Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – एक देश, एक शिक्षाप्रणाली: समता की दिशा या नियंत्रण का प्रयास?

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से - एक देश, एक शिक्षाप्रणाली: समता की दिशा या नियंत्रण का प्रयास?

-सुभाष मिश्र

आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में ही नहीं, प्राचीन समय में भी शिक्षा समाज में बदलाव का माध्यम रही है। मूलत: उसका उद्देश्य नैतिक दृष्टि से उन्नत, संवेदनशील और मानवीय समाज का निर्माण है। आधुनिक समाज में वह ऐसा व्यक्ति गढऩे का प्रयत्न करती है जो सजग और जि़म्मेदार नागरिक हो। व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व को गढऩे में ही नहीं, राष्ट्र के निर्माण में भी उसकी असंदिग्ध भूमिका है। नेल्सन मंडेला ने ठीक ही कहा था कि शिक्षा वह शस्त्र है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं। वे आज की दुनिया में शिक्षा को परिवर्तन के हथियार के रूप में देखते हैं। परिवर्तन की दिशा और लक्ष्य है, समतामूलक, जनतांत्रिक और आधुनिक समाज की रचना। लेकिन आधुनिक जनतांत्रिक समाजों में शिक्षा वर्गीय हितों और निहित स्वार्थ के चलते वर्चस्व की शक्तियों के हाथों में खिलवाड़ बना दी गयी। इसलिए वर्ग, आर्थिक हैसियत और अवसरों की खाई में बँटे समाज में शिक्षा यदि अपने लक्ष्य से भटक जाये तो आश्चर्य नहीं। ऐसी स्थिति में शिक्षा के ज़रिए सामाजिक न्याय की लक्ष्यसिद्धि एक सपना ही बनकर रह जाता है।

भारत में शिक्षा के ज़रिए समानता के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गंभीरता से विचार किया गया। सिद्धांतत: शिक्षा को राज्य का दायित्व मानकर व्यापक पैमाने पर देशभर में विद्यालय और महाविद्यालय खोले गए। यह शिक्षा के जनतांत्रिकीकरण की दिशा में राज्य की उचित पहल थी। नेहरू युग में जिस तरह मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सरकारी क्षेत्र की समुचित भागीदारी सुनिश्चित की गयी थी, उसी तरह सरकारी संस्थाओं के साथ ही निजी शिक्षण संस्थानों को भी प्रोत्साहित किया गया, यद्यपि सरकार ने इस दिशा में व्यापक स्तर पर काम किया। आज़ादी के बाद के दौर में निजी और सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर में आज की तरह असमानता नहीं थी। राधाकृष्णन आयोग, कोठारी आयोग आदि का गठन कर शिक्षा को लोकतांत्रिक समाज और नवोदित आधुनिक राष्ट्र के विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्तरोत्तर सृजनात्मक और सक्षम बनाने के लिए समुचित प्रयत्न किए गए लेकिन शिक्षा के जनतंत्रिकीकरण का लक्ष्य पूरा हो पाता, इसके पहले ही वैश्वीकरण का युग आ गया। उसने लोककल्याणकारी राज्य की धारणा पर ही कुठाराघात किया और हर वस्तु के साथ शिक्षा को भी पण्य वस्तु बना दिया। उसे विश्वव्यापार संगठन के एजेंडे में शामिल कर उसके व्यापार का रास्ता खोल गया। इसके बाद शिक्षा संस्थानों का निजीकरण तो होना ही था। वह जनता के नैतिक सांस्कृतिक उत्थान का माध्यम न रहकर पूंजीनिवेश का क्षेत्र बन गयी। सरकारें भी शिक्षा में धन लगाने से हाथ खींचने लगी और मान लिया गया कि नागरिकों को शिक्षित करना पूर्णत: सरकार का दायित्व नहीं है। उसमें निजी क्षेत्र भी समान रूप से भागीदारी कर सकता है। ज़ाहिर है, शिक्षा में पूंजीनिवेश के बाद शैक्षणिक संस्थानों के बीच स्वामित्व के आधार पर असमानता को रोकना सम्भव नहीं रह गया। गुणवत्ता की दृष्टि से वे उच्च सम्पन्न वर्ग के लिए निजी और जनसमान्य के लिए सरकारी संस्थाओं में विभक्त हो गए।

