-सुभाष मिश्र
दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर में आग लगी। जज साहब की अनुपस्थिति में आग बुझाने पहुंची फायर ब्रिगेड की टीम को जज साहब के घर में नोटों का कथित खज़ाना मिल गया। इसके विस्तृत समाचार लगभग सभी समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों पर आ चुके हैं इसलिए समाचार के विस्तार में जाने की अपेक्षा जरूरी है कि पड़ताल की जाए कि क्या कारण है कि न्यायपालिका का भरोसा खत्म होता जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुत मासूम सा बयान दिया है कि जज वर्मा के यहां कैश मिलने की बात सिर्फ अफवाह है। यहीं से जनसामान्य में सवाल उठ रहे हैं कि फिर क्या कारण है कि तत्काल कोर्ट ने जज साहब का तबादला वापस उसी गंगा किनारे करने की अनुशंसा कर दी जहां पहुँचकर करोड़ों के पाप धूल जाते हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि जब किसी प्रकार का कोई कैश नहीं मिला है तो इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जज यशवंत वर्मा का इलाहाबाद तबादले का विरोध क्यों किया है? इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के पदाधिकारी कह रहे हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट कूड़ेदान नहीं है, यहाँ ऐसे जज का स्वागत नहीं होने देंगे। ये जज महोदय पहले यहां वकील, फिर जज थे। बाद में ये दिल्ली चले गये थे। यदि सब कुछ ठीक है तो फिर दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस ने इस मामले को लेकर यह क्यों कहा है कि यह मामला आश्चर्यजनक है और हम स्तब्ध हैं!
वकीलों को उदार होकर इसे भाजपा के घर वापसी कार्यक्रम से भी जोड़कर देखना चाहिए। इस बीच दिल्ली फायर सर्विस के प्रमुख का यह बयान भी बहुत भोला और हास्यास्पद लगता है कि वहां कोई नगदी नहीं मिली। फायर प्रमुख अतुल गर्ग को शायद नहीं पता कि मीडिया के ज़रिए फैली इस भ्रष्टाचार की आग को अब रोक पाना संभव नहीं है। ज्युडिशरी के चेहरे पर जो आग की राख से जो कथित कालिख पुतना थी, वह पुत गई है। पूरे देश में नये सिरे से माननीयों की कारगुज़ारियों और फैसलों पर चर्चा होने लगी है। रिटायर्ड जजों को कहना पड़ रहा है न्यायपालिका में लंबे समय से भ्रष्टाचार है।
अनेक शहरों में प्रशासन की ओर से इनकी अगुवाई और ख़ातिरदारी के लिए पुलिस और मातहतों की अच्छी ख़ासी जमात मौजूद रहती है। मामला प्रोटोकॉल का जो ठहरा। हमारे देश का नम्बर भ्रष्टाचारी देशों की 180 देशों की सूची में 96वें क्रम पर आता है। विधायिका, न्यायपालिका कार्यपालिका ,मीडिया और स्वयंसेवी संगठन यानी एनजीओ मिलकर देश को चलाते हैं जिन्हें चलाने का पेट्रोल, डीजल और बाक़ी रसद सेठ-साहूकार, ठेकेदार, सप्लायर, कारपोरेट और भ्रष्ट मशीनरी या फिर मुसीबत में फंसे लोगों से अपना काम कराने के एवज़ में मिलता है। इस तरह की घटनाओं से उन अफवाहों को भी अब बल मिलने लगा है कि अधिकांश अदालतों के बाहर मन मुताबिक अदालती निर्णय के लिए दलाल घूमते मिल जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम के कुछ सदस्यों ने इस घटनाक्रम पर चिंता जताते हुए कहा कि यदि जज यशवंत वर्मा का सिर्फ स्थानांतरण कर दिया जाता है तो इससे न्यायपालिका की छवि धूमिल होगी और न्याय व्यवस्था से जनता का विश्वास कमजोर हो जाएगा। सदस्यों ने सुझाव दिया है कि न्यायमूर्ति वर्मा से इस्तीफा मांगा जाना चाहिए। यदि वह इनकार करते हैं तो संसद के माध्यम से उन्हें हटाने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। यह