देश के सांसदों के ज़रिए भले ही उपराष्ट्रपति पद का चुनाव हो रहा है पर चर्चा बस्तर के नक्सली आंदोलन से जुड़े सलवा जुडूम की हो रही है। कभी भाजपा की आंख के तारे और ऐसमैन रहे जगदीप धनखड़ ने भाजपा के अनुरूप काम ना करने की कोशिश की, उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। जो विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने वाला था, वो उनके समर्थन में खड़ा दिखा। इस्तीफ़े के बाद धनखड़ जी कहां हैं किसी को नहीं पता। अब उनके इस्तीफे से रिक्त उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हो रहा है।
इंडिया गठबंधन ने उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी. सुदर्शन रेड्डी को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। उनका मुकाबला एनडीए के उम्मीदवार सी. पी. राधाकृष्णन से होगा। यह चुनाव 9 सितंबर 2025 को होगा और गठबंधन ने इसे वैचारिक लड़ाई बताया है। रेड्डी की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय और समर्थकों ने उनके 2011 के सलवा जुडूम फैसले को निशाना बनाकर उन्हें नक्सल-समर्थक और देश विरोधी बताया। ये आरोप सोशल मीडिया पर तेजी से फैले, जिसकी पड़ताल जरूरी है।
तो सबसे पहले बात सलवा जुडूम की। सलवा जुडूम क्या था? तोसलवा जुडूम (गोंडी में शांति का कारवां) छत्तीसगढ़ के बस्तर और दंतेवाड़ा क्षेत्रों में 2005 में शुरू हुआ एक नक्सल विरोधी अभियान था। इसे कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा ने शुरू किया और तत्कालीन भाजपा सरकार (रमन सिंह) ने समर्थन दिया। इसका उद्देश्य आदिवासियों को संगठित कर माओवादी नक्सलियों के खिलाफ जन-आंदोलन चलाना था। सलवा जुडूम के अन्तर्गत आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में भर्ती किया गया, जिन्हें तीन महीने का प्रशिक्षण और 3000 रुपये मासिक वेतन देकर हथियार सौंपे गए। सलवा जुडूम को नक्सलियों के खिलाफ प्रभावी माना गया, लेकिन इसने जल्द ही विवाद खड़ा किया। सलमा जुडूम से जुड़े लोग जिनमें तत्कालीन भाजपा सरकार और महेन्द्र कर्मा समर्थकों का दावा था कि सलवा जुडूम ने नक्सलियों का प्रभाव कम किया और बस्तर में सड़क, स्कूल, और खनन जैसे विकास कार्यों को बढ़ावा दिया। वहीं इसका विरोध कर रहे मानवाधिकार संगठन (जैसे ह्यूमन राइट्स वॉच, पीयूसीएल) और कार्यकर्ता (जैसे नंदिनी सुंदर) ने इसे आदिवासियों के खिलाफ हिंसा का हथियार बताया। इसने गाँवों में आगजनी, हत्याएँ, यौन हिंसा और बड़े पैमाने पर विस्थापन को बढ़ावा दिया। उनका आरोप था कि इस अभियान के चलते 600 से अधिक गाँव खाली करवाए गए, 56,000 आदिवासियों को राहत शिविरों में भेजा गया, जहाँ भोजन, स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी थी। 100,000 से 150,000 लोग आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों में पलायन कर गए।सलवा जुडूम के दौरान 2006-2010 के बीच सलवा जुडूम और नक्सलियों के संघर्ष में सैकड़ों लोग मारे गए। पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, 540 हत्याएँ और 99 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। सुकमा के कोंडासावली में 95 घर जलाए गए, और ताडमेटला में 2011 में 300 घर नष्ट हुए। सलवा जुडूम से जुड़े एसपीओ पर यौन हिंसा और बलात्कार के आरोप लगे। नाबालिगों को एसपीओ के रूप में भर्ती करना अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन था। सलवा जुडूम का यह अभियान नक्सलवाद को खत्म करने में असफल रहा। उल्टा, आदिवासियों में डर और अविश्वास ने नक्सलियों के प्रति सहानुभूति बढ़ाई।
