-सुभाष मिश्र
अमेरिका में एप्स्टीन फाइल्स को सार्वजनिक किए जाने का फैसला केवल एक कानूनी घटना नहीं है, यह उस दुनिया का एक्स-रे है जिसे अब तक सत्ता, पैसे और गोपनीयता की मोटी दीवारों के पीछे सुरक्षित माना जाता रहा। जेफरी एप्स्टीन का मामला सेक्स ट्रैफिकिंग तक सीमित नहीं था; वह उस नेटवर्क का प्रतीक था जहां प्रभावशाली लोग, सेलिब्रिटी, राजनेता और कारोबारी अपनी निजी इच्छाओं को ‘सिस्टम’ के ज़रिए पूरा कर सकते थे—इस भरोसे के साथ कि उनका निजी जीवन कभी सार्वजनिक नहीं होगा। अदालत की शर्तों के साथ फाइलों का खुलना इस भरोसे पर सबसे बड़ा प्रहार है।
एप्स्टीन फाइल्स का संदेश साफ है-डिजिटल युग में निजी और गोपनीय जैसा कुछ स्थायी नहीं रहा। आज भले ही पीडि़तों की पहचान सुरक्षित रखने की बात कही जा रही हो, लेकिन यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि जिन दृश्यों, गवाहियों और नामों पर से पर्दा उठेगा, वह दुनिया भर में एक नई बहस को जन्म देगा, क्या सत्ता और प्रसिद्धि किसी को नैतिक जवाबदेही से मुक्त कर सकती है?
यही सवाल भारत में भी अलग रूप में हमारे सामने खड़ा है। यह संयोग नहीं है कि जिस समय अमेरिका में एप्स्टीन फाइल्स पर बहस तेज है, उसी समय भारत में टेलीग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर इंटीमेट फोटो और वीडियो का खुला बाज़ार फल-फूल रहा है। पति-पत्नी के निजी वीडियो, कपल के अंतरंग क्षण, निजी पलों की चोरी-छिपे रिकॉर्डिंग यह सब न सिर्फ वायरल हो रहा है, बल्कि बेचा भी जा रहा है। सबसे डरावनी बात यह है कि कई पीडि़तों को यह तक नहीं मालूम कि उनका निजी जीवन किसी डिजिटल मंडी में कारोबार का हिस्सा बन चुका है।
यह कहना एक सुविधाजनक सरलीकरण होगा कि हमारे समय में इच्छाएँ नई हैं, या देह का आकर्षण पहली बार खुलकर सामने आया है। ऐसा नहीं है। इश्क़, मोहब्बत, पति-पत्नी, देह और कामना—ये सब पहले भी थे। फर्क सिफऱ् इतना है कि पहले वे दर्ज नहीं होते थे, आज वे रिकॉर्ड होते हैं। पहले वे अनुभव थे, अब वे फ़ाइलें हैं।
हम जिस समाज से आते हैं, वहाँ देखने की इच्छा भी एक तहज़ीब के भीतर रहती थी। पर्दा केवल छुपाने का औज़ार नहीं था, वह चाहत को सस्ता होने से बचाने का अनुशासन था। इसीलिए मिजऱ्ा ग़ालिब कह सके—
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं ग़ालिब,
कुछ तो है बात जिसकी पर्दा-दारी है।
आज बेख़ुदी सबब बन चुकी है, और पर्दा-दारी बोझ।
यह सवाल अब यह नहीं है कि समाज खुला हो या बंद। सवाल यह है कि क्या हमारे पास अब भी कुछ ऐसा बचा है, जिसे छुपाने की ज़रूरत महसूस हो—इसलिए नहीं कि वह गलत है, बल्कि इसलिए कि वह कीमती है। क्योंकि जिस समाज में सब कुछ दिखने के लिए है, वहाँ अंतत: कुछ भी देखने लायक नहीं बचता।
इश्क़ तब भी था, लेकिन वह सीधे उपभोग नहीं बनता था। वह संकेतों में जीता था, दूरी में पलता था।
भारतीय सिनेमा और शायरी ने इसी परंपरा को जनभाषा में उतारा।
रुख़ से जऱा नक़ाब उठा दो मेरे हुज़ूर में आग्रह है, उतावली नहीं।
