धर्मांतरण की आड़ में हिंसा: छत्तीसगढ़ की सामाजिक सद्भावना पर खतरा

छत्तीसगढ़, जो अपनी आदिवासी संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है, इन दिनों धार्मिक असहिष्णुता और हिंसा की घटनाओं से दागदार हो रहा है। हाल ही में कांकेर जिले के हवेचुर गांव में घटी घटना इसकी एक और दर्दनाक मिसाल है, जहां धर्मांतरण को बहाना बनाकर 8 परिवारों पर बर्बर हमला किया गया। पुरुषों, महिलाओं और यहां तक कि स्कूली बच्चों को निशाना बनाया गया, जिसमें दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर सड़क पर पीटने की हद तक पहुंचा गया। गंभीर रूप से घायल पीडि़तों को कांकेर मेडिकल कॉलेज और अंतागढ़ अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। हमलावरों जिनमें बुधसिंह मातलाम, देवलाल दर्रो जैसे नाम शामिल हैं, ने करीब दो घंटे तक उत्पात मचाया, जबकि पीडि़त अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते रहे।
यह घटना कोई अलग-थलग मामला नहीं है। छत्तीसगढ़ में आये दिन धर्मांतरण को लेकर विवाद उभर रहे हैं। कभी ननों के साथ मारपीट, तो कभी प्रार्थना सभाओं पर हमले। राज्य सरकार बार-बार धर्मांतरण कराने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की बात करती है, लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों पक्षों—धार्मिक समूहों और स्थानीय ग्रामीणों के बीच कोई ठोस संवाद या समझौता दिखाई नहीं देता। इस बार की घटना में पुलिस की निष्क्रियता और भी चौंकाने वाली है। पीडि़तों ने ताड़ोकी थाने में एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। अस्पताल में इलाज के लिए भी पुलिस रिपोर्ट की मांग की गई और अंतत: उन्हें जिला मुख्यालय पहुंचकर एसपी से शिकायत करनी पड़ी। यह व्यवस्था की विफलता का स्पष्ट प्रमाण है, जहां पीडि़त न्याय की बजाय बाधाओं का सामना करते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत हर नागरिक को अपनी धार्मिक आस्था चुनने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में यह स्वतंत्रता भीड़ के हाथों कुचली जा रही है। धर्मांतरण की आड़ में हो रही हिंसा वास्तव में सामाजिक विद्वेष की उपज है जो आदिवासी इलाकों में गहराई तक पैठ बना चुकी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2025 के पहले सात महीनों में ही भारत में क्रिश्चियनों पर 334 संगठित हमले दर्ज हुए हैं और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इनमें प्रमुख हैं। कांकेर जैसी घटनाएं न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों को डराती हैं, बल्कि पूरे समाज की सद्भावना को कमजोर करती हैं। क्या हम एक ऐसे राज्य की कल्पना कर रहे हैं जहां धर्म परिवर्तन का मतलब हिंसा का न्योता हो? या जहां पुलिस की भूमिका न्याय दिलाने की बजाय देरी करने की हो?
सरकार की जिम्मेदारी यहां सबसे बड़ी है। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने धार्मिक विवादों पर चिंता जताई है लेकिन व्यावहारिक कदमों की कमी साफ दिखती है । एंटी कन्वर्जन कानूनों को सख्ती से लागू करने की बात तो की जाती है, लेकिन जब हिंसा होती है तो हमलावरों पर तत्काल कार्रवाई क्यों नहीं? पुलिस को संवेदनशील बनाना, ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता अभियान चलाना और अंतर-धार्मिक संवाद को बढ़ावा देना जरूरी है। साथ ही सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों पर लगाम लगानी होगी जो ऐसी घटनाओं को भड़काती है।
यह समय है कि छत्तीसगढ़ का समाज खुद से सवाल करे, क्या हम अपनी विविधता को सहेजेंगे या हिंसा की आग में झोंक देंगे? धर्मांतरण एक व्यक्तिगत चुनाव है, लेकिन हिंसा समाज की सामूहिक विफलता। यदि हम अब नहीं जागे, तो आने वाली पीढिय़ां हमें माफ नहीं करेंगी। न्याय, सहिष्णुता और कानून का राज स्थापित करने के लिए सभी पक्षों को आगे आना होगा तभी छत्तीसगढ़ सच्चे अर्थों में ‘सुराज की मिसाल बनेगा।

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