अब बात करते हैं इंडिया गठबंधन के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बी. सुदर्शन रेड्डी के सुप्रीम कोर्ट में दिये गये फैसले की तो यह मामला नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ सरकार (2011) का था । सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ बैंच ने यह फ़ैसला दिया था उसमें अकेले जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी नहीं थे यह डबल बैंच थी और जिसमें जस्टिस एस.एस. निज्जर भी शमिल थे। 5 जुलाई 2011 को दिये गये फैसले में दोनों जजों की बैंच ने सलवा जुडूम और एसपीओ की नियुक्ति को असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित किया गया।इस फैसले का प्रमुख आधार था 1. संवैधानिक उल्लंघन: नागरिकों को हथियार देकर खतरनाक माओवादी हमलों में भेजना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 21 (जीवन और स्वतंत्रता) का उल्लंघन था। 2. मानवाधिकार: कम प्रशिक्षण और कम वेतन (3000 रुपये) वाले एसपीओ की जान को खतरे में डालना अनैतिक था। एसपीओ पर गाँव वालों के खिलाफ हिंसा (हत्याएँ, आगजनी, यौन उत्पीडऩ) के आरोप थे। छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम बंद करने और एसपीओ को निरस्त्र करने का आदेश दिया गया। सरकार को आदिवासियों की सुरक्षा और पुनर्वास की जिम्मेदारी सौंपी गई। फैसले ने मानवाधिकारों की रक्षा और राज्य की जवाबदेही पर जोर दिया। यह याचिकाकर्ताओं (नंदिनी सुंदर और अन्य) द्वारा पेश सबूतों पर आधारित था, जिसमें हिंसा और विस्थापन के दस्तावेज शामिल थे।
कुछ लोगों ने उस समय इस फैसले की आलोचना की। बीजेपी समर्थकों और सलवा जुडूम के नेताओं ने इसे नक्सल-विरोधी लड़ाई को कमजोर करने वाला बताया, दावा करते हुए कि इसने नक्सलियों को मजबूत किया। इस बीच नक्सलियों द्वारा सलवा जुडूम का समर्थन और नेतृत्व करने वाले कांग्रेस के नेता महेंद्र कर्मा और बहुत से कांग्रेस नेताओं की की हत्या कर दी गई। 25 मई 2013 को, नक्सलियों ने सुकमा के दर्भा घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया, जिसमें विधाचरण शुक्ला ,महेंद्र कर्मा, छत्तीसगढ़ कांग्रेस प्रमुख नंदकुमार पटेल, उदय मुदलियार और 27 अन्य मारे गए। महेन्द्र कर्मा, सलवा जुडूम के संस्थापक, नक्सलियों के प्रमुख निशाने थे। उनके शरीर पर 78 चाकू के घाव और गोली के निशान मिले। नक्सलियों ने इसे सलवा जुडूम के खिलाफ प्रतिशोध बताया।
बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय और समर्थकों ने रेड्डी के 2011 के फैसले को नक्सल-समर्थक और देश-विरोधी बताया। उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 में रेड्डी की उम्मीदवारी के बाद, सोशल मीडिया पर ये दावे तेज हुए।ये आरोप उपराष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में इंडिया गठबंधन को कमजोर करने की रणनीति का हिस्सा लगते हैं। सलवा जुडूम एक संवेदनशील मुद्दा है और इसे उठाकर बीजेपी सांसदों और जनता को प्रभावित करना चाहती है। रेड्डी के फैसले को नक्सल-समर्थक बताने का कोई ठोस सबूत नहीं है। फैसला संवैधानिकता और मानवाधिकारों पर आधारित था, जिसका लक्ष्य आदिवासियों की रक्षा करना था। नक्सलवाद 2011 के बाद भी बना रहा, लेकिन इसके लिए सलवा जुडूम का अंत जिम्मेदार नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक असमानता और नीतिगत कमियाँ थीं। अब बात करें मौजूदा नक्सलवाद के ख़ात्मे की तो अमित शाह की नक्सलवाद उन्मूलन योजना (2026) केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2024 में कहा कि सरकार मार्च 2026 तक नक्सलवाद को खत्म कर देगी। इस काम के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने बड़े पैमाने पर सैन्य बल की तैनाती की है सीआरपीएफ, बीएसएफ और आईटीबीपी जैसे बलों की तैनाती बढ़ाई गई। 128 नए कैंप स्थापित किए गए, और ड्रोन जैसे आधुनिक उपकरणों का उपयोग हो रहा है। इसी के साथ समर्पण करने वाले नक्सलियों को डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड में शामिल किया गया, जो सलवा जुडूम के एसपीओ से अलग है। डीआरजी प्रशिक्षित और संगठित है और इसमें आम नागरिकों को हथियार नहीं दिए जाते। चूँकि, ये बात सभी जानते हैं की नक्सलवाद से केवल हथियार और सैन्य ताकत के भरोसे अकेले नहीं खत्म किया जा सकता। यह एक आर्थिक-सामाजिक समस्या भी है इसलिए इसके समानान्तर बस्तर में 3000 किमी सड़कें, 4887 मोबाइल टावर, स्कूल, और अस्पताल बनाए गए। आदिवासियों को रोजगार और शिक्षा के माध्यम से मुख्यधारा में लाने पर जोर दिया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले, टिप्पणी और मानवाधिकार संगठनों के बाद सरकार ने सलवा जुडूम से सबक लेकर उस दौरान हुई गलतियों (हिंसा, विस्थापन, मानवाधिकार उल्लंघन) से बचने के लिए सरकार ने अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता की कोशिश की है । सरकार की वर्तमान नीति सलवा जुडूम से अधिक संरचित और पेशेवर है, जो हिंसा के बजाय विकास और सुरक्षा पर केंद्रित है।
