Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से – जातिगत गणना और नये समीकरण

Editor-in-chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

ना ना करते अंतत: मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा कर ही दी। अब देश में जातीय जनगणना दो फेज में कराई जाएगी। इसका पहला चरण एक अक्टूबर 2026 से शुरू होगा। वहीं दूसरे चरण की शुरुआत एक मार्च 2027 से होगी। पहले विरोध, फिर जातिगत गणना से कौन से नए समीकरण उभर सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख क्यों बदला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका क्या रही और इसका बिहार चुनावों, आरक्षण नीति, नेतृत्व, विकास योजनाओं और आर्थिक प्रावधानों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। यह समझना जरूरी है।
लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फबारी को देखते हुए यहां जनगणना एक अक्टूबर 2026 तक की जाएगी। बाक़ी देश में एक मार्च 2027 से जनगणना की जाएगी। हर दस साल में होने वाली जनगणना पहले चरण में कोविड के कारण विलंब से हो रही है। जातिगत गणना भारत की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना में गहरे बदलाव लाने की क्षमता रखती है। यह न केवल सामाजिक न्याय के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि यह विभिन्न जाति समूहों के बीच संसाधनों, अवसरों और प्रतिनिधित्व के पुनर्वितरण का आधार भी बन सकता है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने का निर्णय, विशेष रूप से बिहार विधानसभा चुनावों के संदर्भ में, कई सवालों को जन्म देता है।
जातिगत जनगणना से विभिन्न जातियों की आबादी उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा स्तर और रोजगार की स्थिति का सटीक आंकलन हो सकेगा। इससे पिछड़े और वंचित समुदाय अपनी स्थिति के आधार पर आरक्षण, सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी, और अन्य सुविधाओं की मांग को और मजबूती से उठा सकेंगे। उदाहरण के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की उपजातियों के बीच आरक्षण का बंटवारा अधिक समान हो सकता है। जातिगत गणना के बाद अलग तरह से आये आंकड़ों पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होगा। जातिगत आंकड़े विभिन्न जातियों के बीच प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर नई बहस छेड़ सकते हैं। यह क्षेत्रीय दलों जैसे राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), समाजवादी पार्टी (सपा), और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) को अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर देगा जो लंबे समय से जाति आधारित राजनीति का आधार रही हैं। वहीं, राष्ट्रीय दल जैसे भाजपा और कांग्रेस को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ सकता है। जातिगत गणना से छोटी और हाशिए पर रही जातियों को अपनी ताकत का अहसास होगा, जिससे इन समुदायों से नए नेता उभर सकते हैं। ये नेता स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर अपनी जाति के हितों को राष्ट्रीय मंच पर ले जा सकते हैं। जातिगत गणना आने के बाद से आर्थिक और विकास योजनाओं का पुनर्नियोजन होगा। जातिगत आंकड़े सरकार को यह समझने में मदद करेंगे कि कौन सी जातियां सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे अधिक वंचित हैं। इसके आधार पर विकास योजनाएं जैसे स्कॉलरशिप, रोजगार कार्यक्रम और बुनियादी ढांचा विकास को अधिक लक्षित और प्रभावी बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी जाति समूह की शिक्षा या स्वास्थ्य स्थिति खराब पाई जाती है तो उनके लिए विशेष योजनाएं बनाई जा सकती हैं।
संविधान में अभी आरक्षण को लेकर जो स्थिति है उसमें नीतिगत बदलाव आ सकते हैं। जातिगत गणना के आंकड़े आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को चुनौती दे सकते हैं, जैसा कि कुछ विपक्षी नेताओं ने पहले ही मांग की है। यह नीति निर्माताओं को आरक्षण के दायरे को बढ़ाने या इसे अधिक समावेशी बनाने पर विचार करने के लिए मजबूर कर सकता है।
लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि जातिगत गणना पर भाजपा और पीएम मोदी का रुख में अचानक बदलाव क्यों आया? जातिगत गणना के निर्णय से बदल भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जातिगत गणना को लेकर रुख ऐतिहासिक रूप से अस्पष्ट रहा है। पहले मोदी ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि उनके लिए केवल चार जातियां हैं गरीब, महिला, किसान और युवा। उन्होंने जातिगत गणना को पाप और सामाजिक विघटन का साधन बताया था। फिर भी अप्रैल 2025 में केंद्र सरकार ने जाति आधारित जनगणना की घोषणा की, जिसे कई लोग विपक्ष पर पॉलिटिकल स्ट्राइक के रूप में देखते हैं। यदि हम इस बदलाव के कारणों की पड़ताल करे तो सबसे पहल बिहार विधानसभा चुनाव का दबाव दिखाई देता है। बिहार में 2025 के विधानसभा चुनावों से पहले जातिगत गणना का मुद्दा प्रमुखता से उभरा। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने पहले ही राज्य स्तर पर जाति आधारित सर्वेक्षण कराया था, जिसके परिणामों ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को और हवा दी। विपक्षी दल, विशेष रूप से आरजेडी और कांग्रेस, इसे अपने चुनावी अभियान का केंद्र बना रहे थे। भाजपा को यह डर था कि इस मुद्दे पर चुप्पी या विरोध उनकी चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा जाति आधारित गणना की मांग करने वाले विपक्षी दबाव और नैरेटिव का जवाब देने के लिए भी यह निर्णय लिया गया होगा। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने जातिगत गणना को सामाजिक न्याय का प्रतीक बनाकर इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। राहुल गांधी ने लोकसभा में कहा था कि वह जातिगत गणना करवाकर रहेंगे। भाजपा को लगा कि इस मुद्दे पर पीछे रहने से विपक्ष को नैतिक और राजनीतिक बढ़त मिल सकती है। भाजपा ने यह समझा कि जातिगत गणना को स्वीकार कर वह विपक्ष के एक बड़े मुद्दे को कमजोर कर सकती है। साथ ही, यह उसे ओबीसी और अन्य पिछड़े समुदायों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने का अवसर देता है, जो उसकी पारंपरिक वोट बैंक रणनीति का हिस्सा नहीं रहे हैं।
भाजपा और आरएसएस को यह डर था कि जातिगत गणना से हिंदुत्व की एकजुटता की विचारधारा कमजोर हो सकती है। लेकिन सशर्त समर्थन देकर वे इस प्रक्रिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का जातिगत गणना को लेकर रुख जटिल रहा है। आरएसएस ने इसे सामाजिक एकता के लिए खतरा माना, क्योंकि यह हिंदुत्व की एकजुटता को कमजोर कर सकता है। फिर भी हाल के वर्षों में खासकर बिहार चुनाव के संदर्भ में, आरएसएस ने सशर्त समर्थन दिया है। आरएसएस को यह समझ में आया कि जातिगत गणना को पूरी तरह से खारिज करना भाजपा की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है, खासकर उन राज्यों में जहां जाति आधारित राजनीति हावी है।
आरएसएस ने यह शर्त रखी है कि जातिगत गणना का उपयोग सामाजिक न्याय के लिए हो, न कि जातियों के बीच विभाजन पैदा करने के लिए। यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि आंकड़े का दुरुपयोग न हो और यह हिंदुत्व के व्यापक ढांचे के खिलाफ न जाए। आरएसएस और भाजपा को यह डर था कि जातिगत गणना का विरोध उन्हें सवर्ण-केंद्रित पार्टी के रूप में चित्रित कर सकता है जो उनके व्यापक वोट आधार को नुकसान पहुंचा सकता है। सशर्त समर्थन देकर वे इस धारणा को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
जातिगत गणना के आंकड़े आरक्षण नीति पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं। वर्तमान में भारत में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी है जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले द्वारा निर्धारित है। जातिगत आंकड़े यह दिखा सकते हैं कि कुछ जातियां अभी भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व से वंचित हैं। इससे 50 फीसदी की सीमा को हटाने या बढ़ाने की मांग तेज हो सकती है, जैसा कि कुछ विपक्षी नेताओं ने पहले ही कहा है। ओबीसी के भीतर उपजातियों के बीच आरक्षण का बंटवारा अधिक समान हो सकता है। उदाहरण के लिए, बिहार के जाति सर्वे ने दिखाया कि कुछ छोटी जातियां अभी भी लाभ से वंचित हैं।
जातिगत गणना से छोटी और हाशिए पर रही जातियों को अपनी ताकत का अहसास होगा। यह निम्नलिखित तरीकों से नए नेतृत्व को जन्म दे सकता है। स्थानीय स्तर पर उभार छोटी जातियों के नेता स्थानीय निकायों, पंचायतों और विधानसभाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं। बड़े दलों को इन उभरते नेताओं को शामिल करना होगा, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में विविधता बढ़ेगी। जातिगत गणना के आंकड़े सामाजिक आंदोलनों को बढ़ावा दे सकते हैं, जहां युवा नेता अपनी जाति के हितों के लिए आवाज उठाएंगे।