शिक्षा में विषमता : निजी बनाम सरकारी स्कूल

भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में दो भागों में बंटी शिक्षा प्रणाली में खाई साफ़ नजऱ आती है। एक ओर सरकारी स्कूल, जहां अधिकतर वंचित वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं, संसाधन विहीन हैं; वहीं दूसरी ओर निजी स्कूल हैं, जहां संसाधनों की भरमार है और मध्यमवर्ग या अमीर वर्ग के छात्र पढ़ते हैं। यह विभाजन केवल आधारभूत सुविधाओं तक सीमित नहीं, बल्कि गुणवत्ता, भाषा, पाठ्यक्रम, शिक्षक प्रशिक्षण और छात्रों की जीवन संभावनाओं में भी भारी अंतर पैदा करता है।

सरकारी स्कूलों में अक्सर शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, भवन जर्जर होते हैं और आधुनिक शैक्षिक उपकरणों का अभाव होता है। दूसरी ओर निजी स्कूलों में तकनीक आधारित स्मार्ट क्लास, अंग्रेज़ी माध्यम, कोचिंग की सुविधा और शिक्षकों की जवाबदेही देखने को मिलती है। परिणामस्वरूप शिक्षा सामाजिक समानता का माध्यम बनने की जगह वर्ग विभाजन और अवसर की असमानता का कारण बन जाती है। यह विभाजन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के चार दशकों में इतना उत्कट और प्रत्यक्ष नहीं था। उसके बाद यह खाई लगातार बढ़ती चली गयी। यूं भी कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते समाज में धन और अवसरों के असमान वितरण की अभिव्यक्ति शिक्षा तंत्र में स्वाभाविक रूप से परिलक्षित होती है।

एकरूपता की मांग क्यों उठ रही है?

शिक्षा में इस विकट सामाजिक विभाजन को रोकने के लिए शिक्षा के समरूपीकरण को रामबाण औषधि की तरह सुझाया जा रहा है। ‘एक देश एक चुनाव, ‘एक देश एक राष्ट्रभाषा की तजऱ् पर हाल के वर्षों में ‘एक देश, एक शिक्षा व्यवस्था की मांग ज़ोर पकड़ रही है। इसके समर्थक तर्क देते हैं कि एक समान शिक्षा प्रणाली से ही असली समानता आएगी। जब सभी बच्चे एक जैसे पाठ्यक्रम, माध्यम और गुणवत्ता से शिक्षा पाएंगे तभी वे भविष्य की प्रतियोगिताओं में समान मंच पर खड़े हो सकेंगे।

यह विचार संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21अ (शिक्षा का अधिकार) की भावना से मेल खाता प्रतीत होता है लेकिन गहराई में जाकर देखें तो समान शिक्षा की वकालत दरअसल समरूप शिक्षा की तरफ़दारी है जो देश की विविधता के खि़लाफ़ जाती है। सवाल यह है कि क्या समानता केवल पाठ्यक्रम और माध्यम से आ सकती है? क्या सांस्कृतिक विविधता और बहुलवादी जीवन शैलियों को प्रोत्साहित कर भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को विरासत की तरह विकसित नहीं किया जाना चाहिए और शिक्षा को उसका वाहक नहीं बनाया जाना चाहिए? एक साँचे में सिक्कों को ढाला जा सकता है, राष्ट्र को नहीं। एक शिक्षा-प्रणाली का अर्थ समान शिक्षा नहीं, एकरूप शिक्षा है। इसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट है।

नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020): एक अवसर या केवल पुन: संरचना?

2020 में आई नई शिक्षा नीति (एनईपी) शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव का आह्वान करती है। इसका घोषित उद्देश्य शिक्षा को समावेशी, बहुभाषी, कौशल-आधारित और लचीला बनाना है। नीति कहती है कि सभी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाएगी, चाहे वह सरकारी हो या निजी। इसके सैद्धांतिक पहलू पर गौर करें तो एक यह एक कल्याणकारी उद्देश्य से प्रेरित दस्तावेज की तरह प्रतीत होता है। यह देश में शिक्षा के विकास का संतुलित और समुचित रोडमैप प्रस्तुत करती है। ‘एकरूप शिक्षा के दृष्टिकोण से जुड़े कुछ प्रमुख बिंदुओं पर गौर करें तो पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम तैयार करने का प्रयास है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में पढ़ाई को प्रोत्साहन, जिससे सभी बच्चों को शुरुआती स्तर पर बराबरी मिले। सरकारी स्कूलों को संसाधनों में साझा करने की दिशा में एकीकृत किया जाएगा।

