-सुभाष मिश्र
बिहार की राजनीति में चुनावी मौसम के साथ सियासी तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। सत्ता के समीकरण बन भी रहे हैं और बिखर भी रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी वहीं ठहरा है, क्या एनडीए इस बार गठबंधन धर्म निभा पाएगा? और क्या नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचेंगे, या बिहार भी महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की तजऱ् पर किसी च्च्चौंकाने वाले प्रयोगÓ का गवाह बनेगा?
दरअसल, गृह मंत्री अमित शाह के हालिया बिहार दौरे और निजी चैनल के ‘बिहार पंचायत कार्यक्रमÓ में दिए गए बयान ने इस सवाल को और गहरा दिया है। शाह ने कहा कि एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है, लेकिन चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कौन होगा, यह फैसला विधायक दल करेगा। मैं किसी को मुख्यमंत्री बनाने वाला कौन होता हूं? गठबंधन की परंपरा यही है कि चुनाव बाद विधायक दल नेता तय करता है।
इस बयान के बाद बिहार की सियासत में भूचाल सा आ गया। विपक्षी दलों ने इसे भाजपा के भीतर नीतीश के भविष्य पर संदेह का संकेत बताया, तो भाजपा और जदयू को सफाई देने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि भाजपा अब नीतीश कुमार को धोखा देने की तैयारी में है। पहले उन्हें मुख्यमंत्री चेहरा बताया जाता था, अब कहा जा रहा है कि विधायक तय करेंगे। भाजपा ने किसी को भी नहीं छोड़ा जिसे बाद में ठगा न हो। वहीं राजद ने इसे एकनाथ शिंदे मॉडल की झलक करार दिया, यह कहते हुए कि भाजपा चुनाव तो किसी के नेतृत्व में लड़ती है, लेकिन सत्ता अपने हिसाब से बाँटती है।
इन हमलों के बीच जदयू के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि अमित शाह के बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। गृह मंत्री ने स्पष्ट कहा है कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है और मुख्यमंत्री वही होंगे। विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा है। उधर, एनडीए के घटक और हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के प्रमुख जीतनराम मांझी ने चुटकी लेते हुए कहा कि अगर गृह मंत्री कुछ कहते हैं तो उसे आधिकारिक माना जाना चाहिए, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि मुख्यमंत्री का चेहरा पहले ही तय हो जाना चाहिए था।
इस बयानबाज़ी ने स्पष्ट कर दिया कि भले ही सतह पर एनडीए एकजुट दिखे, भीतर राजनीतिक बेचैनी बढ़ रही है। भाजपा के भीतर यह विचार भी है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव जीतने के बाद सत्ता संतुलन को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। अमित शाह का बयान दरअसल उसी ‘संकेतÓ की ओर इशारा करता है जो भाजपा पहले महाराष्ट्र, असम और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में दे चुकी है, जहाँ चुनाव एक चेहरे के नाम पर लड़े गए, लेकिन सत्ता किसी और के पास गई।
नीतीश कुमार के लिए यह स्थिति परिचित भी है और चुनौतीपूर्ण भी। वे बिहार की राजनीति के ऐसे चरित्र हैं, जिन्होंने हर बार परिणामों के बाद समीकरण बदलकर राजनीति की दिशा मोड़ी है। कभी भाजपा से अलग होकर महागठबंधन बनाया, फिर उसी महागठबंधन को छोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया। इसीलिए राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर भाजपा ने इस बार भी मुख्यमंत्री पद को लेकर संशय रखा, तो नीतीश फिर कोई नया रास्ता खोज सकते हैं।
महागठबंधन की स्थिति भी बहुत स्थिर नहीं है। तेजस्वी यादव अपनी लोकप्रियता बनाए हुए हैं, पर सीट बंटवारे को लेकर असंतोष और कमजोर कांग्रेस उनकी राह आसान नहीं कर पा रही। विपक्षी एकता अब नारे से ज़्यादा नहीं लगती। हालांकि, तेजस्वी के लिए यह चुनाव निर्णायक मोड़ है। अगर महागठबंधन बेहतर प्रदर्शन करता है, तो वे बिहार की राजनीति में स्थायी चेहरा बन सकते हैं।
इस बीच, प्रशांत किशोर का नाम भी एक संभावित तीसरे विकल्प के रूप में बार-बार चर्चा में आ रहा है। कभी नीतीश कुमार के रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर अब जनसुराज आंदोलन के ज़रिए राजनीति में वैकल्पिक नैतिकता की छवि गढऩे की कोशिश में हैं। यदि भाजपा-जदयू में मतभेद गहराते हैं या महागठबंधन फिर बिखरता है, तो पी.के. उस खाली जगह को भरने की रणनीतिक कोशिश कर सकते हैं।
बिहार का राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहाँ चुनाव का नतीजा जितना मायने रखता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है उसके बाद का समीकरण। इस बार भी वही इतिहास दोहराने के संकेत हैं। भाजपा विधायक दल के नेता के नाम पर लचीलापन दिखा रही है, लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ इसे शक्ति संतुलन की चाल मान रहे हैं।
अगर चुनाव के बाद भाजपा नेतृत्व बदलने की कोशिश करती है, तो यह जदयू के लिए अस्तित्व की लड़ाई बन जाएगी। नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा शायद अंतिम निर्णायक मोड़ पर होगी, जहाँ उनके पास न महागठबंधन की ठोस ज़मीन होगी, न एनडीए का भरोसा। दूसरी ओर, भाजपा बिहार में एकल बहुमत की दिशा में कदम बढ़ा सकती है और क्षेत्रीय दलों को सीमित करने की रणनीति पर चल सकती है।
बिहार के मतदाता अब इन राजनीतिक खेलों से अनजान नहीं हैं। उन्होंने बार-बार गठबंधनों को मौका दिया, लेकिन हर बार सत्ता के बाद विरह देखा। इस बार उनके सामने सवाल चेहरों का नहीं, भरोसे का है। अगर गठबंधन धर्म फिर टूटा, तो यह बिहार की राजनीति को एक बार फिर अविश्वास की खाई में धकेल देगा, जहाँ जनता का धैर्य शायद अब पहले जैसा न रहे। बिहार की राजनीति में भरोसे की डोर जितनी बार टूटी है, हर बार जनता ने उसे जोड़ा है। लेकिन इस बार शायद उसके पास धागा भी नहीं बचा। अब देखना यह है कि सत्ता का गणित फिर भावनाओं पर भारी पड़ता है या सचमुच गठबंधन धर्म की कोई नई परिभाषा लिखी जाती है।