चिंता वाजिब है लेकिन अनेक वकीलों और आमजन का मानना है कि यह चिंता कुछ देर से आई है। यह चिंता उस समय आई है जब न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार के लगातार आरोप लगते आ रहे हैं और यह आरोप जिले से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पर लगते रहे हैं। यानी कोई एक अदालत नहीं बल्कि पूरी न्याय प्रणाली पर आमजन का संदेह खड़ा हो गया है। केंद्र सरकार की चुप्पी और मीडिया में आए सुप्रीम कोर्ट के बयानों से इस संदेह को और मजबूती मिल रही है। इस घटना से लग रहा है कि अभी भी किसी को न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की चिंता नहीं है। मीडिया और आमजन में उठ रहे इन सवालों में वाजिब चिंता है कि धूमिल होती जा रही न्याय प्रणाली की प्रतिष्ठा को वापस लाना सबसे पहली प्राथमिकता का काम होना चाहिए।
संदिग्ध और विवादास्पद न्यायाधीश और न्याय: सन् 2020 में प्रशांत भूषण का कोर्ट की अवमानना का मामला सामने आया था। 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायालय के अवमानना का दोषी पाया। भूषण पर अवमानना का आरोप जून में उनके ट्विटरों के लिए लगा था। इससे पहले भी उन पर अदालत के अवमानना का आरोप लग चुका है। 2009 में तहलका पत्रिका को दिए साक्षात्कार में भूषण ने कहा था कि उनके विचार से भारत के विगत 16 या 17 मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं।
2009 में तहलका पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में भूषण ने कहा था कि उनके विचार से भारत के विगत 16 या 17 मुख्य न्यायधीश भ्रष्ट रहे हैं । 31 अगस्त को कोर्ट में भूषण पर एक रुपए का जुर्माना लगाया गया। कारवां के स्टाफ राइटर अतुल देव की जुलाई 2019 में प्रकाशित कवर स्टोरी भारतीय न्यायपालिका आरोपी भी जज भी का अंश जिसमें इन आरोपों के इतिहास की चर्चा है।
21वें सीजेआई रंगनाथ मिश्रा और 22 वें सीजेआई के. एन. सिंह को छोड़कर देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर आसीन होने वाले किसी भी न्यायाधीश को, 1993 में कॉलेजियम प्रणाली प्रारंभ होने से पहले तक भ्रष्टाचार या घोटाले के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ा। 25वें सीजेआई वेंकटचलैया के अक्टूबर 1994 में अवकाश प्राप्त करने के बाद से ऐसे घोटाले सामान्य बात बन गए। 26वें सीजेआई ए. एम. अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े एक मुकदमे में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कल्पबल होमोसाइड (आपराधिक मानव वध) के आरोप को खारिज कर दिया था। मेल-मिलाप का भाव प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने संस्था को शहर में एक अस्पताल कायम करने का आदेश दिया। सेवानिवृत्ति के बाद अस्पताल का प्रबंध देखने वाले ट्रस्ट के वह आजीवन चेयरमैन नियुक्त कर दिए गए। 2010 में सुप्रीम कोर्ट में अहमदी के खिलाफ अस्पताल के कथित कुप्रबंधन की जांच और ट्रस्ट के वित्तीय रिकॉर्ड जारी करने के लिए बाध्य करने का आदेश देने की याचिका दाखिल की गई। उस याचिका पर आदेश कभी नहीं आया लेकिन न्यायालय ने अहमदी के पद से त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया। ( जैसे त्यागपत्र भ्रष्टाचार से मुक्ति का प्रमाण हो) न्यायालय ने अस्पताल को दी गई उनकी अच्छी सेवाओं की प्रशंसा भी की। 28वें सीजेआई एम.