प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से- लाल किले के साये में विस्फोट, जब दिल्ली की सुरक्षा को चुनौती मिली

-सुभाष मिश्र

दिल्ली को देश का दिल कहा जाता है और लाल किला उस दिल की धड़कन है। यह वह ऐतिहासिक प्रतीक, जहां से प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर देश को संबोधित करते हैं, जहां हर पत्थर राष्ट्र की स्मृतियों से जुड़ा है। ऐसे स्थल के ठीक सामने, मेट्रो स्टेशन के निकट, सोमवार शाम जब एक वाहन में भयानक विस्फोट हुआ तो यह सिर्फ दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को झकझोर गया।
शाम के लगभग 6.52 बजे जब धमाके की गूंज पुराने दिल्ली की गलियों में फैलीतो मेट्रो स्टेशन, बाजार और आसपास के इलाकों में भगदड़ मच गई। प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, यह विस्फोट एक कार में हुआ, जिसमें कम से कम 12 लोगों की जान चली गई और करीब 20 लोग घायल हुए। आठ से दस अन्य वाहन भी आग की चपेट में आ गए। जांच एजेंसियों का कहना है कि यह सिर्फ दुर्घटना नहीं, बल्कि योजनाबद्ध आतंकी हमला हो सकता है। वाहन के स्वामित्व, रूट ट्रैकिंग और विस्फोटक सामग्री के सुराग इस संभावना को बल देते हैं।
घटना के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मामला अपने हाथ में ले लिया है और इसे यूएपीए के तहत केस दर्ज किया गया है। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि जो भी इस कृत्य के पीछे हैं, उन्हें कानून की पूरी शक्ति का सामना करना होगा। प्रधानमंत्री ने भी इसे राष्ट्र की सुरक्षा पर हमला बताया है।
लेकिन सवाल यही है यह हमला हुआ कैसे? दिल्ली के केंद्र में, लाल किले जैसे सख्त सुरक्षा घेरे में, एक संदिग्ध वाहन इतनी देर तक खड़ा कैसे रहा? दिल्ली पुलिस और खुफिया एजेंसियां कहां थीं, जिनके कैमरे हर दिशा में नजर रखते हैं? अगर यह विस्फोट किसी स्लीपर सेल की करतूत है, तो यह हमारे तंत्र की सबसे बड़ी विफलता है कि राजधानी के सबसे सुरक्षित क्षेत्र में ऐसी सेंध लगाई जा सकी।
दरअसल, पिछले कुछ महीनों से सुरक्षा एजेंसियां ऑपरेशन सिंदूर चला रही थीं, जिसके तहत आतंकी नेटवर्कों, फंडिंग चैनलों और ऑनलाइन कट्टरपंथी गतिविधियों की जांच हो रही थी। इसके बावजूद अगर दिल्ली जैसे सुरक्षित शहर में विस्फोट होता है, तो यह इस बात का संकेत है कि आतंकी संगठन केवल सीमाओं के पास नहीं, बल्कि हमारे आंतरिक हिस्सों में भी जड़ें जमा चुके हैं।
फरीदाबाद में पहले विस्फोटक सामग्री मिलने की खबर और कुछ डॉक्टरों की संलिप्तता के संकेत इस बात की पुष्टि करते हैं कि आतंक अब सिर्फ सीमा पार से आयात नहीं होता, वह भीतर भी पनपने लगा है। ऐसे में, यह समय आत्ममुग्ध प्रशंसाओं का नहीं, आत्ममंथन का है। क्या हमारी सुरक्षा व्यवस्था अब भी प्रतिक्रिया पर टिकी है, पूर्व-तैयारी पर नहीं? क्या हमारी निगरानी-प्रणालियां, कैमरा नेटवर्क और इंटेलिजेंस इनपुट सिर्फ कागज़ी मजबूती तक सीमित रह गए हैं? और क्या समाज में ऐसा वातावरण बन रहा है जहाँ कुछ लोग अपने ही देश के खिलाफ हथियार उठाने को तैयार हो जाते हैं?
इस घटना को धार्मिक या सांप्रदायिक चश्मे से देखना घातक होगा। आतंक का कोई धर्म नहीं होता, उसकी पहचान सिर्फ विध्वंस से है। यह हमला न तो किसी समुदाय के खिलाफ है और न किसी धर्म के पक्ष में, बल्कि पूरे भारत के विरुद्ध है। इसलिए प्रतिक्रिया भी हम-वो के विभाजन में नहीं, हम सब की एकजुटता में होनी चाहिए।
दिल्ली का यह विस्फोट हमें एक बार फिर चेतावनी देता है कि सिर्फ तकनीकी निगरानी या पुलिस-प्रहरी से सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होती। सुरक्षा की पहली दीवार सतर्क नागरिकता है, वह समाज जो अपने आसपास की हर असामान्यता को पहचान सके, रिपोर्ट कर सके और प्रशासन उस सूचना को गंभीरता से ले सके।
हमें यह भी समझना होगा कि कट्टरपंथ और असंतोष के बीच की रेखा बहुत पतली होती है। शिक्षा, संवाद और सामाजिक समावेश ही दीर्घकालिक समाधान हैं क्योंकि आतंक बम से नहीं, विचार से शुरू होता है। लाल किले के पास हुआ यह विस्फोट केवल ईंट-पत्थर नहीं तोड़ता, यह हमारे सुरक्षा-विश्वास की नींव को भी हिलाता है। अब वक्त है कि इस हादसे को एक चेतावनी की तरह लिया जाए ताकि अगली बार कोई गाड़ी, कोई साजिश, कोई गफलत हमारे दिल, दिल्ली को न घायल कर सके।

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