Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – अचानक से क्यों कर रहे हैं नक्सली बड़े पैमाने पर आत्मसमर्पण?

-सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ में इस समय जो दृश्य बन रहा है, वह नक्सल इतिहास की नई इबारत लिख रहा है। बस्तर से लेकर गढ़चिरौली तक, हथियारबंद नक्सलियों का जत्था आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में लौट रहा है। बीजापुर, कांकेर, सुकमा और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में एक के बाद एक बड़ी संख्या में नक्सलियों का सरेंडर होना महज घटनाक्रम नहीं, बल्कि उस लंबे संघर्ष का परिणाम है जो सरकार, सुरक्षा बलों और आम जनता ने दशकों से झेला है। सवाल यह है कि अचानक यह ‘लाल मोर्चा क्यों झुकने लगा है?
दरअसल, यह बदलाव केवल बंदूक की ताकत से नहीं आया, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, रणनीतिक समझ और पुनर्वास नीति के संयोजन से आया है। केंद्र सरकार की स्पष्ट नीति ‘2026 तक नक्सलवाद का अंत ने प्रशासनिक तंत्र में नई ऊर्जा भरी है। गृह मंत्री अमित शाह के निर्देश और राज्य के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की सक्रियता ने छत्तीसगढ़ को इस मोर्चे पर निर्णायक लड़ाई के केंद्र में ला खड़ा किया है।
नक्सलवाद अब वैचारिक आंदोलन से अधिक एक संगठित हिंसक नेटवर्क बन चुका था, जो अपने ही समर्थकों पर अत्याचार कर रहा था। गांवों से उठकर आए युवा, जो किसी समय ‘क्रांतिÓ के सपनों के साथ जंगलों में गए थे, अब समझ रहे हैं कि बंदूक से व्यवस्था नहीं बदलती—बल्कि पीढिय़ाँ बर्बाद होती हैं। यही कारण है कि पुनर्वास नीति के अंतर्गत मिलने वाली सुरक्षा, आर्थिक सहायता, शिक्षा और सम्मान की गारंटी उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन गई है।
बीजापुर में होने वाला बड़ा सरेंडर इस पूरे अभियान का प्रतीकात्मक बिंदु है। माओवादियों के प्रवक्ता और डीकेएसजेडसी के शीर्ष नेता रूपेश उर्फ आसन्ना का 130 साथियों सहित सरेंडर करना नक्सली ढांचे के भीतर की दरारों को उजागर करता है। रूपेश वही व्यक्ति है जिसने हाल ही में केंद्र सरकार को पत्र लिखकर शांति वार्ता की इच्छा जताई थी। यह संकेत है कि नक्सली संगठन के भीतर अब संवाद और आत्ममंथन की स्थिति बन रही है।
सुरक्षा एजेंसियों ने भी अपनी रणनीति बदली है। पहले जो अभियान केवल बंदूक से जवाब देता था, अब वह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी काम कर रहा है। स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य केंद्र और रोजग़ार योजनाओं की पहुंच जंगल के अंदरूनी हिस्सों तक हो चुकी है। यही वजह है कि आदिवासी समाज, जो कभी नक्सलियों की ढाल था, अब शासन और विकास का सहभागी बनता जा रहा है।
हाल में कांकेर, सुकमा, कोंडागांव और गढ़चिरौली में हुए आत्मसमर्पणों ने नक्सली संगठन की रीढ़ तोड़ दी है। गढ़चिरौली के कुख्यात नक्सली लीडर सोनू दादा उर्फ भूपति का 61 साथियों के साथ आत्मसमर्पण करना, इस पूरे अभियान की दिशा तय करने वाला कदम साबित हुआ। यह सरेंडर दरअसल एक मनोवैज्ञानिक जीत भी है—जहां भय और वैचारिक भ्रम की दीवारें टूट रही हैं।
राज्य के गृह मंत्री विजय शर्मा और बस्तर के आईजी सुंदरराज पी जैसे अधिकारी इसे ‘लाल आतंक पर निर्णायक प्रहार मानते हैं। विजय शर्मा का यह बयान ‘बस्तर की जनता अब आतंक नहीं, विकास चाहती हैÓ दरअसल उस सामाजिक बदलाव की ओर इशारा करता है, जो धरातल पर घटित हो रहा है।
नक्सलवाद का अंत केवल पुलिस की सफलता नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की गूंजती हुई जीत है। जिन हथियारों से कभी शासन को चुनौती दी जाती थी, वे अब शांति और पुनर्निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि नक्सलवाद का बीज केवल जंगलों में नहीं, बल्कि सामाजिक असमानताओं में छिपा होता है। इसलिए सरकार के लिए अगली चुनौती यह होगी कि वह आत्मसमर्पण करने वालों को केवल पुनर्वास न दे, बल्कि उनके समाजीकरण और मनोवैज्ञानिक पुनर्निर्माण की ठोस व्यवस्था करे।
आने वाले दिनों में बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में यह सरेंडर श्रृंखला एक ऐतिहासिक मोड़ बन सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी छत्तीसगढ़ यात्रा और रजत जयंती समारोह से पहले यह घटनाक्रम सरकार के लिए भी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। लेकिन असली परीक्षा इस बात की है कि क्या यह शांति स्थायी बन पाएगी?
आज जब 258 से अधिक नक्सली हथियार डाल चुके हैं, तो यह केवल संख्या नहीं, बल्कि एक सोच का पतन है। यह संदेश भी कि बंदूक से सत्ता नहीं, बल्कि संवाद से समाज बनता है। अगर यह प्रवृत्ति बनी रहती है, तो आने वाले वर्षों में ‘लाल गलियारा इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा और बस्तर, जो कभी संघर्ष का प्रतीक था, वह शांति और विकास की नई गाथा लिखेगा।

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