-सुभाष मिश्र
एआई यानी आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस आज मानव क्षमता का विस्तारशील इंजन है—विश्लेषण, भाषा, शोध, सुरक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, शिक्षा, संचार—हर क्षेत्र में इसका उपयोग संभावनाओं को आगे धकेल रहा है। पर तेज़ी से बदलते इस तकनीकी युग में एक सच्चाई असहज रूप से उभर रही है भारत में एआई का इस्तेमाल जितनी तेज़ी से बढ़ा है, उससे कहीं तेज़ी से उसका दुरुपयोग भी सामान्य और सामाजिक जीवन के साथ-साथ राजनीतिक रणभूमि में प्रवेश कर चुका है।
एआई ने विचारों को पंख दिए, पर इरादों को भी और यदि इरादा दूषित हो, तो एआई उसकी गति भयावह कर देता है। आज एआई जनित कृत्रिम मीडिया, खासकर डीपफेक वीडियो और वॉइस क्लोनिंग ऑडियो, ज्ञान निर्माण से ज्यादा छवि निर्माण या छवि विनाश का औजार बन रहे हैं। एक क्लिक में सामान्य लड़की का चेहरा किसी अभिनेत्री के शरीर पर किसी नेता का चेहरा किसी आपत्तिजनक दृश्य में, किसी व्यक्ति की आवाज़ किसी फर्जी बयान में तकनीकी प्रयोग से यह कहीं आगे बढ़कर डिजिटल अपमान का हथियार बन चुका है। यह निजी स्तर पर विकृत मजाक है पर सार्वजनिक स्तर पर यह लोकतंत्र के चरित्र के लिए खतरा है।
ताज़ा विवाद में एआई से बने एक वायरल वीडियो में भारत के प्रधानमंत्री को एक वैश्विक मंच पर, रेड कार्पेट आयोजन के बीच चाय बेचते दिखाया गया। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता रागिनी नायक द्वारा एक्स पर इसे साझा किये जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इसे प्रधानमंत्री की छवि और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि का अपमान बताया। इसी बहस को धार देते हुए बीजेपी प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री के ‘चायवालाÓ बैकग्राउंड का मज़ाक उड़ाना किसी एक व्यक्ति पर टिप्पणी नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय की अवहेलना है, जिसे देश स्वीकार नहीं करेगा।
यह बताता है कि विवाद चाय को लेकर नहीं, चाय की छवि को एआई से गढ़कर भारतीय राजनीति में परोसने की प्रवृत्ति को लेकर है। क्योंकि एआई अब नेताओं के बयान लेने तक सीमित नहीं, बल्कि बयान बनाने तक पहुँच गया है। पहले राजनीति में प्रहार भाषणों और तर्कों से होते थे, अब प्रहार चेहरे और प्रतीकों को डिजिटल रूप से डिजाइन कर उन्हें वायरल मंच पर उतारकर किये जा रहे हैं, जहाँ सत्य कम, प्रतिक्रिया ज्यादा मायने रखती है। यही प्रवृत्ति सितंबर में भी बिहार में दिखी थी, जब एक एआई वीडियो प्रधानमंत्री और उनकी माँ के रूप वाले किरदारों का उपयोग कर व्यंग्यात्मक राजनीतिक नैरेटिव सेट करने का प्रयास किया गया, जिसे पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद डिजिटल मंच से हटाया गया।
इतिहास में राजनीतिक दल मीम्स और बयान हटा चुके हैं, पर आज फर्क इतना है कि एआई के जरिए छवि एआई अपमान अपवाद नहीं, रोज़मर्रा का कंटेंट प्रोडक्शन मॉडल बन गया है। इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर एआई निर्मित रीमिक्स कंटेंट लाखों व्यूज़ जुटा रहे हैं, पर इनमें से अधिकांश विमर्श नहीं, विभाजन का ईंधन बन रहे हैं। एआई से बने मीम हास्य का नकाब ओढ़कर आते हैं, पर उनका असर राजनीति में तर्कहीन ध्रुवीकरण और छवि विनाश के रूप में दिख रहा है।
एआई ने मदद की, पर साथ में एक नया डिजिटल दुर्भिक्ष भी दिया, विश्वसनीयता का। एआई मनुष्य को रिप्लेस नहीं करेगा, लेकिन मनुष्य के इरादे का प्रवर्धक बनकर यह कुछ भी कर सकता है। एआई वही बनाता है, जो समाज फीड करता है, डेटा नहीं, इरादा फीड करता है। और अगर भारत की राजनीति में वीडियो बयान से ज्यादा असरदार हो गया हो, तो एआई, वीडियो गढ़ाई, दृश्य उत्तेजना और छवि निर्मित विभाजन के लिए सबसे आसान फ्यूल सिस्टम बन गया है।
वास्तविक चिंता यह नहीं कि एआई इंसानी दिमाग छीन लेगा, चिंता यह है कि एआई दिमाग़ पर नहीं, बल्कि लोकमत पर कब्ज़े का माध्यम बन जाएगा, और हम सत्य की छवि का मुकाबला डिजिटल झूठ से करने लगेंगे। आज एआई का सबसे तीव्र दुरुपयोग फर्जी संवाद, फर्जी चरित्र और फर्जी प्रतीकात्मक दृश्य गढऩे में दिख रहा है जो न केवल किसी व्यक्ति की गरिमा को खंडित करता है, बल्कि लोकतंत्र की विश्वसनीयता को भी।
एआई के भविष्य को लेकर समाधान तकनीक को रोकना नहीं, तकनीक को नियमन देना है। MeitY, CERT-In और राष्ट्रीय राज्य स्तर की नियामक संस्थाओं को एआई जेनरेटेड कंटेंट पर स्पष्ट डिजिटल वॉटरमार्क, मूल स्रोत पहचान बाध्यता, तेज़ टेक-डाउन एसओपी और फर्जी छवि अपमान मामलों में दंडात्मक उत्तरदायित्व तय करना होगा, ताकि एआई ज्ञान का माध्यम बने—अपमान का बाज़ार नहीं।
हम जिस युग में प्रवेश कर चुके हैं, वह युग विचारों की शुद्धि से ज्यादा छवियों की वायरल उपज का हो गया है। एआई की विराट शक्ति तभी समाज के लिए कल्याणकारी होगी जब उस पर विवेक की लगाम और इस्तेमाल की मर्यादा तय हो। वरना एआई जो है, वह सत्य का दर्पण नहीं, सत्य का डिजिटल विकार बनेगा। एआई को केवल प्रतिक्रिया उगाने से ऊपर उठाकर विश्वसनीयता गढऩे की तकनीक बनाना होगा, क्योंकि आने वाले समय में सबसे बड़ी लड़ाई डेटा की नहीं, डेटा के नैतिक उपयोग और छवियों की गरिमा बचाने की होगी।