-सुभाष मिश्र
पश्चिम बंगाल अगले वर्ष विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है और इसी के साथ राज्य की राजनीतिक धरती एक बार फिर गर्म होने लगी है। बंगाल में धार्मिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण कोई नया अध्याय नहीं है, लेकिन इस बार जिस तेजी और खुलेपन के साथ धार्मिक प्रतीकों को चुनावी समीकरणों में बदला जा रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है।
मुर्शिदाबाद में टीएमसी से निलंबित विधायक हुमायूं कबीर द्वारा बाबरी मस्जिद जैसी संरचना का शिलान्यास और उसमें जुटी भारी भीड़ ने राजनीति के एक छोर को उभारा, तो दूसरी ओर कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में पं. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के लोक्खो कंठे गीता पाठ में उमड़ी लाखों की भीड़ ने दूसरे छोर की ताकत का प्रदर्शन किया। दोनों घटनाएँ अपने-अपने राजनीतिक संदेशों के साथ अचानक सामने आईं और चुनावी बंगाल की फिज़ा को तीव्र रूप से दो ध्रुवों में बाँटने लगीं।
धार्मिक आयोजन अपने आप में कोई समस्या नहीं हैं, परन्तु जब वे चुनाव से ठीक पहले प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं के प्रतीक बन जाएँ, जब मंचों से श्रद्धा और संप्रदाय की भाषा को राजनीतिक हमले या प्रतिक्रिया में बदला जाने लगे, तब यह लोकतांत्रिक संतुलन के लिए खतरे की घंटी बन जाता है। मस्जिद के शिलान्यास पर चंदे का बहाव और बाहर से आने वाले सहयोग की खबरें हों या कथा के लिए अनुमति रद्द होने पर तीखी प्रतिक्रियाएँ—ये दोनों संकेत बताते हैं कि धर्म अब केवल आस्था का परिचय नहीं रह गया, बल्कि एक बड़े राजनीतिक निवेश और ध्रुवीकरण का साधन बन चुका है।
बंगाल का इतिहास भी इस तनाव को समझने में मदद करता है। आज़ादी से पहले 1940 के दशक के दंगे, जिनमें शांति स्थापना के लिए महात्मा गांधी तक को हस्तक्षेप करना पड़ा, बंगाल की सामाजिक संरचना के भीतर मौजूद उस पुरानी दरार को याद दिलाते हैं जिसे औपनिवेशिक फूट डालो, राज करो ने और गहरा किया। इसके बाद लंबे समय तक वाम शासन और फिर ममता बनर्जी की सत्ता—दोनों ने अपनी-अपनी तरह से सामाजिक संतुलन को साधा, परंतु चुनाव आते ही यह संतुलन हर बार चरमरा जाता है।
बीते दस वर्षों में केंद्र और राज्य के बीच टकराव, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच खींचतान, ‘वोट चोरीÓ, ‘घुसपैठÓ और ‘पहचान की राजनीतिÓ जैसे आरोप बंगाल की राजनीति को एक स्थायी संघर्ष में बदल चुके हैं। भाजपा का तेजी से बढ़ता जनाधार, तृणमूल कांग्रेस की आक्रामक प्रतिरोध राजनीति और मुस्लिम आबादी की जनसांख्यिकीय उपस्थिति—इन सबने मिलकर राज्य को एक उच्च-दबाव वाले राजनीतिक प्रयोगशाला में बदल दिया है।
आज सबसे बड़ा खतरा यह है कि धार्मिक उभार और भीड़-संचालन की यह राजनीति चुनावी लाभ के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है। यदि सामाजिक तनाव की रेखा और खिंचती है, यदि कोई बड़ी वारदात घटती है, तो स्थिति अचानक नियंत्रण से बाहर जा सकती है। इतिहास बताता है कि बंगाल में सांप्रदायिक दंगों की आग तेज़ भी भड़कती है और देर तक सुलगती भी है। ऐसे में केंद्र-राज्य संबंधों में नया तनाव, राष्ट्रपति शासन जैसे संवैधानिक विकल्पों पर बहस, और चुनावी प्रक्रिया पर शंका—सब एक साथ खड़े मिल सकते हैं।
यह स्थिति किसी भी परिपक्व लोकतंत्र के लिए घातक है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रशासन निष्पक्ष रहे, कानून-व्यवस्था को राजनीतिक दबाव से मुक्त रखा जाए, और चुनावी मशीनरी को ‘हेट स्पीचÓ, अफवाहों और सोशल मीडिया प्रचारतंत्र पर कठोर निगरानी रखने की पूरी शक्ति दी जाए। राजनीतिक दलों को भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि चुनाव आस्था और पहचान की लड़ाई नहीं होंगे। धार्मिक भावनाओं को उकसाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दाँव पर लगाने की प्रवृत्ति को तुरंत रोका जाना चाहिए। मीडिया और नागरिक समाज का दायित्व भी कम नहीं है। इन्हें उकसावे और अतिरंजना के बजाय तथ्य, संवाद और संयम को प्राथमिकता देनी होगी।
बंगाल की धरती अनेक भाषाओं, आस्थाओं और जातीयताओं का संगम रही है। यह विविधता उसकी ताकत है, कमजोरी नहीं। चुनावी राजनीति का ताप यदि इस विविधता को दंगे या दरार में बदलता है, तो जीतने वाला भी अंतत: हारता है—क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी विजय लोगों की शांति और सहअस्तित्व है।
बंगाल चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। ज़रूरी है कि वह राजनीति की नहीं, बल्कि समाज की सुरक्षा चुनें। चुनाव की जीत बाद में भी मिल सकती है, लेकिन सामाजिक सौहार्द की हार अगर एक बार हुई, तो उसकी कीमत हर पीढ़ी को चुकानी होगी।