Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – गड़े मुर्दे उखाड़ने का समय

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

इन दिनों अधिकांश राज्यों की सरकारों को लगता है कि मुर्दों से भी वोट वसूला जा सकता है। वे गड़े मुर्दे उखाडऩे में लगे हैं जो बात इतिहास में दफन है उसको उखाड़कर वोट में बदला जा रहा है। इतिहास के अपराधियों की सजा आज उनके वंशजों को भुगतनी पड़ रही है। ये समय देश के गड़े मुर्दे उखाडऩे का समय है ये समय आसमान की उंचाइयों की ओर देखने का नहीं बल्कि जमीन के नीचे दबे और इतिहास हो चुके बल्कि जिनका इतिहास भी मिट चुका है, ऐसे धार्मिक स्थलों की खोज का समय है। उत्तर प्रदेश के अट्टा परसपुर, गोंडा में जन्मे रामनाथ सिंह यानी मशहूर शायर अदम गोंडवी का एक शेर है –
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफऩ है जो बात अब उसे बात को मत छेडि़ए।
गर गलतियाँ बाबर की थीं,जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक्त में हालात को मत छेडि़ए।

वक्त और हालात सचमुच नाजुक है। राजनीतिक लाभ को छोड़ दिया जाए तो गड़े मुर्दे उखाडऩे में आम आदमी की ना रुचि है और ना ही इसका कोई सामाजिक और ऐतिहासिक लाभ है। राजनीतिक दलों को लगता है दफऩ इतिहास की डरावनी छवियों और स्मृतियों को उखाडऩे का यही राजनीतिक समय है। देश की जनता की धार्मिक भावुकता को भुनाने का उन्हें यह सही समय लगता है। देश भर में हर गांव-शहर में ऐसे छोटे-मोटे राजनीतिक आकांक्षा के मारे नेता पैदा हो गए हैं जो समझते हैं कि ये समय गौरवशाली इतिहास बोध और धार्मिक आस्था को पुनर्जीवित करने का समय है । यह समय पुराने घावों को ताज़ा करने का समय है। दबे और दफन इस तरह के धार्मिक मसलों को उखाड़कर राजनीति में नई छवि बनाई जा सकती है। हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी चिंता जताकर चेतावनी दी थी कि इस तरह की चीजों को रोका जाना चाहिए। लेकिन उनकी चिंता और चेतावनी की अनदेखी की जा रही है। संभल दंगों की पुनर्जांच करने की भी मांग है जबकि यह समय दंगों और धार्मिक वैमनस्यता के उभार का समय नहीं होना चाहिए लेकिन संभल में अब यह मांग भाजपा के स्थानीय नेता भी बढ़ा रहे हैं। उन्हें लगता है यह समय देश को जाति और संप्रदाय में बांटकर मूल मुद्दों से हटाने का समय है। प्रयागराज महाकुम्भ के आयोजन के बीच संभल के दंगों में डुबकी मारकर राजनीति की वैतरणी पार करने का समय है।
1978 में उत्तर प्रदेश के संभल जिले में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। ये दंगे कथित तौर पर धार्मिक जुलूसों, सामाजिक तनाव और सांप्रदायिक विभाजन के कारण भड़के थे। जांच की शुरुआत का उद्देश्य आमतौर पर घटना के असली कारणों, दोषियों की पहचान और जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने के लिए होता है। जांच की पुन: मांग और तैयारी यह मामला गड़े मुर्दे उखाडऩे की राजनीति की मंशा से प्रेरित लग रहा है। यदि पुराने मामलों को किसी विशेष समुदाय या राजनीतिक दल के खिलाफ भावनाएं भड़काने या चुनावी लाभ के लिए उठाया जाता है तो इसे गड़े मुर्दे उखाडऩे की राजनीति का ही हिस्सा माना जाएगा,उसके पीछे पुराने मामलों को उठाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना या विशेष एजेंडा स्थापित करना जैसे मंशा ज्यादा दिखती है।
लगभग 50 साल बाद इस तरह की जांच का कोई अर्थ नहीं है। इस जांच की प्रस्तावना में यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या उस समय के दोषियों के लिए आज कोई प्रमाण हाथ लगे हैं? 1978 के दंगाइयों को सजा दिलाने के लिए पर्याप्त प्रमाण और कारण मौजूद है? यह बात अपने आप में सच है कि अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए चाहे उनके अपराध को किए हुए कितने भी अरसा गुजर गया हो लेकिन आज लगभग आधी सदी गुजरने के बाद इस तरह की जांच के लिए पर्याप्त कारण और प्रमाण होना जरूरी है अन्यथा सामाजिक, आर्थिक और सांप्रदायिक मसले सामने आएंगे। अधिकांश लोगों को लगता है कि इस तरह की जांच में जब शुरुआत में ही अनेक संदेह खड़े हो गए हैं तो यह एक न्यायोचित अंत तक कैसे पहुंच पाएगी?
