Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – क्या दो भागों में बँट जाएगी पूरी दुनिया?

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

ईरान और इजऱायल के बीच हालिया सैन्य टकराव ने एक बार फिर वैश्विक भू-राजनीति को उथल-पुथल में डाल दिया है। इस टकराव में अमेरिका की सक्रिय भागीदारी ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या दुनिया एक बार फिर दो खेमों में बंटने की ओर बढ़ रही है—एक तरफ अमेरिका, इजऱायल और उनके पश्चिमी सहयोगी और दूसरी तरफ ईरान, रूस, चीन तथा कुछ इस्लामिक देश।

2025 में ईरान के परमाणु ठिकानों पर इजऱायल-अमेरिका द्वारा किए गए हमले के जवाब में ईरान ने मिसाइल हमलों से पलटवार किया। यह सिर्फ दो देशों का युद्ध नहीं रहा, बल्कि मिडिल ईस्ट में दशकों से पल रही अस्थिरता का विस्फोटक रूप है। इस संघर्ष के पीछे सिर्फ धार्मिक तनाव नहीं, बल्कि रणनीतिक प्रभुत्व, ऊर्जा नियंत्रण और वैश्विक सैन्य शक्ति का प्रदर्शन भी छिपा है।

मिडिल ईस्ट की राजनीति इस युद्ध के चलते और अधिक जटिल होती जा रही है। एक ओर ईरान के पास हिज़बुल्लाह, सीरियाई शासन और यमन के हूती विद्रोहियों जैसे ताकतवर क्षेत्रीय सहयोगी हैं, वहीं इजऱायल को अमेरिका का सशक्त समर्थन प्राप्त है। सऊदी अरब जैसे देश जो पहले ईरान के विरोध में थे, अब इजऱायल के हमलों की निंदा कर रहे हैं, जिससे एक नए प्रकार की गठबंधन राजनीति उभर रही है।

इस स्थिति में रूस और चीन की भूमिका भी अहम हो गई है। दोनों देश पहले ही अमेरिका और इजऱायल की आलोचना कर चुके हैं। रूस ईरान को सैन्य सहायता देने की स्थिति में है, वहीं चीन कूटनीतिक और आर्थिक समर्थन देने के लिए तैयार दिखता है। यदि यह गठबंधन और गहराया तो यह अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए एक नई सामरिक चुनौती बन सकता है जो शीत युद्ध जैसी वैश्विक ध्रुवीयता को जन्म दे सकता है।

इस संघर्ष के प्रभाव सिर्फ कूटनीतिक नहीं, आर्थिक भी हैं। मिडिल ईस्ट से जुड़ी तेल आपूर्ति पर खतरा मंडराने लगा है। होर्मुज़ जलडमरूमध्य के अस्थिर होने से वैश्विक तेल की कीमतें बढ़ सकती हैं, जिसका सबसे बड़ा असर विकासशील देशों, विशेष रूप से भारत पर पड़ सकता है।

ईरान और इजऱायल के बीच तनाव 2025 में नए स्तर पर पहुंच गया है, खासकर इजऱायल और अमेरिका के कथित हमलों के बाद जिनमें ईरान के परमाणु केंद्रों और सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया गया। ईरान ने जवाब में खैबर शेकन मिसाइलों का उपयोग कर इजऱायल पर हमले किए, जिससे क्षेत्रीय तनाव और गहरा गया। मिडिल ईस्ट की राजनीति में निम्नलिखित प्रभाव देखे जा सकते हैं । क्या शक्ति संतुलन में बदलाव होगा ? इजऱायल की सैन्य श्रेष्ठता और अमेरिकी समर्थन उसे क्षेत्रीय ताकत बनाए रखता है, लेकिन ईरान की मिसाइल क्षमता और क्षेत्रीय सहयोगी (जैसे हिजबुल्लाह, हूती विद्रोही) उसे एक महत्वपूर्ण चुनौती बनाते हैं। ईरान (शिया-प्रधान) और सऊदी अरब (सुन्नी-प्रधान) के बीच पहले से मौजूद तनाव बढ़ सकता है। सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों ने इजऱायल के हमलों की निंदा की है, जो क्षेत्र में एक नई गठबंधन गतिशीलता को दर्शाता है। अमेरिका का ईरान पर हमला क्षेत्र में उसकी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास है, लेकिन यह अन्य देशों (जैसे रूस, चीन) को ईरान के पक्ष में ला सकता है, जिससे मिडिल ईस्ट में प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा तेज होगी। यह युद्ध लेबनान, सीरिया और यमन जैसे क्षेत्रों में फैल सकता है, जहां ईरान और इजऱायल के सहयोगी सक्रिय हैं, जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता बढ़ेगी।