अब सवाल यह भी है कि क्या हमारे देश में चुनाव के समय किसी भी व्यक्ति पर कोई भी आरोप लगाना उचित है और खास करके जब यह आरोप सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से जड़े हों । यह सही है कि कोर्ट के फैसलों की आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन यह तथ्यों और तर्कों पर आधारित होनी चाहिए। रेड्डी का फैसला मानवाधिकार और संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित था, जिसे नक्सल-समर्थक बताना अतिशयोक्ति है।सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती है, जो स्वतंत्र और पारदर्शी मानी जाती है। रेड्डी की नियुक्ति या उनके अन्य फैसलों (जैसे भोपाल गैस त्रासदी, रामदेव आंदोलन) पर कोई गंभीर विवाद नहीं रहा। रेड्डी के खिलाफ देश-विरोधी फैसलों का कोई ठोस सबूत नहीं है। सलवा जुडूम फैसला आदिवासियों के अधिकारों और हिंसा रोकने पर केंद्रित था, न कि नक्सलवाद को बढ़ावा देने पर।
यह भी उतना ही सही है कि सलवा जुडूम नक्सलवाद को खत्म नहीं कर सका। इसने आदिवासियों में डर और नक्सलियों के प्रति सहानुभूति बढ़ाई, जिसने समस्या को जटिल किया।सलवा जुडूम की समाप्ति के बाद भी नक्सलवाद बना रहा, लेकिन इसके कारण सामाजिक-आर्थिक असमानता, भूमि विवाद, और विकास की कमी थे। कोर्ट के फैसले ने हिंसा को कम करने की कोशिश की, लेकिन नक्सलवाद के मूल कारणों को संबोधित करने के लिए व्यापक नीतियों की जरूरत थी।यदि हम नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति की बात करें तो सरकार की 2026 की समय-सीमा और विकास-केंद्रित नीति सलवा जुडूम की तुलना में अधिक प्रभावी दिखती है, क्योंकि यह हिंसा के बजाय पुनर्वास और विकास पर केंद्रित है। बी. सुदर्शन रेड्डी का 2011 का सलवा जुडूम फैसला संवैधानिकता और मानवाधिकारों पर आधारित था, जिसने आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा और हिंसा को रोकने की कोशिश की। सलवा जुडूम के दौरान हुए मानवाधिकार उल्लंघन (विस्थापन, हत्याएँ, यौन हिंसा, आगजनी) इस फैसले का आधार थे। अमित मालवीय और बीजेपी समर्थकों के नक्सल-समर्थक आरोप राजनीति से प्रेरित हैं और सबूतों पर आधारित नहीं। सलवा जुडूम की विफलता और कर्मा की हत्या नक्सलवाद की जटिलता को दर्शाती है, जिसे केवल कोर्ट के फैसले से जोडऩा सही नहीं। वर्तमान सरकार की नक्सलवाद नीति सलवा जुडूम की गलतियों से सबक लेते हुए अधिक संरचित और प्रभावी दिखती है। भारत सरकार की नक्सलवाद के खिलाफ वर्तमान नीति, जिसे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह समाप्त करने के लक्ष्य के साथ रेखांकित किया है, एक बहुआयामी और संरचित दृष्टिकोण पर आधारित है। यह नीति सलवा जुडूम (2005-2011) जैसे पिछले अभियानों की गलतियों से सबक लेते हुए सुरक्षा, विकास, और सामुदायिक सहभागिता को जोड़ती है। नीचे इसकी प्रमुख विशेषताएँ और रणनीतियाँ दी गई हैं, जो नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए अपनाई जा रही हैं।
