-सुभाष मिश्र
यदि हम आज कबीर की बात कर रहे हैं तो इसके मायने ये हंै कि वे 600 साल बाद भी हमारे बीच अपनी आंखन देखी बातों के कारण प्रासंगिक बने हुए हैं। समय कोई भी रहा हो चाहे वो सुकरात हो, कबीर हो या शहीद भगतसिंह। हर समय सच बोलने के खतरे मौजूद थे। कबीर अपने दोहों के जरिए अपने समय की सच्चाईयों का बयान करते हुए कहते हैं कि-
साधो जग बौराना सांच कहूं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना,
हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना
आपस में दोउ लड़े मरतु है मरम कोई नहिं जाना।
देश में मुगलों का शासन हो या काशी में पंडितों की सत्ता सबको सच का आईना दिखाते हैं कबीर। सच कहना आज भी बहुत मुश्किल है। सत्ता को ठकुर सुहाती अच्छी लगती है। आज आप यह नहीं कह सकते- न काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
आज साधु संत, मीडिया, समाज सुधारक सब किसी न किसी ओर झुके हुए हैं। कबीरदास के जन्म और मृत्यु की तिथियों के बारे में विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। बस इतनी बात निश्चित है कि पंद्रहवीं शताब्दी के हैं। उनके एक चेले धर्मदास का एक दोहा बताया जाता है जिसके अनुसार उनकी जन्मतिथि संवत् 1455 के अंत में जेठ की पूर्णिमा को सोमवार कोनिकलती है। इस आधार पर 1398 ई. उनके जन्म का वर्ष माना गया है। लोग उनका जन्म 1440 ई. में मानते हैं। कहा जाता है कि विधवा ब्राह्मणी के पेट से कबीर पैदा हुए। मां ने बदनामी के डर से एक तालाब के किनारे फेंक दिया। संयोग से काशी का एक मुसलमान जुलाहा नईमा के साथ उधर से गुजऱा। वे दोनों उस बच्चे को उठा लाए और उसका पालन अपने बेटे की तरह किया।
कबीरदास का अपना बयान है कि वह बनारस में पैदा हुए और मगहर-(जि़ला गोरखपुर) में उनकी मृत्यु हुई। सकल जनम शिवपुरी गँवाया, मरती बेर मगहर उठ धाया। इसमें महत्व की बात यह है कि मरते समय भी कबीर ने अपना क्रांतिकारी स्वभाव नहीं छोड़ा। जिस तरह वह मनुष्यों के बीच ऊँच-नीच को नहीं मानते थे, उसी तरह वह शहरों की ऊँच-नीच को भी पसंद नहीं करते थे। आम हिंदुओं का विश्वास है कि काशी में मरने वाले को मुक्ति मिल जाती है और इसके विपरीत मगहर में मरने वाला दोबारा गधे का जन्म लेता है। लेकिन कबीर, जिनको अपनी भक्ति पर पूरा विश्वास था, इस बात को कब मान सकते थे। इसलिए जब वे अपने जीवन की उस अवस्था में पहुँचे जब मृत्यु निकट मालूम हुई तो वह अपनी जन्मभूमि बनारस छोड़कर मगहर चले गए।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा।।
अर्थात् काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम (भगवान) बसा हुआ है। अगर कबीर की आत्मा काशी में इस तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर लें तो इसमें राम का कौन-सा एहसान है। अपनी ज़ात के बारे में कबीर ने ज़्यादातर जुलाहे के शब्द का प्रयोग है और कभी-कभी कोरी और कमीना भी कहा है।
कबीर ने अपने युग की जन-विरोधी सामाजिक विसंगतियों पर जोरदार प्रहार किया है। उस काल की अधिकांश विसंगतियों का ठोस आधार वर्णाश्रम धर्म की मान्यता थी। इसके कारण अनेक सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक पाखण्डों, अंधविश्वासों, जातिवाद, छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि जैसे अगतिशील भावनाओं को ठोस आधार मिल रहा है। समाज का एक विशाल जन-समुदाय वर्ण एवं जाति के आधार पर केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। इस विशाल जन-समुदाय की मुक्ति का पक्ष लेकर कबीर ने हिन्दू वर्ण-व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए कहा है-