एम. पुंछी को कार्यभार ग्रहण करने से पहले ही बर्खास्तगी के खतरे का सामना करना पड़ा था। कदाचार की बहुलता के आरोपों पर उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए राज्यसभा में प्रस्ताव पेश किया गया था। विश्वास भंग के दोषी व्यापारी को कानून के प्रावधानों से परे जाते हुए उन्होंने दोषमुक्त करार दिया था। हरियाणा के कांग्रेसी नेता और मुख्यमंत्री भजनलाल के खिलाफ दुराचार के आरोप के एक मुकदमे को पुंछी ने जिस दिन खारिज किया था उसी दिन उनकी पुत्रियों को मुख्यमंत्री के विवेकाधिकार पर जमीन के प्लाट प्राप्त हुए थे। पुंछी ने केस गलत तरीके से जिताया था और उस मामले की सुनवाई करने का प्रयास किया था जिसमें वह स्वयं एक पक्ष थे। पुंछी के शपथ ग्रहण करने से पहले प्रस्ताव को राज्य सभा में आवश्यक समर्थन नहीं मिल पाया। 27वें सीजेआई जे.एस. वर्मा ने पदोन्नति के लिए उनके नाम की अनुशंसा की थी। 29वें सीजेआई ए.एस. आनंद पर भाई-भतीजावाद और रियल एस्टेट के भ्रष्ट सौदों में संलिप्त होने का आरोप लगा था। पदोन्नति के बाद आरोप पत्र सामने आया और उन्होंने महाभियोग की कार्यवाही का सामना नहीं किया।
आनंद के सीजेआई बनने के तुरंत बाद कॉलेजियम प्रणाली के कामकाज का स्पष्टीकरण मांगने वाले राष्ट्रपति के एक औपचारिक सवाल का सुप्रीम कोर्ट ने जवाब दिया। थर्ड जजेज केस के रूप में याद किए जाने वाले इस मामले में न्यायालय के जवाब में कहा गया, हमने हमारे सामने पेश होने वाले कुछ अधिवक्ताओं द्वारा व्यक्त की गई भीषण आशंकाओं को निराशा के साथ सुना है। स्पष्ट रूप से प्रणाली ने न्यायिक सत्यनिष्ठा में विश्वास बहाल नहीं किया था। न्यायालय ने आग्रहपूर्वक कहा कि वह आशंकाओं को साझा नहीं करता, आगे कहा – फिर भी हम आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं कि बाद में आने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश भविष्य में दूसरे जजेज केस और इस राय के अनुरूप काम करेंगे।
एनजेएसी पर अपनी राय में चेलामेश्वर ने लिखा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे मामलों में अफवाह और अटकलें गति और लोकप्रियता प्राप्त कर लेती है। अगर 9 न्यायाधीशों की पीठ आशावादी दृष्टिकोण रखती है कि बाद में आने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश भविष्य में सेकंड जजेज केस के अनुरूप काम करेंगे तो इससे तार्किक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बाद के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा निष्ठापूर्वक इसका पालन नहीं किया था, यदि सभी नहीं तो कम से कम कुछ मामलों में इसकी आलोचना हुई। मंत्रियों के बजाय न्यायाधीशों को संरक्षण दिया गया।
36वें सीजेआई वाई. के. सभरवाल ने अवैध रूप से निर्मित व्यवसायिक भवन-समूहों को ध्वस्त करने के कई आदेश पारित किए। इसके कारण शॉपिंग मॉल जैसी वैध व्यसायिक सम्पत्तियों की कीमतें तेजी से बढ़ गईं। सभरवाल की सेवानिवृत्ति के बाद बताया गया कि ध्वस्तीकरण अभियान के चरम पर उनके बेटे के व्यापार को राजधानी और आसपास के मॉल मालिकों से लाखों रुपए के फंड प्राप्त हुए। सभरवाल ने इन अंधाधुंध सांकेतिक आरोपों को खारिज करने और अपनी चिंता जाहिर करते हुए सार्वजनिक जवाब लिखा कि मेरी व्यक्तिगत तकलीफ और व्यथा उतनी नहीं जितनी ऐसे निराधार सार्वजनिक फैसलों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर पडऩे वाले विपरीत प्रभाव की है। जिन पत्रकारों ने इस कहानी का पर्दाफाश किया था वह दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना के मुजरिम पाए गए। एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को रद्द कर दिया। 