शिक्षक प्रशिक्षण और राष्ट्रीय मूल्यांकन केंद्र (परख): सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों के लिए समान मूल्यांकन प्रणाली का प्रस्ताव। इन बिंदुओं से स्पष्ट होता है कि सरकार समान शिक्षा की दिशा में विचार कर रही है, परंतु इसका परीक्षण करें तो प्रतीत होता है कि मौजूदा कठिनाइयों के चलते न सिफऱ् इसका रास्ता मुश्किल है, बल्कि इससे अनेक नई समस्याएं भी पैदा होंगी। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश और विविधतापूर्ण लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा की एकरूपता का विचार अपने आप में असंगत है लेकिन यदि इसे मुकम्मल तौर पर लागू किया जाता है तो स्पष्ट है कि यह राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा को एक सांचे में ढालना चाहती है। यह अभी प्रारंभिक चरण है लेकिन आगे चलकर इसकी तस्वीर स्पष्ट होगी, इसके नतीजे सामने आएंगे।

एनईपी में जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें ज़मीन पर उतारने के लिए स्कूलों को बुनियादी संसाधनों की ज़रूरत होगी। आज भी देश के लाखों सरकारी स्कूलों में शौचालय, पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं। निजी शिक्षा लॉबी बेहद शक्तिशाली है। हर साल करोड़ों की कमाई करने वाले ये संस्थान किसी भी सरकारी हस्तक्षेप को नियंत्रण मानते हैं और अक्सर नीतिगत सुधारों का विरोध करते हैं।

मातृभाषा में शिक्षा की अवधारणा अच्छी है, लेकिन जब उच्च शिक्षा अंग्रेज़ी में हो और प्रतियोगी परीक्षाएँ भी उसी में हों, तो गरीब बच्चों के लिए वह असमानता और बढ़ा देती है। इसके अलावा एकीकृत शिक्षा व्यवस्था की सफलता में प्रशिक्षित, संवेदनशील और जवाबदेह शिक्षक सबसे बड़ा स्तंभ होंगे लेकिन आज भी लाखों पद खाली हैं और प्रशिक्षण प्रणाली कमजोर है।

सामाजिक नियंत्रण बनाम समान अवसर

नई शिक्षा नीति के विरोधियों का मानना है कि ‘एक देश, एक शिक्षा की आड़ में शासन सत्ता द्वारा शिक्षा पर नियंत्रण बढ़ाना चाहती है। इससे विचारधारा विशेष का वर्चस्व हो सकता है और विविधता आधारित सोच, आलोचनात्मक चिंतन व लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरा हो सकता है।

पाठ्यक्रम में बदलाव, वैकल्पिक इतिहास की प्रविष्टियाँ, नैतिक शिक्षा की पुन: व्याख्या संकेत देते हैं कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, बल्कि समाज को ढालने का उपकरण बन सकती है। इस संदर्भ में ‘एक जैसी शिक्षा का मतलब एक जैसी सोच थोपने से भी लगाया जा सकता है।

‘एक देश, एक शिक्षा व्यवस्था प्रकट रूप से एक अच्छा विचार है, अगर उसका उद्देश्य सामाजिक न्याय, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अवसर की समानता हो लेकिन अगर इसके ज़रिए विचारों को नियंत्रित करने या विविधता को खत्म करने की कोशिश की गई, तो यह लोकतंत्र के मूल आधार को चुनौती देगा। इसलिए ज़रूरत है कि सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों के बराबर संसाधन की उपलब्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए। भाषा, संस्कृति और विचार की विविधता को बनाए रखते हुए पाठ्यक्रम तैयार किया जाए। और सबसे अहम मुद्दा यह है कि शिक्षा नीति में केवल संरचनात्मक बदलाव नहीं, बल्कि मानवीय बदलाव और संवेदनशीलता, जि़म्मेदार नागरिकता का बोध भी सुनिश्चित किया जाए। जब हर बच्चा एक समान शिक्षा पाकर आत्मनिर्भर बनेगा तभी हम कह सकेंगे कि हम सचमुच एक समान, सशक्त और समतामूलक भारत की ओर बढ़ रहे हैं।

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