परदा है, परदा, परदे के पीछे परदा-नशीं है में रहस्य है, अधिकार नहीं।
यहाँ परदा स्त्री को अदृश्य करने का औज़ार नहीं, बल्कि हुस्न को अर्थ देने का माध्यम है।
लेकिन तकनीक के साथ यह पूरा ढाँचा बदल गया। अब परदा हटाने का क्षण निजी नहीं रहा। अब वह कैमरे के सामने घटित होता है। अब देखने वाला कोई दूसरा नहीं—देखने वाला वही है जो खुद को दिखा रहा है। इच्छा अब निगाह से पूरी नहीं होती, वह स्टोरेज चाहती है, शेयर चाहती है, दर्शक चाहती है।
यहीं से प्लेजऱ और सत्ता का गठजोड़ शुरू होता है। जब आनंद दर्ज होने लगे, जब निजता कंटेंट बन जाए, तो सत्ता बाहर से नहीं आती—वह भीतर से पैदा होती है। कौन किसे देखेगा, कौन किसके पास सुरक्षित रहेगा, कौन किस फ़ाइल में कैद होगा—यही नया नियंत्रण है। इस बदलाव का सबसे गहरा असर निष्ठा पर पड़ा है। जब हर रिश्ता संभावित थर्ड पार्टी की मौजूदगी में जीने लगे, जब हर निजी क्षण भविष्य के किसी दर्शक के लिए खुला हो, तो निष्ठा कोई नैतिक मूल्य नहीं रह जाती। वह एक अस्थायी सहमति बन जाती है—जब तक सुविधा है, तब तक।
यह संयोग नहीं है कि आज रिश्तों की भाषा में ओपन, थर्ड पार्टनर और कंसेंटेड स्पेस जैसे शब्द सहज हो गए हैं। यह नैतिक पतन की कहानी नहीं है, यह संरचनात्मक बदलाव की कहानी है। परदे के टूटने की नहीं, पर्दा-दारी के खत्म होने की कहानी है।
लेकिन आज परिदृश्य बदल गया है। अब परदा हटता नहीं, वह बेचा जाता है। अब निजता अनुभव नहीं, उत्पाद है। टेलीग्राम चैनलों पर बिकते वीडियो यह बताते हैं कि आनंद अब चोरी या अपराध नहीं, एक संगठित कारोबार है। और यह कारोबार सिफऱ् महानगरों तक सीमित नहीं—वह भोपाल जैसे शहरों की गलियों तक पहुँच चुका है, जहाँ 31ह्यह्ल के नाम पर आकर्षण रचा जा रहा है। यहीं से प्लेजऱ सत्ता में बदलता है। जो देखता है, वही नियंत्रित करता है। जो फ़ाइल रखता है, वही ताक़तवर है। इस पूरी संरचना में सबसे पहले जो चीज़ टूटती है, वह निष्ठा है—रिश्तों की, भरोसे की, और निजता की।
यहाँ सवाल केवल ब्लैकमेलरों का नहीं है। सवाल उस सामाजिक मानसिकता का भी है, जिसने निजी पलों को कंटेंट में बदलने की ज़मीन तैयार की है।
पिछले कुछ वर्षों में ‘खुलापनÓ एक फैशनेबल शब्द बन गया है। सिनेमा, वेबसीरीज़ और सोशल मीडिया ने यह धारणा मजबूत की कि इंटीमेसी पर बात करना, उसे दिखाना और उसे साझा करना आधुनिकता का प्रमाण है लेकिन इस खुलापन और लापरवाही के बीच की महीन रेखा को हमने अनदेखा कर दिया। असली जि़ंदगी में न तो कैमरा बंद होता है, न ही कोई एडिटर यह तय करता है कि क्या दिखाना है और क्या नहीं।
इसी खुलेपन की एक नई शक्ल है—नए कपल्स में उभरता ‘थर्ड पार्टनर’ या ‘यूनिकॉर्न’ कल्चर। दुनिया भर में, और अब भारत के बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक, ऐसे कपल्स की संख्या बढ़ रही है जो अपने रिश्ते में किसी तीसरे व्यक्ति को शामिल करना चाहते हैं—इस शर्त पर कि वह दोनों को संतुष्ट कर सके और भावनात्मक दखल न दे। इसे आधुनिक रिश्तों का प्रयोग कहा जा रहा है, लेकिन इसके साथ जुड़े जोखिमों पर शायद ही कोई बात करता है।