यदि हम वर्तमान नक्सलवाद नीति की प्रमुख विशेषताओं की बात करें तो सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल , सीमा सुरक्षा बल , भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और अन्य अर्धसैनिक बलों की तैनाती बढ़ाई है। 2024 तक 128 नए सुरक्षा कैंप स्थापित किए गए हैं, खासकर छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा जैसे क्षेत्रों में।छत्तीसगढ़ में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और आंध्र प्रदेश में ग्रेहाउंड्स जैसे विशेष बलों का उपयोग किया जा रहा है। डीआरजी में स्थानीय आदिवासियों और समर्पण करने वाले नक्सलियों को शामिल किया गया है, जो क्षेत्र की भौगोलिक और सामाजिक जानकारी रखते हैं। यह सलवा जुडूम के एसपीओ से अलग है, क्योंकि डीआरजी प्रशिक्षित और संगठित है।नक्सली ख़ात्मे के लिए सरकार ने आधुनिक तकनीक जिनमें ड्रोन, यूएवी (अनमैन्ड एरियल व्हीकल) और मल्टी-एजेंसी सेंटर्स के माध्यम से रीयल-टाइम इंटेलिजेंस साझा किया जा रहा है । यह नक्सलियों की गतिविधियों पर नजर रखने और सटीक ऑपरेशन करने में मदद करता है। यदि हम नक्सलवाद के खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेशनल की सफलता की बात करें तो 2024 में छत्तीसगढ़ में 287 नक्सलियों को मार गिराया गया, 1,000 को गिरफ्तार किया गया, और 837 ने समर्पण किया। हाल की बड़ी कार्रवाइयों में कर्रेगुत्तालु हिल (छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा) पर ऑपरेशन शामिल है। इसके साथ ही बस्तर में विकास और बुनियादी ढाँचा के क्षैत्र में कनेक्टिविटी को लेकर भी हैं ।नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़क, बिजली, और संचार सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है। बस्तर में 3,000 किमी सड़कें और 4,887 मोबाइल टावर बनाए गए हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत एलडब्ल्यूई क्षेत्रों में सड़क कनेक्टिविटी परियोजना लागू की गई है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किये जा रहे हैं। आकांक्षी जिला कार्यक्रम और रोशनी योजना के तहत स्कूल, अस्पताल, और कौशल विकास केंद्र स्थापित किए गए हैं। रोजगार और आजीविका के लिए आदिवासियों के लिए कृषि, वन-आधारित उद्योगों, और कौशल विकास योजनाओं (जैसे प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना) को बढ़ावा दिया जा रहा है। वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत आदिवासियों को वन संसाधनों पर अधिकार दिए जा रहे हैं, ताकि उनकी आजीविका सुरक्षित हो और नक्सलियों के प्रति उनकी सहानुभूति कम हो। सरकार ने नक्सली के लिए समर्पण और पुनर्वास की प्रभावी नीति लागू की है । समर्पण करने वाले नक्सलियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए पुनर्वास योजनाएँ लागू की गई हैं।
जो लोग उपराष्ट्रपति पद के इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज बी सुदर्शन रेड्डी सलवा जुडूम को कमजोर करने का आरोप लगा रहे हैं उन्हें अपनी ही सरकार की नीतियों को देखना चाहिए जिसमें सलवा जुडूम की गलतियों से सबक लिया गया है । सलवा जुडूम (2005-2011) में नागरिकों को हथियार देकर नक्सलियों के खिलाफ लड़वाना, बड़े पैमाने पर विस्थापन (56,000 आदिवासी राहत शिविरों में, 100,000-150,000 का पलायन) और मानवाधिकार उल्लंघन (हत्याएँ, आगजनी, यौन हिंसा) ने इसे विवादास्पद बनाया। यह नक्सलवाद को खत्म करने में असफल रहा और उल्टा आदिवासियों में अविश्वास पैदा किया। वर्तमान नीति सलवा जुडूम की गलतियों से बचती है नागरिकों को हथियार देने के बजाय प्रशिक्षित बलों पर ध्यान। हिंसा के बजाय विकास और पुनर्वास पर जोर। मानवाधिकारों का सम्मान और पारदर्शिता की नीति अपनाई गई है ।
भारत की वर्तमान नक्सलवाद नीति सुरक्षा, विकास और सामुदायिक सहभागिता का संतुलित मिश्रण है, जो सलवा जुडूम की हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघनोंं से बचती है। यह नीति नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास, शिक्षा, और रोजगार के माध्यम से आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने पर केंद्रित है। 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करने का लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, लेकिन हाल की सफलताएं और कम होती घटनाएं इसकी संभावना को दर्शाती है।
विशेष टिप्पणी- सलवा जुडूम एक बार फिर चर्चा में

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