर जाना चाहिए। अब लोग दुख की अभिव्यक्ति सोशल मीडिया के ज़रिए ही कर लेते हैं।
पड़ोस की इस नई अवधारणा ने मानवीय संबंधों में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है। मुहल्लेेदारी की सदियों पुरानी परंपरा इस वर्चुअल की चपेट में आकर नष्ट हुई है। जीवंत वार्तालाप की जगह वर्चुअल संवाद ने ले ली है और आपस में वस्तुओं के आदान-प्रदान की परंपरा ख़त्म हो जाने के साथ परस्पर आत्मीयता का स्रोत भी सूख गया है। पड़ोस के घरों से व्यंजनों का लेन-देन नहीं होता। इसके माध्यम से स्वाद की विविधता विकसित होती थी। अब उसकी जगह रेस्तरां के व्यंजनों ने ले ली है, जहाँ स्वाद लगभग मानकीकृत हो चुका है। मुझे याद आता है हमारे आस-पड़ोस में कोई ऐसी सब्ज़ी मिठाई बनती थी, जो बाबूजी को पसंद थी तो पड़ोस की मामी, काकी, मौसी, बुआ सहज ही बाई यानी मां से पूछ लेती थी। बाबूजी ने अभी खाना तो नहीं खाया ना, उनके पसंद की सब्ज़ी बनी है। जिस कटोरी में सब्ज़ी मिठाई, खीर आती थी उसमें घर से भी कुछ रखकर बाई देती। शक्कर, तेल, आटा, दही का जामन आदि लेना-देना तो आम बात थी।
हमारे बीच धर्म जाति समुदाय गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं था। महाराज जी या बामन का लडक़ा किसी यूनुस, किसी रमेश मराठे, किसी रामदयाल पारधी किसी सुरेश निडरवार के घर पूरे अधिकार से बिना किसी ऊँच-नीच को जाने-समझे खाना खा लेता है और ये भी हमारे घर की रसोई में बाई से खाना माँग लेते। तब सोशल मीडिया, व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी के वो डरावने मैसेज नहीं आते थे। हमारा पड़ोस हमारा था। यहाँ कोई किसी को डराने वाले चेहरे नहीं थे, जो इन दिनों आये दिन हमारी मोबाइल स्क्रीन पर दिखते हैं। किसी को किसी के खाने-पीने, चीजों को दूषित करने का डर नहीं था। तौफ़ीक़, तसीन की माँ, हमारी भी अम्मा जैसी थी। हमें बहुत बाद में पता चला कि ठाकुर बुआ हमारे पिताजी की सगी बहन नहीं, मुँह बोली बहन थी, जो हमारे लिए वैसी ही बुआ थी जैसी बाद में दूर ब्याही अपनी बुआ को देखा। पड़ोस वैसा रूखा और नीरस नहीं था जैसा इन दिनों गेटेड कॉलोनियों या बाक़ी मल्टी स्टोरी में दिखता है। यदि साल में माता का भंडारा, गणेशोत्सव का डिनर या रामनवमीं का प्रसाद वितरित ना हो तो बहुत से लोग एक ही कैम्पस में सालों-साल अजनबियों की तरह रहते हैं ।
बशीर बद्र का शेर है –
कोई हाथ भी ना मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, जऱा फिसलों से मिला करो।
औद्योगीकरण के शुरुआती दौर में देश के विभिन्न अंचलों से आये लोगों में परस्पर सांस्कृतिक लेन-देन के ज़रिए विविधता और सामंजस्य का जो नया माहौल निर्मित हुआ था, आज एकाकीपन और तटस्थता की प्रवृत्ति उसे भी लील चुकी है और निजता को सामाजिक जीवन में मूल्य की तरह स्थापित कर दिया गया है। पुराने ढंग के पड़ोस में निजता की जगह सामूहिकता का उत्सव था। मिल-जुलकर रहने का उत्साह था। नये पड़ोस के आभासी स्पेस में मित्रता के भेस में फुंफकार मारता विद्वेष और दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति है।
दरअसल नया पड़ोस वास्तविक नहीं, तकनीक द्वारा निर्मित्त है। ज़ाहिर है, उसके नियंत्रण के सूत्र भी तकनीक के हाथों में है। मानवीय संबंधों का नियंत्रण भी स्वाभाविक तौर पर तकनीक के पास ही है। यही आज की त्रासदी है कि मनुष्य का स्थान तकनीक ले रही है। मेरे प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में पड़ोस बहुत ही शिद्दत से मौजूद है। वास्तविकता में उनका पड़ोस उतना अच्छा नहीं है जैसा की उनके रचना संसार में।
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे-
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊंगा।
एक उफऩती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊंगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा।
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गांव-गांव, जंगल-गलियां जाऊंगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूंगा।
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूंगा।।
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कविता 2
अब कभी मिलना नहीं होगा ऐसा था
और हम मिल गए
दो बार ऐसा हुआ
पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद
जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु
पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।
थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था।।