इस संघर्ष के वैश्विक प्रभाव व्यापक और जटिल हैं तेल और ऊर्जा बाजार। मिडिल ईस्ट में तनाव से तेल की कीमतों में अस्थिरता बढ़ सकती है। ईरान और खाड़ी क्षेत्र वैश्विक तेल आपूर्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और किसी भी बड़े युद्ध से तेल की कीमतें आसमान छू सकती है जिसका असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। रूस और चीन पहले ही इजऱायल और अमेरिका के खिलाफ बयान दे चुके हैं। यदि ईरान इन देशों को अपने पक्ष में लाता है तो यह एक व्यापक भू-राजनीतिक टकराव का रूप ले सकता है, जो शीत युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हमले और उसका जवाब वैश्विक परमाणु प्रसार के मुद्दे को फिर से उजागर करते हैं। इससे परमाणु हथियारों की दौड़ तेज हो सकती है। वैश्विक व्यापार, खासकर ऊर्जा और शिपिंग मार्ग (जैसे होर्मुज जलडमरूमध्य) बाधित हो सकते हैं, जिससे यूरोप, एशिया और अन्य क्षेत्रों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी। युद्ध से बड़े पैमाने पर विस्थापन और मानवीय संकट उत्पन्न हो सकता है, जिसका बोझ पड़ोसी देशों और वैश्विक समुदाय पर पड़ेगा।
ईरान का रूस, चीन और इस्लामिक देशों के साथ गठबंधन की स्थिति बनेगी। यह सवाल भी लोगों के ज़ेहन में है। ईरान ने पहले ही रूस और चीन के साथ रणनीतिक साझेदारी विकसित की है और इस युद्ध ने उसे इन देशों के साथ और करीब ला दिया है। जहां तक इस्लामिक देशों की बात है इराक, सीरिया और यमन जैसे देशों में ईरान के सहयोगी पहले से सक्रिय हैं। तुर्की, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों ने भी इजऱायल के हमलों की निंदा की है, जो ईरान को क्षेत्रीय समर्थन जुटाने का अवसर देता है। हालांकि, सऊदी अरब और यूएई जैसे देशों का रुख अस्पष्ट है, क्योंकि वे अमेरिका के सहयोगी भी हैं। वहीं रूस और चीन ने इस संघर्ष को तनाव कम करने की सलाह दी है लेकिन उनकी नीतियां अमेरिकी प्रभाव को कम करने की दिशा में हैं। रूस, ईरान को हथियार और तकनीकी सहायता प्रदान कर सकता है, जबकि चीन आर्थिक और कूटनीतिक समर्थन दे सकता है। यह गठबंधन अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकता है। यह एक प्रकार की अमेरिका को चुनौती भी है। यदि ईरान इन देशों के साथ मिलकर एक मजबूत गठबंधन बनाता है तो यह अमेरिका के मिडिल ईस्ट में प्रभुत्व को कमजोर कर सकता है। हालांकि, इस गठबंधन की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि ईरान कितना क्षेत्रीय और वैश्विक समर्थन जुटा पाता है।