तू बाभन बाभनि का जाया, आन बाट ह्व क्यों नहिं आया।
यही नहीं, उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा फैलायी गयी छूत-अछूत की भावना क चुनौती देते हुए अत्यन्त क्षोभ से कहा है-
काहे को कीजै पण्डे छोति विचारा। छोतिहि ते उपना संसारा हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
तुम कैसे बाभन पाण्डे हम कैसे सूट छोति छोति करता तुमही जाए। तो गर्भवास काहे को आए।
देश के सुप्रसिद्ध शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि जब हम कबीर के बचपन पर सोच-विचार करते हैं तो यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि हम कबीर को एक साधारण-सा बच्चा समझें या इतिहास का एक करिश्मा अथवा जादू समझें या भारत के आकाश पर एक जगमगाते हुए सितारे की वृद्धि समझें। ऐसा मालूम होता है कि यह बच्चा देखने में हड्डी-मांस का बना हुआ था और वास्तव में यह बच्चा छुपी हुई दुनिया की पवित्रताओं और प्रकाशों, खैरों और बरकतों और देवताओं के तमाम गुणों का मुजस्समा था।
उस समय के हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म और इस्लाम के संगम और मेल-जोल से एक नयी आत्मा जन्म ले रही थी। जिस तरह हजारों वर्ष पहले भगवतगीता ने दुनिया भर के मत-मतान्तरों, दीनों और धर्मों को एक ही लड़ी में पिरो दिया था, उसी तरह कबीर के जमाने में सन्त आन्दोलन ने हिन्दू धर्म और इस्लाम की एकता का पता लगा लिया था और हजारों हिन्दुओं और मुसलमानों को इस एकता के अनुभव से मस्त कर दिया था। इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतिनिधि हम कबीर को कह सकते हैं। सच्चे हिन्दू धर्म और सच्चे इस्लाम की एकता का अनुभव कराना महात्मा और कबीर का पहला काम और पहला पैगाम था। राम-रहीम एक ही हैं, यह शिक्षा कबीर के जीवन और रचनाओं में हिन्दुस्तान को नई जागृति देती हुई सुनाई देती है। कबीर के बाद से पुराने विश्वासों, ढकोसलों और सामाजिक शिक्षा ने बार-बार नये रूप धरे और नया जन्म लिया। गुरुनानक और सिख धर्म, अकबर का दीन-ए-इलाही बड़े-बड़े मुसलमान फकीर जैसे ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, शेख सलीम चिश्ती, हमारे जमाने में समय के सबसे बड़े फकीर वारिस शाह और इनके अलावा सन्त तुकाराम, चण्डीदास, चैतन्य देव, वैष्णव महात्मा, यहाँ तक कि महात्मा गांधी, इन तमाम हिन्दुओं के निर्माताओं और इतिहास बनाने वाली हस्तियों के पास वही शिक्षा के सबसे बड़े प्रतिनिधि या गुरु महात्मा कबीर थे।
कबीरवाणी लिखने वाले मशहूर शायर अली सरदार जाफरी कहते हैं कि इतिहास केवल घटनाओं का वर्णन नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक संबंधों के परिवर्तन की कहानी भी है और विचार और चेतना की प्रगति भी। इस वातावरण मैं आते-जाते पात्र परछाइयों की तरह घूमते रहते हैं और अगर परछाइयों का नाम लोग भूल भी जाएं तो कोई फ़कऱ् नहीं पड़ता। विचार और चेतना की प्रगति जारी रहती है। यही कारण है कि परिस्थितियों और घटनाओं का कबीर, सन् और तारीख का कबीर जिंदा नहीं है, लेकिन विचार और चेतना का कबीर, भावनाओं और अनुभूतियों का कबीर, कविता और गीत को कबीर जिंदा है। हर दोहा उसका अस्तित्व है, हर पद उसका व्यक्तित्व, हर विचार उसकी ज़बान। और जब हम उसके बोले हुए शब्दों को दोहराते हैं तो कबीर का साज़ बजने लगता है। शाही फऱमान और डंकों की आवाजें गूँगी हो जाती हैं और कबीर के दिल से निकलने वाले अनाहत नाद से आत्मा मस्त हो जाती है। पंडित का मंत्र और मुल्ला की अज़ान आसमानों के सन्नाटे में गुम हो जाती है और कबीर की प्रेम-वाणी धरती के सीने में धड़कती रहती है। ईरान के सुफ़ी शाइरों अत्तार, रूमी और हाफिज़़ के विचारों ने हिंदुस्तान की विचारधारा को किस हद तक प्रभावित किया है। उनके मूल्यों में कितनी समानता है और इन प्रवाहों की बहती हुई गंगा-जमुना का कबीर की कविता में कितना सुंदर संगम होता है। केवल इस तरह भेदभाव और घृणा की वे दीवारें गिराई जा सकती हैं जिन्हें कबीर ने ढा दिया था लेकिन उनके बाद की पीढिय़ों ने फिर ऊँचा उठा दिया।
कबीर की शिक्षाओं ने आम हिंदुओं और मुसलमानों को मुग्ध कर लिया लेकिन संकीर्ण दृष्टिवाले लोगों की आँखों में वे काँटे की तरह खटकते रहे। इसलिए उन्होंने कबीर के खि़लाफ़ हंगामा खड़ा कर दिया और उस समय के बादशाह सिकंदर लोदी तक उनकी शिकायत पहुँची।
डॉक्टर ताराचंद के शब्दों में, कबीर पहला व्यक्ति है जिसने एक केंद्री धर्म, एक मध्य मार्ग का नि:संकोच आगे आकर ऐलान किया। उसका नारा पूरे हिंदुस्तान में गूंज उठा और सैकड़ों जगहों से उसकी प्रतिध्वनि सुनीम कबीर के धर्मानुयायियों की संख्या उतना महत्व नहीं रखती, जितना कबीर का वह असर जो पंजाब, गुजरात और बंगाल तक फैल गया और मुगल-काल में बढ़ता गया।
हमें आज भी कबीर के नेतृत्व की ज़रूरत है, उस रोशनी की ज़रूरत इस संत सूफ़ी के दिल से पैदा हुई थी।
आज मोकों कहाँ ढूढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में॥
ऐ बंदे, तू मुझे कहाँ ढूँढता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूँ। नम में मिलूँगा, न मस्जिद में, न काबे और कैलाश में, न पूजा-पाठ में, न योन में। सच्चे मन से खोजने वाला हो तो उसे मैं पल-भर की तलाश जाऊँगा।
कबीर कहते हैं, भाई साधु सुनो, वह तो हर साँस में म
मन ना रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर में बैठे ब्रह्म-छाडि पूजन लागे पथरा।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले दाढी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।
जंगल जाय जोगी धूनिया रमौले काम जराय जोगी होय गैले हिजरा।
मथवा मुंडाय जोगी कपड़ा रंगौले गीता बाँच के होय गैले लबरा।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बांधल जैबे पकड़ा ।।
प्रेम का रंग है नहीं, उसने सिफऱ् कपड़े रंगवा लिये हैं, आसर बैठ गया है और ब्रह्म को छोड़कर पत्थर की पूजा कर रह कान चीरकर कूड़ल पहन लिये है, बाल लंबे कर लिये। बकरा बन गया है। जोगी जंगल में जाकर धूनी रमा रहा का दमन करके जोगी हिजड़ा हो गया है। सिर लिये हैं और गीता पढ़के बड़ी-बड़ी बातें बना रहा बेर कहते हैं कि इस तरह तू हाथ-पाँव बाँधकर यमाण: दिया जाएगा।
गगन घटा घहरानी साधो, गगन घटा घहरानी।
पूरब दिस से उठी है बदरिया, रिमझिम बरसत पानी।
आपन आपन मेड सम्हारो बह्यौ जात यह पानी।
सुरत-निरत का वेल नहायन, करै खेत निर्वानी।
धान काट मार घर आवे. सोइ कुसल किसानी।
दोनों थार बराबर परसै जेवें मूनि और ज्ञानी ॥
काश पर बादल गरज रहे हैं। साधुओं, आकाश पर बादल गरज रब की ओर से घटा उठी है और रिमझिम रिमझिम पानी बरस रहा अपने-अपने खेत की मेंड सँभालो नहीं तो यह पानी बहा जाता है। सुरत के बैल बाँधकर जो निर्वाण की खेती करता है और धान काटकर आता है वही कुशल किसान है। दोनों थालियों सुरति और निरति बर खाना परोसता है।