अगर मामला न्याय और सच्चाई तक पहुंचने के लिए उठाया गया है, तो इसे सकारात्मक रूप में देखा जा सकता है लेकिन यदि इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाना या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना है, तो यह खतरनाक राजनीति का हिस्सा हो सकता है। ऐसे मामलों में जनता को सतर्क और विवेकपूर्ण रहना चाहिए।
संभल के दंगों के कारणों की यदि पड़ताल की जाए तो घटना के पीछे तात्कालिक कारणों में धार्मिक जुलूस के दौरान हुए विवाद का जिक्र किया जाता है। यह कहा जाता है कि छोटी-मोटी झड़पों ने बड़े पैमाने पर हिंसा का रूप ले लिया था और हिंसा के कारण दुकानों, मकानों और धार्मिक स्थलों को आग लगा दी गई थी। दोनों समुदायों के बीच व्यापक हिंसा और लूटपाट हुई थी। उस दंगों में कथित कुछ रिपोर्ट के अनुसार, 20 से 30 लोग मारे गए थे, जबकि अन्य रिपोर्टों में इससे अधिक संख्या का जिक्र है। घटना की गहन जांच के लिए उस समय कोई बड़ी न्यायिक समिति गठित नहीं हुई थी। तत्कालीन सरकार की यह कमी रही कि दंगों के दोषियों की गिरफ्तारी के नाम पर कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया लेकिन लंबे समय तक यह मामला दबा रहा। यह सवाल उठता है कि क्या सजा सुनाने और मामले को निपटाने में प्रभावी कदम उठाए गए ?
समय 1978 में उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव मुख्यमंत्री थे। केंद्र में मोरारजी देसाई की अगुआई में जनता पार्टी की सरकार थी। वह समय आपातकाल के बाद का था, जब जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था।
क्या बाद में जांच हुई?
हाल के समय में इस मामले को लेकर फिर से चर्चा हो रही है, और दंगे के पुराने मामलों की जांच की मांग उठाई गई है। यदि नई जांच शुरू होती है, तो यह देखा जाना बाकी है कि इसका उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना है या राजनीतिक एजेंडा साधना। अमृत काल के इस दौर में देश की आज़ादी के समय हुए दंगों की बात छोड़ दें तो पिछले पचास वर्षों में भारत में हुए सांप्रदायिक दंगे सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विभाजन का परिणाम रहे हैं। इन दंगों ने समाज को गहरे जख्म दिए हैं, पिछले पचास वर्षों के प्रमुख दंगों में 1984 सिख विरोधी दंगे दिल्ली और अन्य प्रमुख शहर में हुए दंगों का कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या थी। देशव्यापी दंगों में ऐसे में मृतकों की संख्या लगभग 3,000 है , जिसमें सिख समुदाय के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा थी। उस दंगे को लेकर कईं आयोग गठित हुए, जिसमें मिश्रा आयोग और नानावती आयोग मुख्य थे। दंगों के लिए कुछ कांग्रेस नेताओं को दोषी ठहराया गया, लेकिन बड़ी संख्या में मामलों में न्याय अधूरा रहा।
1992-93: बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुंबई दंगों में मृतकों की संख्या लगभग 900-1,000 (मुंबई दंगे) और सैकड़ों अन्य स्थानों पर। जांच के लिए श्रीकृष्ण आयोग गठित हुआ। श्रीकृष्ण आयोग की सिफारिशों को सरकारों ने लागू नहीं किया। दोषियों को सजा कम मिली।
