इतिहास साक्षी है कि प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले, नई सोच और सिद्धांत प्रतिपादित करने वालों को तत्कालीन सत्ता या प्रभावशाली वर्ग अक्सर असहमति के कारण डराने-धमकाने, कैद करने या मौत के घाट उतारने से भी पीछे नहीं हटे। परंतु कालांतर में वही विचार जीवित रहे, समाज ने उन्हें स्वीकार किया और वे धारा बनकर प्रवाहित होते रहे। ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा, महात्मा गांधी को गोली का सामना करना पड़ा और शहीद भगत सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया—परंतु क्या इनके विचार मरे? नहीं। समाज ने इन्हें समय के साथ आत्मसात किया।
प्रसंगवश कबीर याद आते हैं—
साँच कहूँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
या फिर—
हम ना मरिहैं, मरिहैं जग सारा।
यह पंक्तियाँ आज भी सत्ता और समाज के बीच उठते सवालों की सटीक व्याख्या करती हैं।
जहां तक अर्बन नक्सल सोच की बात है, छत्तीसगढ़ से लेकर पूरे देश में नक्सलवाद को मिटाने की पुरज़ोर कोशिश जारी है। यह आंदोलन कभी समता, न्याय और जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के नाम पर खड़ा हुआ था, लेकिन बाद में अपने ही रास्ते से भटक गया। जिन आदिवासियों और शोषितों की सुरक्षा का दावा किया गया, उन्हीं पर बंदूकें तन गईं। निर्दोष ग्रामीणों से लेकर जवानों तक की जानें गईं।
बस्तर इसका जीवंत उदाहरण है। यहां पिछले दो दशकों में 3,300 से अधिक मुठभेड़ें दर्ज हुई हैं, जिनमें 1,300 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी शहीद हुए और 1,500 से ज्यादा नक्सली मारे गए। हिंसा का सबसे बड़ा शिकार आम नागरिक बने—2001 से अब तक 1,600 से अधिक ग्रामीणों की जान गई है। हाल के वर्षों में नक्सली घटनाओं में गिरावट आई है—सरकारी आँकड़ों के अनुसार पिछले पाँच सालों में घटनाएँ करीब 52 प्रतिशत कम हुई है और बस्तर के 589 गाँव नक्सल प्रभाव से मुक्त घोषित किए गए हैं। बावजूद इसके मुठभेड़ों और हताहतों का सिलसिला थमा नहीं है। 2023 में बस्तर में 69 मुठभेड़ें हुई थीं, जबकि 2024 में यह संख्या बढ़कर 123 हो गई और लगभग 217 नक्सली मारे गए। पिछले 17 महीनों में ही 1,300 से अधिक नक्सली गिरफ्तार हुए और लगभग इतनी ही संख्या में हथियार डाल चुके हैं। सरकार ने 31 मार्च 2026 तक बस्तर को नक्सल मुक्त करने का लक्ष्य भी तय किया है।
इन आँकड़ों के बीच सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस संघर्ष में निर्दोष आदिवासियों और उनके पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों को अक्सर संदेह की नजर से देखा जाता है। पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम का मामला याद है, जिन्हें बस्तर में पुलिस और नक्सलियों दोनों की ज्यादतियों पर रिपोर्टिंग करने के कारण घर छोडऩा पड़ा। कई स्थानीय वकील और सामाजिक कार्यकर्ता, जो आदिवासियों को न्याय दिलाने की कोशिश कर रहे थे, उन पर अर्बन नक्सल का ठप्पा लगाया गया। यह शब्द, जिसे 2017 में विवेक अग्निहोत्री की पुस्तक से लोकप्रियता मिली और 2018 के भीमा-कोरेगाँव मामले के बाद राजनीतिक हथियार बना, अब असहमति को दबाने का एक सुविधाजनक लेबल बन गया है।
ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का है, जिन्होंने राहुल गांधी को उनके जेन-जी बयान और वोट चोरी के आरोपों पर अर्बन नक्सल कह दिया। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में युवाओं को संविधान और अधिकारों की रक्षा के लिए प्रेरित करना सत्ता-विरोधी होना है, या यह लोकतंत्र की मूल भावना है? दरअसल, यह शब्द अब केवल सुरक्षा या विचारधारा से जुड़ा परिभाषानुमा शब्द नहीं रह गया है, बल्कि राजनीतिक हथियार बन चुका है। सत्ता-विरोधी किसी भी आवाज़ को—चाहे वह किसान आंदोलन हो, भीमा-कोरेगाँव का प्रसंग हो, जेएनयू प्रकरण हो या बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा—अर्बन नक्सल करार देकर खारिज करने की कोशिश की जाती है।
इसलिए यह ज़रूरी है कि अर्बन नक्सल जैसे शब्दों की परिभाषा और उसके उपयोग पर गंभीर बहस हो। विचारों का प्रतिरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का प्राण है। अगर हर असहमति को देशद्रोह या नक्सलवाद से जोड़ दिया जाएगा तो लोकतंत्र केवल नाम का रह जाएगा।
कबीर, गांधी और भगतसिंह हमें यही सिखाते हैं कि व्यक्ति मरता है, लेकिन विचार अमर रहते हैं। इसलिए सवाल यह नहीं कि अर्बन नक्सल कौन है, बल्कि यह है कि सत्ता असहमति से किस हद तक डरती है।
व्यक्ति मरता है, विचार नहीं

20
Sep