बकरि मारि भेडि़ को धाये, दिल में दरद न आई।
करि अस्नान तिलक दै बैठे, विधि सों देवि पुजाई।
आतन मारि पलक में बिनसे, रुधिर की नदी बहाई।
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिये, सभा माहिं अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हँसि आवे मोहिं भाई।
पाप-कटन को कथा सुनावैं, करम करावें नीचा।
बूड़त दोउ परस्पर दीखे, गहे बाँहि जम खींचा।
गाय बधै सो तुरक कहावै, यह क्या इनसे छोटे।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, कलि में बाम्हन खोटे॥
अरे साधु, ये पाँडे बडे कुशल क़साई हैं। बकरी का बलिदान करके भेड़ की ओर लपकते हैं। इनके दिल में दया नाममात्र की भी नहीं है। स्नान करके तिलक लगाकर बैठते हैं और बड़ी विधि से भगवान की पूजा करते हैं। ये अपनी आत्मा को क्षण भर में मार देते हैं और खून की नदियाँ बहा देते हैं। ये बड़े पवित्र हैं और कुलीन घराने से संबंध रखते हैं। सभा में इनका बड़ा मान है। सब लोक इनसे दीक्षा लेते हैं और मुझे यह देखकर बड़ी हँसी आती है। लोगों के पाप काटने के लिए ये कथा सुनाते हैं और उनसे नीच काम करवाते हैं। मैंने दोनों को एक साथ डूबते देखा है। जिसको इन्होंने सहारा दिया उसी को ले डूबे। जो गाय को मारे वह मुसलमान कहलाता है लेकिन क्या ये पाँड़े उन मुसलमानों से कुछ कम हैं। कबीर कहते हैं कि कलियुग में ब्राह्मण बहुत खोटे हो गए हैं।
हमें आज भी कबीर के नेतृत्व की ज़रूरत है, उस रोशनी की ज़रूरत है जो इस संत सूफ़ी के दिल से पैदा हुई थी। आज दुनिया आज़ाद हो रही है। विज्ञान की असाधारण प्रगति ने मनुष्य का प्रभुत्व बढ़ा दिया है। उद्योगों ने उसके बाहुबल में वृद्धि कर दी है। वह रंगों में बँटा हुआ है, जातियों में विभाजित है। उसके बीच धर्मों की दीवारें खड़ी हुई हैं। सांप्रदायिक द्वेष है, वर्ग-संघर्ष की तलवारें खिंची हुई हैं। बादशाहों और शासकों का स्थान नौकरशाही ले रही है। दिलों के अंदर अंधेरे हैं। छोटे-छोटे स्वार्थ और दंभ हैं जो मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना रहे हैं। जब वह शासन, शहंशाहियत और प्रभुत्व से मुक्त होता है तो खुद अपनी बंदी का गुलाम बन जाता है। इसलिए उसको एक नए विश्वास, नई आस्था और नए प्रेम की आवश्यकता है जो उतना ही पुराना है जितनी कबीर की आवाज़ और उसकी प्रतिध्वनि इस युग की नई आवाज़ बनकर सुनाई देती है।
अब प्रासंगिकता से ही कोई दृष्टा कवि अपने युग का अतिक्रमण भी करता है। जब विचार सामाजिक मनोविज्ञान द्वारा सामूहिक अवचेतन एवं लोकशक्ति का अंग बन जाते हैं तब वे अतिक्रमण भी करते हैं। दार्शनिक भूमि पर कबीर ने मृत्यु तथा संसार (के भयों) से भी अतिक्रमण किया है (मन फुलाफूला फिरे जगत में…., रहना नहि देस बिराना है…., कबिरा खड़ा बजार में…, आदि) । उनकी सहज समाधि (सहजयोग) भी अतिक्रमण की तीसरी दिशा है जिसमें कथनी-करनी-रहनी में निर्मलता की शर्त लगाई गई है तथा जो वेद-कतेब का, कासी-काबा का, पंडित-मुल्ला का, देस-देह का बहुआयामी अतिक्रमण करती है। कबीर के माध्यम सहज एवं अलख रहे हैं।
हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या।
रहे आजाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या।।
जो बिछुड़े हैं पियारे से भटकते दर बदर फिरते।
हमारा यार है हममें हमन को इन्तजारी क्या।।
खलक सब नाम अपने को बहत कर सिर पटकता है।
हमन गुरु नाम साँचा है हमन दुनिया से यारी क्या।।