2002 : गुजरात दंगे में गोधरा ट्रेन कांड में 59 कारसेवकों की मौत के बाद गुजरात में दंगे भड़के जिसमे मृतकों की संख्या 1,000 से अधिक थी। उस दंगे की जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कई मामलों की दोबारा जांच हुई कुछ प्रमुख मामलों, जैसे नरोदा पाटिया और बिलकिस बानो केस, में दोषियों को सजा हुई। लेकिन बड़े पैमाने पर दोनों पक्षों के लिए न्याय अधूरा रहा।
1987 में उत्तरप्रदेश मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार हुआ जिसका कारण सांप्रदायिक दंगों के दौरान पीएसी द्वारा 42 मुस्लिम पुरुषों की हत्या थी। उस दंगे में मृतकों की संख्या 42 हुई । 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट ने पीएसी के 16 जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
2013 : मुजफ्फरनगर दंगे शामली (उत्तर प्रदेश) में हुए । कथित छेड़छाड़ की घटना के बाद सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ । इस दंगे में मृतकों की संख्या 62 थी । दंगों की जांच के लिए एसआईटी और न्यायिक आयोग गठित की गई। अधिकांश दोषी अभी भी सजा से बचे हैं।
2020: दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर विरोध प्रदर्शन के दौरान दंगा हुआ जिसमे मृतकों की संख्या 53 थी, जिसमे दिल्ली पुलिस और स्ढ्ढञ्ज की जांच की गयी। कईं मामले अभी न्यायालय में लंबित हैं । इस तरह देशभर में कईं दंगों के बाद न्यायिक और जांच आयोग बने, लेकिन उनकी रिपोर्ट अक्सर सरकारी उपेक्षा का शिकार हुईं।
भारत में सांप्रदायिक दंगे बड़ी मानवीय त्रासदी है, बल्कि न्याय और सामाजिक समरसता की असफलता को भी उजागर करते हैं। पिछले पचास वर्षों में हुई जांचों और सजा के आंकड़ों से साफ है कि न्याय व्यवस्था में सुधार और राजनीतिक हस्तक्षेप की समाप्ति आवश्यक है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 1978 में संभल में हुए सांप्रदायिक दंगों की पुन: जांच के आदेश दिए हैं। इस संबंध में गृह विभाग के उप सचिव सत्येंद्र प्रताप सिंह ने संभल के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को पत्र भेजकर एक सप्ताह के भीतर संयुक्त जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं। इस जांच के लिए अपर जिलाधिकारी (एडीएम) प्रदीप वर्मा और अपर पुलिस अधीक्षक (एएसपी) उत्तरी श्रीश्चंद्र को नामित किया गया है जो मिलकर 1978 के दंगों की फाइलों की समीक्षा करेंगे और अपनी रिपोर्ट शासन को सौंपेंगे।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में संभल दंगों का उल्लेख करते हुए कहा था कि 1947 से अब तक संभल में 209 हिंदुओं की जान सांप्रदायिक दंगों के कारण गई है। उन्होंने 1978 के दंगे का विशेष रूप से जिक्र किया, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुई थी। दिसंबर 2024 में संभल के खग्गू सराय इलाके में 46 वर्षों से बंद पड़े एक मंदिर को प्रशासन ने पुन: खुलवाया था। यह मंदिर 1978 के दंगों के बाद बंद हो गया था, जब इस क्षेत्र से हिंदू परिवारों ने पलायन किया था। मंदिर के पुन: खुलने के बाद दंगा पीडि़तों ने अपनी आपबीती साझा की, जिससे दंगों की पुन: जांच की मांग उठी। इस तरह की जांच कोई अनुचित नहीं है। लेकिन इस तरह की जांच का उद्देश्य मानवीय न्याय और दोषियों के लिए सजा होनी चाहिए। यदि यह राजनीतिक उद्देश्य है तो इस तरह की जांच फिर से व्यर्थ चली जाएगी।

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