-सुभाष मिश्र
बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) प्रक्रिया ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है। यह प्रक्रिया मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से शुरू की गई है, लेकिन इसमें आधार कार्ड, राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस जैसे दस्तावेजों को मतदाता पात्रता के प्रमाण के रूप में अमान्य घोषित करने के फैसले ने विवाद को जन्म दिया है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट की सलाह को अस्वीकार करते हुए अपनी स्थिति स्पष्ट की है, जबकि विपक्ष इसे मतदाताओं को दबाने की साजिश बता रहा है। इस मुद्दे ने बिहार विधानसभा से लेकर संसद तक हंगामा मचा दिया है, जिससे विधायी कार्यवाही बाधित हो रही है।
चुनाव आयोग ने जुलाई 2025 में बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य फर्जी या अपात्र मतदाताओं को हटाना और सूची को अद्यतन करना है। आयोग के अनुसार, इस प्रक्रिया में अब तक 52.3 लाख से अधिक मतदाताओं (कुल मतदाताओं का लगभग 6.62 फीसदी) को उनके पते पर नहीं पाया गया है, जिसके कारण उनके नाम हटाए जा सकते हैं। आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक 789 पेज के हलफनामे में स्पष्ट किया है कि आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए इन्हें मतदाता पात्रता के एकमात्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ये दस्तावेज केवल पूरक के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते हैं, जबकि मुख्य प्रमाण के रूप में पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र या अन्य सरकारी दस्तावेज आवश्यक हैं। आयोग ने जोर दिया कि यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदाता पात्रता (18 वर्ष की आयु और भारतीय नागरिकता) सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है और इससे किसी की नागरिकता समाप्त नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई 2025 को एक प्रारंभिक सुनवाई में सुझाव दिया था कि आधार, मतदाता आईडी और राशन कार्ड को प्रमाण के रूप में शामिल किया जाए, लेकिन चुनाव आयोग ने इसे अस्वीकार कर दिया, यह कहते हुए कि ये दस्तावेज विश्वसनीय नहीं है क्योंकि इन्हें गैर-नागरिक भी प्राप्त कर सकते हैं। आयोग का तर्क है कि एसआईआर से मतदाता सूची की शुद्धता बढ़ेगी और अब तक 90फीसदी से अधिक मतदाताओं ने फॉर्म जमा कर दिए हैं। यह प्रक्रिया बिहार चुनाव 2025 से पहले पूरी होनी है जो राज्य की राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर सकती है।
विपक्ष, विशेष रूप से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस और अन्य इंडिया गठबंधन दल, इस फैसले को गरीबों, दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश बता रहे हैं। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने सवाल उठाया है कि गरीब लोग इतने दस्तावेज कहां से लाएंगे और इसे चुनाव आयोग की ‘जल्दबाजी’ बताया है। उनका आरोप है कि यह प्रक्रिया मतदाताओं को हटाने का माध्यम है, जो सत्तारूढ़ एनडीए को फायदा पहुंचा सकती है। बिहार विधानसभा के मानसून सत्र में विपक्षी विधायक काले कपड़े पहनकर विरोध कर रहे हैं, जिससे कार्यवाही बार-बार बाधित हो रही है। 22 जुलाई 2025 को सत्र की शुरुआत में ही हंगामा हुआ, और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव पर हमला बोलते हुए कहा कि आरजेडी की पूर्व सरकार में भ्रष्टाचार था। अगले दिन (23 जुलाई) भी विधानसभा 2 बजे तक स्थगित की गई, जब एक आरजेडी विधायक के टिप्पणी ने सदन में अराजकता पैदा कर दी।
यह विरोध संसद तक पहुंच गया है। लोकसभा और राज्यसभा में इंडिया गठबंधन के सांसदों ने एसआईआर पर बहस की मांग की, जिससे दोनों सदनों को स्थगित करना पड़ा। कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर और रेणुका चौधरी ने इसे मतदाता दमन बताया, जबकि जेडीयू सांसद गिरिधारी यादव ने भी एसआईआर को ‘जबरन थोपा गया’ करार दिया। संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन हुए, जहां सांसदों ने नारे लगाए और एसआईआर को रद्द करने की मांग की।
यह विवाद चुनाव आयोग की स्वायत्तता और मतदाता सूची की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। एक ओर आयोग का तर्क वैध है कि मतदाता सूची में केवल पात्र नागरिक ही शामिल हों, जो लोकतंत्र की नींव मजबूत करता है। दूसरी ओर विपक्ष की चिंता भी जायज है कि दस्तावेजों की सख्ती से लाखों वैध मतदाता बाहर हो सकते हैं। खासकर ग्रामीण और गरीब वर्गों से। सुप्रीम कोर्ट में चल रही याचिका (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज द्वारा दाखिल) इस मुद्दे पर अंतिम फैसला दे सकती है जो बिहार चुनावों को प्रभावित करेगी।
लोकतंत्र में ऐसी प्रक्रियाओं को पारदर्शी और समावेशी बनाना जरूरी है। चुनाव आयोग को विपक्ष की चिंताओं को संबोधित करते हुए वैकल्पिक प्रमाण व्यवस्था पर विचार करना चाहिए ताकि कोई पात्र मतदाता वंचित न हो। अन्यथा यह विवाद राजनीतिक ध्रुवीकरण को और बढ़ा सकता है, जो बिहार के चुनावी माहौल को जटिल बनाएगा।