37वें सीजेआई के. जी. बालाकृष्णन के कार्यकाल में उनके परिवार के नसीब में नाटकीय ढंग से उछाल आया। उनके एक दामाद ने दस करोड़ रुपए से अधिक की सम्पत्ति जमा कर ली। केरल उच्च न्यायालय में अधिकारी और बालाकृष्णन के भाई ने तमिलनाडु में एक फार्महाउस का स्वामित्व प्राप्त कर लिया, उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद त्यागपत्र दे दिया। न्यायधीश के भतीजे ने बड़े व्यापारिक उपक्रम आरंभ किए। एक पूर्व संसद सदस्य ने आरोप लगाया कि बालाकृष्णन के दामाद और भाई ने अनुकूल फैसलों और न्यायिक नियुक्तियों के लिए सौदेबाजियां की थीं। केरल उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायधीश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमे को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे एक व्यक्ति द्वारा उससे बालाकृष्णन के रिश्तेदारों से परिचय कराने के लिए कहा गया था। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायधीश ने बालाकृष्णन पर मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायधीश को प्रभावित करने के लिए पूर्व दूर संचार मंत्री ए. राजा के प्रयासों को छुपाने का आरोप लगाया। 2010 में जब बालाकृष्णन रिटायर हुए तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बना दिया।
न्यायिक सत्यनिष्ठा के मजबूत योद्धा अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने 2009 में तहलका पत्रिका को बताया कि उनके विचार से भारत के विगत सोलह या सत्रह मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं। उन्हें तुरंत ही न्यायालय की अवमानना के आरोपों का सामना करना पड़ा। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि पी. शिवशंकर और बाल ठाकरे के खिलाफ इससे पूर्व के अवमानना के मामलों की तुलना में वर्तमान मामला इसकी विश्वसनीयता के लिए अधिक जटिलता से भरा है। 1980 के दशक में आखिर में काबीना मंत्री रहते हुए शिवशंकर ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्र विरोधी तत्वों का घर है जिसमें विदेशी मुद्रा विनियमों के उल्लंघन करने वालों, दुल्हन जलाने वालों और प्रतिक्रियावादियों की पूरी भीड़ शामिल है। शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने कहा था वह न्यायालयों के फैसलों पर पेशाब करते हैं और उन्होंने न्यायधीशों की तुलना प्लेग पीडि़त चूहों से की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने भूषण को अपने आरोप साबित करने की चुनौती दी। मजबूत साक्ष्य की कमी के लिए उन्होंने न्यायिक आचरण की जांच समेत कई बाधाओं की ओर संकेत किया जिसमें वह चीजें भी शामिल थीं जो स्वयं न्यायालय द्वारा निर्मित की गई थी। आपातकाल के बाद कानून मंत्री रह चुके उनके पिता शांति भूषण ने भी इसमें खुद को पक्षकार बनाया और कथित रूप से भारत के भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीशों के नाम की सीलबंद सूची पेश कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को प्राथमिकता में पीछे डाल दिया, लेकिन तब से इसकी छवि में कोई सुधार नहीं हुआ। 39वें सीजेआई अल्तमस कबीर, जिन्होंने भूषण के खिलाफ केस की सुनवाई की थी, उन पर बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय में अपनी बहन की नियुक्ति का प्रबंध करने और एक न्यायाधीश को दंडित करने का आरोप लगा जिसने उस पर आपत्ति की थी। जे.एस. शेखर, दीपक मिश्रा और रंजन गोगोई उनके पीछे इस पर आसीन हुए।