ईरान-इजरायल युद्घ से भारत में राजनीतिक ध्रुवीकरण की स्थिति बन रही है। भारत में इस संघर्ष ने पहले से ही राजनीतिक बहस को तेज कर दिया है। ईरान के समर्थक कुछ लोग, खासकर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल, ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक और आर्थिक संबंधों के कारण उसके पक्ष में हैं। ईरान भारत के लिए तेल का महत्वपूर्ण स्रोत रहा है और क्षेत्रीय स्थिरता भारत के हित में है। इजऱायल और अमेरिका के समर्थक दूसरी ओर, कुछ लोग जो अमेरिका और इजऱायल के साथ रणनीतिक साझेदारी को प्राथमिकता देते हैं, इजऱायल का समर्थन करते हैं। भारत और इजऱायल के बीच रक्षा और प्रौद्योगिकी सहयोग मजबूत है, और अमेरिका भारत का प्रमुख रणनीतिक साझेदार है। भारत की नीति की बात की जाए तो भारत ने अभी तक तटस्थ रुख अपनाया है, संघर्ष को कूटनीति से हल करने की वकालत की है। हालांकि, तेल की कीमतों में उछाल और क्षेत्रीय अस्थिरता भारत की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर दबाव डाल सकती है।

उस लड़ाई से युद्ध का वैश्विक भविष्य क्या होगा। क्या यह युद्ध दुनिया को कई दिशाओं में ले जा सकता है यदि संघर्ष मिडिल ईस्ट तक सीमित रहता है तो यह लंबे समय तक छिटपुट हमलों और जवाबी कार्रवाइयों के रूप में जारी रह सकता है। हालांकि, इससे क्षेत्रीय अस्थिरता बढ़ेगी। दुनिया के देशों में वैश्विक टकराव की स्थिति बन सकती है। यदि रूस, चीन और अन्य देश सक्रिय रूप से ईरान

का समर्थन करते हैं तो यह एक बड़े वैश्विक टकराव में बदल सकता है जो तीसरे विश्व युद्ध की आशंकाओं को बढ़ाएगा। सभी देश चाहते हैं कि युद्ध टाला जाये इसको लेकर कूटनीतिक समाधान क्या हो सकते हैं। जिनेवा में संघर्ष विराम के लिए बातचीत चल रही है। यदि कूटनीति सफल होती है तो युद्ध को रोका जा सकता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमेरिका, ईरान, और इजऱायल कितना लचीलापन दिखाते हैं। यदि लंबे समय तक युद्ध से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा, खासकर विकासशील देशों पर। साथ ही, लाखों लोग विस्थापित हो सकते हैं, जिससे वैश्विक मानवीय संकट गहराएगा। ईरान-इजऱायल संघर्ष मिडिल ईस्ट की राजनीति को और जटिल कर रहा ह और इसके वैश्विक प्रभाव तेल की कीमतों, गठबंधनों और सुरक्षा पर पड़ रहे हैं। ईरान रूस, चीन और कुछ इस्लामिक देशों के साथ गठबंधन को मजबूत कर सकता है, लेकिन यह गठबंधन कितना प्रभावी होगा यह अनिश्चित है। भारत में यह मुद्दा राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ा रहा है, लेकिन भारत की तटस्थ नीति सबसे सुरक्षित रुख है। यह युद्ध वैश्विक स्थिरता के लिए खतरा है और इसका भविष्य कूटनीति, सैन्य संयम, और वैश्विक शक्तियों के रुख पर निर्भर करता है। यह युद्ध न सिर्फ मिडिल ईस्ट की दिशा तय करेगा, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन को भी प्रभावित करेगा। दुनिया दो ध्रुवों में बंटने की ओर बढ़ रही है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले हफ्तों और महीनों में कूटनीति, सैन्य संयम और वैश्विक नेतृत्व कितना समझदारी से व्यवहार करते हैं। युद्ध की आग को बुझाना अब सिर्फ मिडिल ईस्ट की ज़रूरत नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की अनिवार्यता है।