यूनिकॉर्न की तलाश अक्सर ऐप्स, सोशल मीडिया ग्रुप्स और निजी नेटवर्क के ज़रिए होती है। यहीं से खतरा शुरू होता है। क्योंकि जहाँ इच्छा और भरोसा है, वहीं रिकॉर्डिंग, स्क्रीनशॉट और डेटा चोरी की संभावना भी है। कई बार जो प्रयोग सहमति से शुरू होते हैं, वही बाद में ब्लैकमेलिंग, बदनामी और मानसिक उत्पीडऩ का कारण बन जाते हैं। यह वही पैटर्न है जो बड़े स्तर पर एप्स्टीन जैसे मामलों में दिखता है और छोटे स्तर पर हाउस पार्टी, स्ट्रेंजर मीट और न्यूड पार्टी के नाम पर चल रहे जालों में। रायपुर, भोपाल, इंदौर जैसे शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक ऐसी खबरें सामने आ रही हैं, जहां लोगों को ‘ओपन माइंडेड गेदरिंगÓ के नाम पर बुलाया जाता है, नशे का माहौल बनता है और फिर चोरी से रिकॉर्डिंग कर ली जाती है। इसके बाद वही दृश्य या तो बिकते हैं या ब्लैकमेल का हथियार बनते हैं।
इस पूरे परिदृश्य में मोबाइल फोन एक निर्णायक भूमिका निभाता है। मोबाइल अब केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि हमारी निजी जि़ंदगी की तिजोरी बन चुका है—एक ऐसी तिजोरी, जिसकी चाबी हमने अनजाने में दर्जनों ऐप्स, क्लाउड सर्विस और प्लेटफॉर्म को दे रखी है। लोग यह मान लेते हैं कि पासवर्ड और फिंगरप्रिंट उन्हें सुरक्षित रखेंगे, जबकि हकीकत यह है कि एक बार डेटा डिजिटल हो गया, तो उस पर नियंत्रण लगभग असंभव हो जाता है।
यह कहना आसान है कि दोष ब्लैकमेलरों का है, अपराधियों का है, प्लेटफॉर्म्स का है। लेकिन यह अधूरा सच होगा। समाज खुद भी इस बाजार को खाद-पानी दे रहा है। जब निजी पलों को साझा करना सामान्य हो जाता है, जब इंटीमेसी को मनोरंजन की तरह देखा जाने लगता है, और जब ‘कुछ नहीं होगाÓ की मानसिकता हावी हो जाती है—तभी ऐसे अपराध फलते-फूलते हैं।
एप्स्टीन फाइल्स हमें यही चेतावनी देती हैं कि सत्ता और गोपनीय इच्छाओं का गठजोड़ हमेशा किसी न किसी के शोषण पर टिका होता है। भारत में टेलीग्राम चैनल और हाउस पार्टी गैंग उसी मॉडल का छोटा, लेकिन ज्यादा अनियंत्रित संस्करण हैं।
यह संपादकीय किसी नैतिक उपदेश का आग्रह नहीं करता, न ही आधुनिक रिश्तों या व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खारिज करता है। सवाल केवल इतना है कि क्या हम अपनी आज़ादी के साथ जि़म्मेदारी जोडऩे को तैयार हैं? क्या हम यह स्वीकार करेंगे कि हर निजी क्षण को डिजिटल रूप देना एक जोखिम है? और क्या हम यह समझ पाएँगे कि ब्लैकमेलिंग का बाज़ार केवल अपराधियों से नहीं, हमारी लापरवाही से भी चलता है?
एप्स्टीन फाइल्स का असली अर्थ यही है—निजता अब सिर्फ व्यक्तिगत मामला नहीं रही। वह सामाजिक, कानूनी और नैतिक सवाल बन चुकी है। और अगर समाज समय रहते नहीं चेता, तो अगली ‘फाइल’ किसी और देश, किसी और प्लेटफॉर्म और किसी और नाम से हमारे सामने होगी—जिसमें पीडि़तों की संख्या और भी ज्यादा होगी।